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Monday, 23 December, 2024
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SC से ‘आस्था कम होने’ के कपिल सिब्बल के बयान को बार एसोसिएशन ने ‘अवमाननापूर्ण’ करार दिया

राज्यसभा सांसद और वरिष्ट अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट के कुछ हालिया फैसलों पर नाराजगी जताते हुए कहा है कि उनका संस्था में 'कोई उम्मीद नहीं बची' है.

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नई दिल्ली: ऑल इंडिया बार एसोसिएशन (एआईबीए) ने राज्यसभा सांसद और वरिष्ट अधिवक्ता कपिल सिब्बल के उस बयान को ‘अवमाननापूर्ण’ बताया है जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्होंने भारतीय न्यायपालिका में उम्मीद खो दी है.

एआईबीए के अध्यक्ष डॉ आदिश सी अग्रवाल ने कहा, ‘एक मजबूत प्रणाली भावनाओं से अलग होती है और वह सिर्फ कानून से प्रभावित होती है. कपिल सिब्बल वरिष्ठ अधिवक्ता हैं. जजों और उनके निर्णयों को सिर्फ इसलिए खारिज करना उनके लिए उचित नहीं है क्योंकि अदालतें उनके या उनके सहयोगियों की दलीलों से सहमत नहीं थीं.

उन्होंने आगे कहा, ‘यह एक चलन बन गया है कि जब किसी के खिलाफ मामला तय किया जाता है तो वह व्यक्ति सोशल मीडिया पर जजों की निंदा करने लगता है कि जज पक्षपाती है या न्यायिक प्रणाली विफल हो गई है.’

आदिश ने इसे अवमाननापूर्ण बताते हुए कहा कि कपिल सिब्बल सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष भी थे उनका यह बयान दुर्भाग्यपूर्ण है.

उन्होंने कहा, ‘अगर कपिल सिब्बल की पसंद का मामलों का फैसला नहीं किया गया है तो इसका मतलब यह नहीं है कि न्यायिक प्रणाली विफल हो गई है.’

आदिश ने सिब्बल को सलाह देते हुए कहा कि अगर सिब्बल की वास्तव में संस्था में आशा की कमी महसूस करते हैं तो वह अदालतों के सामने पेश नहीं होने के लिए स्वतंत्र है.


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‘कोई उम्मीद नहीं बची है’

राज्यसभा सांसद और वरिष्ट अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट के कुछ हालिया फैसलों पर नाराजगी जताते हुए कहा है कि उनका संस्था में ‘कोई उम्मीद नहीं बची’ है.

सिब्बल ने कहा, ‘अगर आपके लगता है कि सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलेगी तो आप बहुत बड़ी गलती करेंगे और मैं यह 50 साल सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने के बाद बोल रहा हूं. ‘

उन्होंने आगे कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक ऐतिहासिक फैसला दिए जाने केबाद शायद ही कोई जमीनी हकीकत को बदली हो.’

सिब्बल ने कहा, ‘इस साल मैं सुप्रीम कोर्ट में 50 साल पूरे कर लूंगा और इतना समय बिताने के बाद मुझे लगता है कि मेरी संस्थान में उम्मीद नहीं बची है. आप सुप्रीम कोर्ट के प्रगतिशील फैसलों के बारे में बातें करते हैं लेकिन जमीनी हकीकत में बहुत ज्यादा अंतर होता है. सुप्रीम कोर्ट निजता पर फैसला देते है और ईडी आपके घर आ जाती है. इसमें आपकी नीजता कहां है?’

सिब्बल दिल्ली में कैंपेन फॉर जुडिशल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म (सीजेएआर), पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) और नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स द्वारा “नागरिक स्वतंत्रता के न्यायिक रोलबैक” पर आयोजित एक पीपुल्स ट्रिब्यूनल में बोल रहे थे.

सिब्बल ने 2002 के गुजरात दंगों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एसआईटी द्वारा दी गई क्लीन चिट को चुनौती देने वाली कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जकिया जाफरी द्वारा दायर याचिका को खारिज करने, पीएमएलए के तहत ईडी के अधिकारों बरकरार रखना और छत्तीसगढ़ में नक्सल विरोधी अभियानों के दौरान सुरक्षा बलों द्वारा 17 आदिवासियों की गैर-न्यायिक हत्याओं की कथित घटनाओं की स्वतंत्र जांच की मांग वाली 2009 में दायर याचिका को खारिज करने के फैसलों की आलोचना की.

जस्टिस एएम खानविलकर की अध्यक्षता वाली बेंच ने ये सभी फैसले दिए थे, जो अब रिटायर्ड हो चुके हैं. सिब्बल जकिया जाफरी और पीएमएलए अधिनियम के प्रावधानों को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए थे.

उन्होंने यह भी कहा कि ‘संवेदनशील मामले’ सिर्फ चुनिंदा न्यायाधीशों को सौंपे जाते हैं और कानूनी बिरादरी आमतौर पर पहले से जानती है कि फैसले का परिणाम क्या होगा.

‘मैं ऐसी अदालत के बारे में बात नहीं करना चाहता जहां मैंने 50 साल तक अभ्यास किया है लेकिन समय आ गया है. अगर हम इस बारे में बात नहीं करेंगे तो कौन करेगा? हकीकत यह है कि कोई भी संवेदनशील मामला जिसमें कुछ समस्याएं हैं वह कुछ न्यायाधीशों के सामने रखे जाते हैं और हम उनका परिणाम जानते हैं.’

सिब्बल ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी सवाल उठाते हुए कहा, “जिस कोर्ट में जज बिठाए जाते हैं समझौता की प्रक्रिया से, एक अदालत जहां यह तय करने की कोई व्यवस्था नहीं है कि किस मामले की अध्यक्षता किस बेंच द्वारा की जाएगी, जहां भारत के चीफ जस्टिस यह तय करते हैं कि किस मामले को कौन सी बेंच द्वारा निपटाया जाएगा और कब? वह अदालत कभी भी स्वतंत्र नहीं हो सकती है.’

उन्होंने कहा कि जब तक लोग अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक स्थिति नहीं बदलेगी.

उन्होंने कहा, ‘भारत में हमारे माई-बाप की संस्कृति है, लोग शक्तिशाली के चरणों में गिरते हैं लेकिन समय आ गया है कि लोग बाहर आएं और अपने अधिकारों की सुरक्षा की मांग करें.’


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