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Monday, 23 December, 2024
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रिकॉर्ड फसल, कम दाम और ज्यादा लागत- हिमाचल में चुनाव नजदीक आने के बीच नाखुश क्यों हैं सेब उत्पादक

हिमाचल में विधानसभा चुनाव नजदीक आने के साथ भाजपा के पास किसानों की एमएसपी, एकसमान बॉक्स साइज और सेब को ‘रंग के आधार पर वर्गीकृत’ करने में छूट जैसी मांगों को पूरा करने के लिए बहुत कम समय बचा है.

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शिमला: हिमाचल प्रदेश में विधानसभा के चुनाव में एक महीने से थोड़ा अधिक समय ही बचा है और राज्य के सेब उत्पादक किसानों में नाराजगी साफ नजर आ रही है. सेबों की कम कीमत मिलने की समस्या दूर करने के लिए किसान जयराम ठाकुर के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार के साथ बातचीत भी कर रहे हैं.

हिमाचल में सेब का मौसम जुलाई से अक्टूबर तक चलता है. परंपरागत तौर पर फसल राज्य भर में 10 कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी) मंडियों में बेची जाती है, जहां गुणवत्ता, आकार और रंग आदि के आधार पर खुली नीलामी की दरें तय होती हैं.

रोहड़ू फल बाजार अध्यक्ष दिग्विजय कालता के मुताबिक, इस साल बाजार में सेब की आवक 4 करोड़ पेटी (प्रत्येक 20 किलो की) के पार पहुंच जाने की उम्मीद है, जो पिछले साल लगभग 3 करोड़ पेटी उत्पादन की तुलना में काफी अधिक है.

कालता ने कहा, ‘हिमाचल में रिकॉर्ड फसल के अलावा, ईरान से शुल्क मुक्त सेब के आयात और कश्मीर में अच्छी फसल के कारण भी स्थानीय स्तर पर कीमतों में गिरावट आई है.’

ढल्ली और पराला मंडियों के एक व्यापारी अनूप कोशमीशोन ने कहा कि आवक इतनी ज्यादा है कि कोई भी आम तौर पर जूस बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले निम्न-श्रेणी के सेब खरीदना नहीं चाहता है. ऐसे में कई पैकेजिंग सेंटर में सेबों के सड़ने की नौबत आ गई है.’

राज्य के ठियोग निर्वाचन क्षेत्र में रहने वाला सोहन लाल ठाकुर का परिवार तीन पीढ़ियों से सेब उगा रहा है और उनके पास 16.5 एकड़ का सेब का बाग है. करीब एक दशक पहले तक उनका और उनके परिवार का बाग से होने वाली कमाई से आराम से गुजारा हो जाता था. उन्होंने बताया, ‘एक समय था जब हम अच्छा मुनाफा कमाते थे लेकिन पिछले 10 सालों से किसानों को उनकी उपज का एक ही दाम मिल रहा है.’

कीमतों में कमी के साथ कुछ किसानों की नाराजगी अडानी एग्री फ्रेश को लेकर भी है. वैसे, कंपनी राज्य के 6.25 लाख टन के वार्षिक उत्पादन में से लगभग 25,000 टन यानी करीब 4 प्रतिशत ही खरीदती है. सीधे उत्पादकों से सेब खरीदने वाली अडानी एग्री फ्रेश ने चालू सीजन में ए-ग्रेड सेब के लिए 76 रुपये प्रति किलोग्राम से लेकर सी-ग्रेड सेब के लिए 15 रुपये प्रति किलोग्राम तक अपना खरीद मूल्य खोला था और बाद में आवक बढ़ने के साथ कीमतों में कमी कर दी.

ठाकुर ने कहा, ‘कंपनी पूरे सीजन में केवल 25,000 टन सेब खरीदती है लेकिन इसकी कम खरीद कीमत ने पूरे बाजार में कीमतें बिगाड़ दी हैं. अगर हालात नहीं सुधरे तो चार से पांच साल में सेब उद्योग नष्ट हो जाएगा.’

किशन वर्मा भी इस बात से सहमत हैं. वह शिमला जिले के सरोग गांव में 3.3 एकड़ भूमि पर खेती करते हैं और मार्केटिंग कास्ट घटाकर सेब के बाग से बाहर आने तक की कुल लागत का काफी ज्यादा होने रोना रोते हैं, जिसमें पैकेजिंग सामग्री भी शामिल है.

उन्होंने कहा, ‘सरकार जानती है कि सेब उद्योग हिमाचली लोगों के लिए आजीविका का साधन है. फिर भी, ऐसी नीतियां बनाने की जहमत नहीं उठाती जो सेब उत्पादकों के जीवन को बेहतर बनाए.’ साथ ही सवाल उठाया, ‘सरकार सेब के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का वादा क्यों नहीं कर सकती?’

किसानों की शिकायतों पर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने दिप्रिंट को बताया, ‘जैसे ही किसानों ने (हाई) इनपुट कास्ट का मुद्दा उठाया, हमने माल और सेवा कर (जीएसटी) पर एक (6 प्रतिशत) सब्सिडी दे दी. राज्य सरकार सेब किसानों की समस्याएं दूर करने की कोशिश कर रही है.’

रिपोर्टों के मुताबिक, हिमाचल प्रदेश की एप्पल इकोनॉमी 5,500 करोड़ रुपये होने का अनुमान है और राज्य के सेब उत्पादकों का शिमला जिले में अच्छा-खासा राजनीतिक दबदबा भी है, जहां किन्नौर, सोलन, मंडी और सिरमौर के कुछ हिस्सों के साथ राज्य के 70 प्रतिशत सेब उगाए जाते हैं.

कुल मिलाकर, ये जिले हिमाचल की सेब बेल्ट में शामिल है और राज्य की 68 विधानसभा सीटों में से 20 इन्हीं जिलों की हैं. अभी शिमला की आठ विधानसभा सीटों में से केवल दो भाजपा के पास हैं.

सेब उत्पादकों की तरफ से जताई गई चिंताएं दूर करने और थोक मूल्यों की निगरानी के लिए राज्य सरकार ने अगस्त में सोलन जिले में स्थित डॉ. यशवंत सिंह परमार बागवानी एवं वानिकी विश्वविद्यालय के कुलपति राजेश्वर सिंह चंदेल की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी, जिसमें किसान, राज्य सरकार और निजी कंपनियों के प्रतिनिधि शामिल थे.

अब, जब चुनावों में दो महीने से भी कम वक्त बचा है, भाजपा के पास किसानों के मुद्दों को हल करने के लिए बहुत सीमित समय है. राज्य सरकार मुद्दों को सुलझाने के लिए पिछले महीने समिति की तीन बैठकें बुला चुकी है.


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अडानी एग्री फ्रेश के प्रति नाराजगी

राज्य में 27 सेब उत्पादक संघों की एक संयुक्त संस्था संयुक्त किसान मोर्चा यानी एसकेएम (यह विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन करने वाले किसानों के संयुक्त संगठन से एक अलग मंच है) के संयोजक संजय चौहान के मुताबिक, 2017 में अडानी की तरफ से सेब के लिए शुरुआती कीमत 85 रुपये प्रति किलो तय की गई थी. ‘अब, पांच साल बाद, जबकि इनपुट लागत 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ गई है, खरीद मूल्य घटकर 76 रुपये प्रति किलोग्राम रह गया है.’

एसकेएम सेब के लिए एमएसपी न होने, पैकेजिंग सामग्री पर 18 फीसदी जीएसटी और अडानी एग्री फ्रेश की तरफ से खरीद कीमतों में कमी के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों की अगुवाई कर रहा है.

चौहान ने कहा कि किसान पूरे साल अपने बागों की देखभाल करते हैं लेकिन फसल का बड़ा हिस्सा 30-40 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचना पड़ता है, जिससे खेती पर आने वाला खर्च भी नहीं निकल पाता.

सितंबर में, अडानी एग्री फ्रेश ने सेब की सभी श्रेणियों के लिए अपना खरीद मूल्य और घटा दिया क्योंकि सेब की आवक बहुत ज्यादा हो गई थी. हालांकि, कंपनी ने अपने इस कदम का बचाव किया है.

अडानी एग्री फ्रेश के प्रवक्ता अंशुमान गुंजन ने कहा, ‘बाजार हमेशा मौजूदा परिस्थितियां देखकर ही खरीद की कीमतें तय करता है, जिन्हें मांग और आपूर्ति, कुल उपज और फसल की गुणवत्ता आदि के आधार पर निर्धारित किया जाता है. हिमाचल प्रदेश में इस बार की फसल गुणवत्ता और वैराइटी दोनों के लिहाज से पिछले कुछ वर्षों की तुलना में बहुत बेहतर है. सेब किसानों को मौजूदा बाजार कीमतों की तुलना में अधिक दाम देने के अलावा, हम उन्हें कई अन्य सुविधाएं भी प्रदान करते हैं, जैसे मुफ्त क्रेट और ओला नेट मुहैया कराना, समय पर भुगतान और भी बहुत कुछ.


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सरकार से बातचीत

राज्य सरकार की समिति के सदस्य और एक किसान लोकविंदर सिंह ने दिप्रिंट से कहा, ‘हमने मांग की है कि पूरे सीजन के लिए एक खरीद मूल्य होना चाहिए. यह किसानों और खरीद एजेंसियों के लिए मददगार कदम होगा.’

किसानों ने दो अन्य प्रमुख मांगें भी सामने रखी हैं, उनमें सेब के लिए पेटी का समान आकार तय किया जाना और ‘रंग के आधार वर्गीकरण’ के मानदंड में छूट देना शामिल है, जिससे कीमतों पर काफी असर पड़ता है.

निजी खिलाड़ी विभिन्न मानदंडों के आधार पर सेब खरीदते हैं और इनमें से एक रंग भी है. सेब के रंग के लिए तीन श्रेणियां बनाई गई हैं— 80 से 100 प्रतिशत लाल, 60 से 80 प्रतिशत लाल और 60 प्रतिशत से कम लाल. सेब उत्पादकों की मांग है कि स्टोर रंग वर्गीकरण को संशोधित करके 70 से 100 प्रतिशत, 50 से 70 प्रतिशत और 50 प्रतिशत तक करें.

इसके अलावा किसानों ने निम्नलिखित मांगें भी की हैं— सरकारी दुकानों में फफूंदनाशक उपलब्ध कराया जाए, जीएसटी से राहत मिले, सेब और अन्य फल उत्पादकों की चिंताएं दूर करने के लिए एक बागवानी बोर्ड बने, ईरान और अफगानिस्तान से आने वाले सेब पर आयात शुल्क बढ़ाया जाए, कश्मीर की तरह राज्य की एजेंसी द्वारा एमएसपी पर सेब की खरीद की व्यवस्था हो और छोटे कोल्ड स्टोरेज विकसित किए जाएं.

सरकार ने इनमें से कुछ मांगों को मान लिया है, जिसमें एक बागवानी बोर्ड की स्थापना, रंग वर्गीकरण में संशोधन के लिए एक उप-समिति का गठन और जीएसटी राहत शामिल हैं.

हालांकि, एसकेएम से जुड़े चौहान के मुताबिक, 2 सितंबर को सरकारी समिति की बैठक में सेब के रंग वर्गीकरण के मामले पर चर्चा हुई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.

संयोजक ने कहा, ‘अब सेब का सीजन खत्म होने वाला है और बड़ी मंडियों में कीमत 2,400 से 2,200 रुपये (प्रति 20 किलो) पेटी से घटकर 1,400 से 1,800 रुपये (प्रति 20-25 किलो) रह गई हैं.

सरकारी समिति के अध्यक्ष चंदेल ने दिप्रिंट को बताया कि ‘सेब के लिए खरीद मूल्य तय करना संभव नहीं है.’

चंदेल ने कहा, ‘कीमतें मांग-आपूर्ति फैक्टर के आधार पर तय होती हैं. हम केवल रंग-वर्गीकरण जैसे मुद्दे हल कर सकते हैं और पैकेजिंग सामग्री और फफूंदनाशक पर सब्सिडी जैसे कदमों से सेब उत्पादकों को प्रोत्साहित कर सकते हैं. सरकार ने रंग वर्गीकरण के मुद्दे पर एक उप-समिति का गठन किया है और हमने निजी स्टोरों को रंग वर्गीकरण को संशोधित करने को भी कहा है.’


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‘किसानों का शोषण’

किसान स्थानीय और बाहरी खरीदारों और अन्य निजी खिलाड़ियों से भी नाखुश हैं जो थोक मंडियों के माध्यम से उनसे सेब खरीदते हैं.

ऊपर उद्धृत सेब उत्पादक वर्मा ने कहा, ‘अडानी एग्री फ्रेश ने सितंबर तक 24,000 टन सेब की खरीद की है, अन्य निजी खिलाड़ियों ने तब तक खरीद शुरू नहीं की जब तक कीमतें अधिक रहीं. उन्होंने अभी सितंबर में खरीदना शुरू किया है, जब कीमतें गिरकर 40 रुपये प्रति किलोग्राम पर पहुंच गईं.’

कोटखाई से अपनी फसल शिमला की थोक मंडी में बेचने आए किसान प्रदीप टम्टा ने कहा, ‘केवल छोटे, स्थानीय खरीदार और बिचौलिए ही पैसा कमा रहे हैं. वे बाद में बड़ा मुनाफा कमाने के लिए फसल का स्टॉक कर रहे हैं. जबकि हम 50 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचते हैं, वे दिल्ली और मुंबई में 120 रुपये प्रति किलो से अधिक दाम पर सेब बेचते हैं.’

हिमाचल एपीएमसी के प्रबंध निदेशक नरेश ठाकुर ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि सरकार किसानों की शिकायतों पर गौर कर रही है. उन्होंने कहा, ‘जैसे ही किसान संघ ने पैकेजिंग सामग्री पर 18 फीसदी जीएसटी का मुद्दा उठाया, सरकार ने 6 प्रतिशत सब्सिडी की घोषणा कर दी.’

लेकिन ठियोग सीट से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के विधायक और किसान आंदोलन समर्थक ताकतों में से एक राकेश सिंघा ने इन प्रयासों को ‘महज दिखावा’ करार दिया है.

उन्होंने कहा, ‘सब्सिडी पाना एक कठिन प्रक्रिया है और सेब का मौसम खत्म होने वाला है. सरकारी समिति दो महीने में खरीद के लिए न्यूनतम मूल्य का सुझाव भी नहीं दे सकी है.’


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हिमाचल की सेब राजनीति

हिमाचल प्रदेश की सत्ता में वापसी की कोशिश कर रही और पिछले साल उपचुनावों के दौरान तीन विधानसभा सीटों और काफी अहम मानी जाने वाली मंडी लोकसभा सीट पर जीत हासिल करने वाली कांग्रेस सेब उत्पादकों की चिंताओं की ‘अनदेखी’ को लेकर भाजपा पर निशाना साध रही है.

दूसरी ओर, सीएम ठाकुर ने कहा है कि कांग्रेस किसानों के मुद्दे का राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश कर रही है.

नाम न छापने की शर्त पर एक भाजपा नेता ने कहा, ‘कांग्रेस सेब किसानों की समस्याओं को चुनावी मुद्दा बना रही है.’ साथ ही जोड़ा, ‘हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के बेटे विक्रमादित्य खुद एसकेएम के विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा ले रहे हैं और यहां तक कि वामपंथी भी सेब का मुद्दा उछालकर अपनी सीटें बढ़ाने की जुगत में लगे हैं.’

ठियोग विधायक सिंघा इस समय राज्य में वाम दलों के एकमात्र विधायक हैं.

भाजपा नेता ने कहा, ‘यह दर्शाता है कि वे नाराजगी का फायदा उठाना चाहते हैं लेकिन हम सजग हैं और राज्य के किसानों की चिंताओं को दूर करने की दिशा में गंभीरता से काम कर रहे हैं.’

हिमाचल के एक राज्य मंत्री ने दिप्रिंट को बताया, ‘चूंकि यह चुनाव का समय है, सरकार किसानों की उपेक्षा नहीं कर सकती, इसलिए समिति की पिछली दो बैठकों में उनकी अधिकांश मांगों को स्वीकार कर लिया गया है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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