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Wednesday, 13 November, 2024
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छत्तीसगढ़ में भाजपा ने ऐतिहासिक पराजय के साथ सत्ता गवांई

जिस छत्तीसगढ़ में हार जीत का अंतर हमेशा अधिकतम दो प्रतिशत का रहा है, वहां पर इस बार भाजपा और कांग्रेस के वोटों में करीब 10 प्रतिशत का अंतर है.

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छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के अब तक आए रुझानों में चमत्कारिक परिणाम देखने को मिल रहे हैं. पिछले 15 सालों से राज्य की सत्ता पर काबिज बीजेपी इस बार बुरी तरह हारते हुए दिखाई दे रही है. दिन के तीन बजे तक आए रुझानों में कांग्रेस अब तक 61 सीटों पर आगे है, वहीं भाजपा को मात्र 14 सीट पर बढ़त मिलती दिखाई दे रही है.

अजित जोगी की जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ 5 सीट, बसपा तीन और सीपीआई के खाते में एक सीट जाते हुए दिखाई दे रही है. भाजपा को अब तक 32.7 फीसदी वोट मिले हैं, वहीं कांग्रेस को 42.9 फीसदी मत हासिल हो चुके हैं. अगर वोट परसेंट की बात करें तो जहां पिछले विधानसभा चुनाव में दोनों बड़ी पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा के बीच एक फीसदी वोट से भी कम का अंतर था, वहीं इस बार अप्रत्याशित तौर पर लगभग 10 फीसदी वोटों का अंतर नज़र आ रहा है.

18 साल पहले मध्य प्रदेश से अलग करके गठित हुए छत्तीसगढ़ राज्य में पहला विधानसभा चुनाव दिसंबर 2003 में हुआ था. उस समय भाजपा की स्थिति राज्य में हाशिए पर थी. भाजपा के 13 विधायक पाला बदल कर कांग्रेस में जा चुके थे. पार्टी में मचे अंदरूनी घमासान के बीच भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने डॉ. रमन सिंह पर भरोसा जताते हुए दिल्ली से छत्तीसगढ़ भेजा.

15 अक्टूबर 1952 को छत्तीसगढ़ के कवर्धा में जन्मे डॉ रमन सिंह ने पार्टी आलाकमान से मिले इस अवसर को भुनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. 90 विधानसभा सीटों वाले छत्तीसगढ़ में भाजपा ने पचास फीसदी से अधिक सीटों पर कब्ज़ा जमाते हुए 50 सीटें जीती वहीं कांग्रेस को 37 सीट पर सफलता मिली. डॉ. रमन सिंह राजनांदगांव सीट से चुनाव जीत कर पहली बार मुख्यमंत्री बने.

इस चुनाव में भाजपा ने आदिवासी क्षेत्रों में 34 में से 25 सीटें जीतते हुए इस धारणा को भी गलत किया कि भाजपा केवल शहरी इलाकों की पार्टी है. दोनों मुख्य पार्टियों भाजपा और कांग्रेस में वोट प्रतिशत का अंतर लगभग दो फीसदी का रहा.

डॉ. रमन सिंह ने इसके बाद ज़मीनी स्तर पर पार्टी को बढ़ाने के लिए पूरी कोशिश की. केंद्र में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद ‘चावल बाबा’ के नाम से मशहूर रमन सिंह के कुशल नेतृत्व में बीजेपी ने 2008 में भी अपना विजय अभियान जारी रखा. चुनाव परिणाम लगभग 2003 जैसे ही रहें. जहां भाजपा ने 50 सीटों पर जीत हासिल की, वहीं कांग्रेस के खाते में 38 सीटें आईं. बसपा के हिस्से 2 सीटें आईं. इस चुनाव में भी दोनों बड़ी पार्टियों के बीच वोट प्रतिशत का अंतर दो परसेंट के आसपास ही रहा.

राज्य में दस साल सफलतापूर्वक शासन करने के बाद भाजपा को 2013 के विधानसभा चुनाव में भी कोई खास दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा. पार्टी को 90 में से 49 सीटें मिलीं, वहीं कांग्रेस ने पिछले चुनाव से एक सीट का इज़ाफा करते हुए 38 सीटें जीती. लेकिन 2013 के चुनाव में कई मिथक भी टूटे.

छत्तीसगढ़ में कहा जाता है कि सत्ता की चाभी बस्तर से होकर जाती है. जहां 2008 के चुनाव में भाजपा ने बस्तर की 12 में से 11 सीटें जीती थीं वहीं 2013 के चुनावों में पार्टी को इस इलाके में केवल चार सीटों पर ही संतोष करना पड़ा. विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक के साथ साथ नेता प्रतिपक्ष रवींद्र चौबे को भी चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा.

पहली बार चुनाव लड़ रहे छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बेटे अमित जोगी ने 46,250 वोटों से चुनाव जीतकर पहली बार विधानसभा में कदम रखा. 2013 के विधानसभा चुनाव में पहली बार नोटा (नन ऑफ द एबव) यानी ‘इनमें से कोई नहीं’ का इस्तेमाल हुआ.

छत्तीसगढ़ के मतदाता नोटा को लेकर इस कदर उत्साहित थे कि कई पार्टियों के अंदर इसका भय पैदा हो गया. इस बात को इसी से समझा जा सकता है कि 2013 में 90 विधानसभा सीटों में 35 सीटों पर नोटा तीसरे स्थान पर रहा. जहां भाजपा को 41.04 फीसदी वोट मिले तो वहीं कांग्रेस को 40.29 फीसदी, और इन सब के बीच नोटा को 3.16 परसेंट वोट मिले थे. यह भाजपा और कांग्रेस के वोट प्रतिशत के अंतर से चार गुना अधिक था.

नोटा के लिए पड़े इतने ज़्यादा वोट को लेकर कुछ लोगों ने इसे आदिवासी क्षेत्रों में वोटिंग मशीन के बारे में कम जागरूकता को माना, जिसमें मशीन का पहला या आखिरी बटन दबाने वाले लोगों की संख्या अधिक बताई गई.

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि चुनाव नतीजे आने के पहले एग्ज़िट पोल समेत तमाम अनुमानों में कहा जा रहा था कि चावल बाबा यानी रमन सिंह सत्ता में वापसी करेंगे, लेकिन भाजपा और रमन सिंह का सियासी किला न सिर्फ कांग्रेस ने जीत लिया, बल्कि भारी बहुमत से जीत लिया है.

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