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Sunday, 23 June, 2024
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गुजरात की आदिवासी बेल्ट में BJP की कोशिशें रंग लाईं, राहुल क्यों अपनी पकड़ नहीं बना पाए

अब तक भाजपा आदिवासी बेल्ट में संघर्ष करती रही है, जिसमें कुल मिलाकर 27 सीटें हैं. 2017 में सत्तारूढ़ पार्टी को यहां 9 सीटें मिली थीं और इस बार वो पहले ही 20 पर आगे है जबकि कांग्रेस तीन सीटें हासिल करती दिख रही है.

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नई दिल्ली: गुजरात में दो दशक से अधिक समय तक सत्तासीन रहने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पहली बार राज्य की आदिवासी बेल्ट में सेंध लगाती दिख रही है. अब तक आए रुझानों और नतीजों के मुताबिक यह कुल 27 सुरक्षित सीटों में से 20 पर आगे है, जो कि परंपरागत तौर पर कांग्रेस का गढ़ मानी जाती रही हैं.

इसके विपरीत, दोपहर 3 बजे तक चुनाव आयोग की वेबसाइट पर चल रहे ट्रेंड के मुताबिक, परंपरागत तरीके से आदिवासी बेल्ट में वर्चस्व रखने वाली कांग्रेस मात्र तीन सीटों पर आगे चल रही थी. इस बीच, जिस आम आदमी पार्टी (आप) के राज्य में प्रवेश को भाजपा कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने वाला मान रही थी, वह देदियापाड़ा से एक सीट जीतने के करीब नजर आ रही है.

इसका मतलब यही है कि भाजपा की आदिवासी आउटरीच— एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाने से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पड़ोसी राज्य राजस्थान स्थित देशभर के आदिवासियों के लिए पूजनीय स्थल मनगढ़ धाम की यात्रा तक— असरदार रही है.

2011 की जनगणना के मुताबिक, गुजरात की आदिवासी आबादी 89.17 लाख थी, जो कि इसकी कुल आबादी में करीब 15 प्रतिशत है. राज्य के बनासकांठा, अंबाजी, दाहोद, पंचमहल, छोटा उदयपुर और नर्मदा आदि जिलों में आदिवासियों की एक बड़ी आबादी रहती है.

गुजरात का आदिवासी क्षेत्र— जो उत्तर में अंबाजी से लेकर वलसाड जिले के उमरगाम तक फैला हुआ है— एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां पैठ बनाने के लिए 1995 से ही भाजपा संघर्ष करती रही है.

2017 में कांग्रेस ने आदिवासी बेल्ट की 15 सीटें जीतीं, जबकि भाजपा 9 तक सीमित रही. कांग्रेस के साथ गठबंधन वाली भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) ने दो सीटों पर जीत हासिल की, जबकि एक सीट निर्दलीय उम्मीदवार के खाते में गई.

हालांकि, इस बार बीटीपी ने पहले तो गुजरात के सियासी परिदृश्य में अपेक्षाकृत नए खिलाड़ी आप के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन किया लेकिन फिर अकेले ही मैदान में उतरने का फैसला किया.

कांग्रेस के एक नेता ने दिप्रिंट को बताया कि इस साल के शुरू में आदिवासी बेल्ट में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन के कारण केंद्र सरकार ने पार-तापी-नर्मदा नदी-जोड़ परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया था. यह एक ऐसा मुद्दा था जो चुनावों के दौरान भी हावी रहा था.

जहां तक कांग्रेस की बात है तो उसे यह नुकसान ऐसी स्थिति में हुआ है जब खुद को गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनावों से अलग कर लेने वाले राहुल गांधी ने विधानसभा चुनाव के पहले चरण से 10 दिन पहले आदिवासी क्षेत्रों में प्रचार करने के लिए भारत जोड़ो यात्रा से ब्रेक लिया था.

राहुल ने दो रैलियों को संबोधित किया था, एक गुजरात के सूरत में आदिवासी बहुल महुवा में और दूसरी राजकोट में. उन्होंने मई में एक अन्य आदिवासी बहुल जिले दाहोद से गुजरात के लिए कांग्रेस के चुनाव अभियान की शुरुआत की थी.

चुनाव के दूसरे चरण में, जिसमें 13 सुरक्षित सीटें शामिल थीं, आदिवासी बहुल निर्वाचन क्षेत्रों से सबसे अधिक मतदान प्रतिशत दर्ज किया गया था. इसमें साबरकांठा में सबसे अधिक 65.84 प्रतिशत, उसके बाद बनासकांठा में 65.65 प्रतिशत और खेड़ा में 62.65 प्रतिशत मतदान हुआ था.


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आदिवासियों को लुभाने पर भाजपा का जोर

आदिवासी इलाकों में कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर रही है.

भाजपा आदिवासी समुदाय के बीच पैठ बनाने के लिए हरसंभव कोशिश करती नजर आई है जिसमें संथाल जनजाति से आने वाली ओडिशा की द्रौपदी मुर्मू की राष्ट्रपति पद पर नियुक्त किए जाने से लेकर गुजरात चुनाव से ठीक पहले पीएम मोदी की मनगढ़ धाम यात्रा तक शामिल रही है.

मोदी ने अपनी चुनाव प्रचार रैलियों में जुलाई में राष्ट्रपति चुनाव में मुर्मू का समर्थन नहीं करने को लेकर कांग्रेस को घेरने की कोशिश भी की.

भाजपा ने हर घर नल का पानी पहुंचाने के अपने वादे के अलावा धर्मांतरण का मुद्दा, खासकर दाहोद में, भी उठाया.

1 नवंबर को मनगढ़ धाम— जिसे ‘आदिवासी जलियांवाला बाग’ के नाम से भी जाना जाता है—की अपनी यात्रा के दौरान मोदी ने 17 नवंबर 1913 को मनगढ़ पहाड़ियों में अंग्रेजों के हाथों मारे गए 1,500 भीलों को श्रद्धांजलि अर्पित की.

इस मौके पर आयोजित कार्यक्रम के दौरान मोदी ने कहा कि आजादी के बाद के इतिहास में आदिवासियों के बलिदान को उचित सम्मान नहीं मिला. उन्होंने मुंडा जनजाति के 19वीं सदी के स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा के बारे में भी कहा कि उन्होंने लाखों आदिवासियों के बीच स्वतंत्रता की लौ प्रज्वलित की थी.

उन्होंने कहा, ‘आपने सदियों पहले गुलामी की शुरुआत से लेकर 20वीं सदी तक ऐसा कोई समय नहीं देखा होगा, जब आदिवासी समुदाय की तरफ से आजादी की लौ न जलाई गई हो.’

भाजपा नेताओं को पूरी उम्मीद थी कि इस दौरे से उन्हें गुजरात में आदिवासी वोट हासिल करने में मदद मिलेगी.


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गांधी की ‘आदिवासी बनाम वनवासी’ पिच नहीं दिखा पाई असर

जहां तक कांग्रेस की बात है, तो चुनाव अभियान की शुरुआत से ही उसका पूरा ध्यान आदिवासी वोट हासिल करने पर केंद्रित था, यहां तक कि एक ‘आदिवासी पत्र’ भी जारी किया गया था. इस चुनावी दस्तावेज में आदिवासी मुद्दों को सूचीबद्ध किया गया था, जिन पर पार्टी ने अपने पूरे अभियान के दौरान ध्यान केंद्रित किया और यह वादा भी किया कि सत्ता में आने पर इन्हें लागू किया जाएगा.

अपनी महुवा रैली में राहुल गांधी ने राज्य में आदिवासियों को ‘आदिवासी’ की जगह ‘वनवासी’ कहकर संबोधित करने के लिए भाजपा पर निशाना भी साधा.

राहुल ने कहा कि उनकी पार्टी आदिवासियों के अधिकारों के लिए खड़ी है और उन्हें ‘देश के पहले मालिक’ के तौर पर मानती है जबकि भाजपा ने ‘उद्योगपतियों को देने के लिए उनकी जमीनें छीन ली हैं.’

राहुल ने देश के ‘आदिवासियों के साथ गहरे संबंधों’ के बारे में सिखाने के लिए अपनी दादी दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी श्रेय दिया.

रैली में राहुल ने कहा, ‘भाजपा के लोग आपको आदिवासी नहीं कहते. वह आपको क्या बुलाते है? वनवासी. ये नहीं कहते कि आप हिन्दुस्तान के पहले मालिक हो. वे आपसे कहते हैं कि आप जंगलों में रहते हैं, मतलब वे नहीं चाहते कि आप शहरों में रहें, आपके बच्चे इंजीनियर बनें, डॉक्टर बनें, विमान उड़ाएं, अंग्रेजी में बात करें.’

हालांकि, यह पिच कारगर साबित होते नहीं दिखी क्योंकि, अब तक आदिवासी बेल्ट में पार्टी महज तीन सीटों पर सिमटती नजर आ रही है.

इसके अलावा, साबरकांठा जिले के खेड़ब्रह्मा से तीन बार के विधायक अश्विन कोतवाल जैसे आदिवासी नेताओं के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने से भी पार्टी को खासा नुकसान पहुंचा है.

(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: कृष्ण मुरारी)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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