हैदराबाद: इस सप्ताह की शुरुआत में, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के महाराष्ट्र के सांसद इम्तियाज जलील ने अपनी पार्टी में अंदरूनी उथल-पुथल से जूझ रहे शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे द्वारा मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देने की पेशकश करने के लिए उनकी प्रशंसा की.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ठाकरे की अपनी पार्टी में और इसके परिणामस्वरूप उनकी महाविकास अघाड़ी सरकार – में मची उथल-पुथल के बारे में उनके द्वारा बुधवार को सोशल मीडिया पर दिए गये संबोधन के कुछ ही मिनट बाद जमील ने एक ट्वीट में कहा कि यह बयान पार्टी के भीतर असंतुष्टों के लिए एक ‘कड़े थप्पड़’ जैसा था.
जलील ने इस ट्वीट में कहा, ‘@CMOMaharashtra की सच्चाई की सराहना करता हुं. @ShivSena के साथ हमारे राजनीतिक/वैचारिक मतभेद हो सकते हैं, लेकिन श्री उद्धव ठाकरे को सुनने के बाद आज उनके प्रति मेरा सम्मान बढ़ गया है. आपकी शिष्टता ने आपकी पार्टी के सभी असंतुष्टों को एक जोरदार तमाचा लगाया है.’
यह बयान उस कदम के बाद आया है जिसके तहत महाराष्ट्र विधानसभा में दो सदस्यों वाली उनकी पार्टी ने पिछले सप्ताह की शुरूआत हुए विधान परिषद चुनावों में शिवसेना और इसकी सहयोगी कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) का समर्थन किया था.
राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि ये उदाहरण एआईएमआईएम, जो भाजपा की ‘बी-टीम’ – या उसकी एक गुप्त सहयोगी – के रूप में अपनी छवि को तोड़ने के लिए संघर्ष कर रही है, की तरफ से कुछ संकेत दे रहे हैं और यह अब अन्य विपक्षी दलों के करीब आने का प्रयास कर रही है, हालांकि उनका मानना है कि यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी कि यह पार्टी की नीतियों में कोई असल बदलाव है या राजनीतिक लाभ के लिए लिया गया सिर्फ एक क्षणिक निर्णय है.
औरंगाबाद के सांसद जलील ने अपनी तरफ से दिप्रिंट को बताया कि इसका बुनियादी मकसद भाजपा को हराना था.
उन्होने कहा, ‘हमारी पार्टी का मुख्य ध्यान (फोकस) भाजपा को हराने पर है. इसलिए, इस तरह के फोकस वाले किसी भी अन्य दल को हमारा समर्थन मिलेगा और इसी वजह से हमने एनसीपी और कांग्रेस का समर्थन किया.’
जलील ने कहा, ‘हमने एमवीए, जिसका हम समर्थन करते हैं और परस्पर समझ रखते हैं, के साथ भी इस बारे में चर्चा की. हालांकि हमारे सिर्फ दो विधायक थे, इसलिए संख्या के हिसाब से, इससे शायद ही कोई फर्क पड़ता है.’
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महाराष्ट्र विधानसभा की कुल संख्या 288 विधायकों की है.
एआईएमआईएम के राष्ट्रीय प्रवक्ता और पूर्व विधायक वारिस पठान ने कहा कि पार्टी के विधायकों की कांग्रेस और राकांपा के साथ ‘आपसी समझ’ थी – उनके समर्थन के बदले में उनके निर्वाचन क्षेत्रों में लंबित कार्यों को पूरा करना.
पठान ने दिप्रिंट को बताया, ‘बेशक, इस समर्थन का बुनियादी मकसद यह है कि हम भाजपा को हराना चाहते हैं,’ उन्होंने कहा कि उद्धव ठाकरे के बारे में जलील का ट्वीट उनकी निजी राय थी, न कि पार्टी का अधिकारिक रुख.
अलग-थलग किए जाने से नाखुश
एक राजनीतिक पर्यवेक्षक ने उनका नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया कि एआईएमआईएम और आंध्र की दो पार्टियों – वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी) और पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) – को 15 जून को हुई विपक्षी बैठक में राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार तय करने पर फैसला करने वाली बैठका से बाहर छोड़ दिया गया था.
इस विशेषज्ञ ने कहा, ‘तेदेपा और वाईएसआरसीपी दोनों का भारतीय जनता पार्टी के साथ किसी न किसी तरह का संबंध रहा है – जहां तेदेपा साल 2018 में मतभेदों के कारण राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग होने तक उसका हिस्सा रही थी, वहीं वाईएसआरसीपी को सत्तारूढ़ गठबंधन के अप्रत्यक्ष सहयोगी के रूप में देखा जाता है.’
विशेषज्ञ ने आगे कहा कि दूसरी ओर, एआईएमआईएम शायद अभी भी अन्य दलों को यह समझाने में विफल रही है कि वह भाजपा की बी-टीम नहीं है.
एआईएमआईएम के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि पार्टी प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा बुलाई गयी इस बैठक, जिसमें कांग्रेस सहित 17 विपक्षी दलों ने भाग लिया था, से बाहर किए जाने से नाखुश थे.
हालांकि उन्होंने अगली बैठक में भाग लेने के लिए राकांपा प्रमुख शरद पवार के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया और इसके लिए जलील को अपने प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया.
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‘वोट कटवा का आरोप’
साल 2012 में तेलंगाना से बाहर के राज्यों में चुनाव लड़ने के फ़ैसले के बाद से ही पार्टी को धर्मनिरपेक्ष वोटों के ‘वोट कटवा’ के रूप में माना जा रहा है.
चुनावी आंकड़ों से पता चलता है कि एआईएमआईएम – जिसने हाल के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए बाबू सिंह कुशवाहा और भारत मुक्ति मोर्चा के साथ गठबंधन किया था – ने इस राज्य के कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी के वोटों में सेंध लगाई थी.
उदाहरण के तौर पर मोरदाबाद नगर सीट पर एआईएमआईएम को 2,661 वोट मिले थे जबकि भाजपा के रितेश कुमार गुप्ता ने 1,48,384 वोट हासिल करते हुए सपा के मोहम्मद यूसुफ अंसारी के खिलाफ केवल 782 वोटों के मामूली अंतर से जीत हासिल की थी. इसी तरह बाराबंकी जिले की बाराबंकी सीट पर भाजपा विधायक शकेंद्र प्रताप वर्मा की सपा के राकेश कुमार वर्मा पर जीत का अंतर महज 217 वोटों का था. यहां एआईएमआईएम उम्मीदवार कुमैल अशरफ खान को 8,541 वोट मिले. कम-से-कम पांच अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में भी इसी तरह के रुझान दिखाई देते हैं.
हालांकि, यह बात सभी राज्यों के मामले में सच नहीं है. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में, एआईएमआईएम ने अपनी लड़ी गई 20 सीटों में से 5 पर जीत हासिल की और राजग इन 20 में से छह अन्य सीटें जीतने में सफल रहा था. लेकिन इनमें से केवल एक सीट, रानीगंज, में ही एआईएमआईएम को मिले वोट एनडीए और महागठबंधन (राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और वाम दलों के गठबंधन) के बीच के जीत के अंतर से अधिक थे.
अन्य विपक्षी दलों, विशेष रूप से कांग्रेस, की ओर एआईएमआईएम का यह नरम रुख आश्चर्यजनक है, खासकर इसलिए क्योंकि ओवैसी इस पार्टी के एक कट्टर आलोचक रहे हैं, और बदले में कांगेस ने हमेशा उनकी पार्टी को भाजपा की बी-टीम के रूप में देखा है. इसके अलावा, इस साल के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ओवैसी ने सपा पर भी उतना ही हमला किया, जितना की भाजपा पर.
इस बारे में पठान ने दिप्रिंट को बताया कि एआईएमआईएम भाजपा को हराने के लिए किसी भी पार्टी के साथ काम करने को तैयार है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि पार्टी निश्चित रूप से उनके साथ गठबंधन ही करेगी.
उन्होंने कहा, ‘हम खुद किसी पार्टी से संपर्क नहीं करेंगे, लेकिन अगर वे (भाजपा विरोधी दल) हमसे संपर्क करते हैं, तो हम उनका समर्थन करने से हिचकिचाएंगे भी नहीं.’ पठान ने कहा, ‘और सिर्फ इसी कारण से हमने एमएलसी चुनावों में किसी पार्टी विशेष का समर्थन किया या राष्ट्रपति चुनाव की चर्चा में भाग लिया. इसका मतलब यह नहीं है कि हमारा उनसे गठबंधन होगा. यह हमारा रुख़ कतई नहीं है. हम अपने फ़ैसले स्थानीय सियासी ज़रूरतों के आधार पर और भाजपा को हराने के मकसद से लेते हैं.’
हालांकि, कांग्रेस के साथ एआईएमआईएम का जुड़ाव कोई नया नहीं है. पार्टी ने 1998 के अविभाजित आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था जब तत्कालीन सत्तारूढ़ तेलुगु देशम पार्टी भाजपा के साथ थी.
ओवैसी ने बाद में ऐतिहासिक स्मारक चारमीनार से सटे एक मंदिर के विस्तार परियोजना को लेकर अपने विधायकों की गिरफ्तारी के बाद 2012 में केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार और राज्य की कांग्रेस सरकार से नाता तोड़ लिया था.
साल 2012 में यूपीए से अलग होने के बाद से एआईएमआईएम ने राज्य और केंद्र दोनों में किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं किया है.
यह लगभग उसी समय के आसपास था जब आंध्र प्रदेश में तेलंगाना के रूप में एक अलग राज्य के लिए आंदोलन जारी था. इसे साल 2014 में केसीआर की तेलंगाना राष्ट्र समिति के राज्य में प्रमुख पार्टी के रूप में उभरने के साथ ही एक अलग राज्य बनाया गया था.
2014 से ही एआईएमआईएम और टीआरएस का एक दूसरे के साथ ‘दोस्ताना रिश्ता’ रहा है; हालांकि दोनों पार्टियां किसी औपचारिक गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं लेकिन जहां भी आवश्यक हो वे एक-दूसरे का समर्थन करते हैं.
राष्ट्रीय स्तर पर, 2014 के मोदी की जीत का वर्ष बनने के साथ ही एआईएमआईएम ने कट्टर वैचारिक मतभेदों को लेकर खुद को भाजपा से दूर कर लिया. इसके बाद से पार्टी तेलंगाना के परे भी निकल कर सामने आई है और अल्पसंख्यक समुदाय की आवाज बनने की कोशिश कर रही है, तथा इसी मकसद से यह अन्य राज्यों में चुनाव भी लड़ रही है.
किसी भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी के साथ कोई गठबंधन नहीं होने की वजह से एआईएमआईएम खुद को मुसलमानों के हक के एकलौते हिफ़ाजती के रूप में पेश कर रही है और लगातार कांग्रेस सहित उन अन्य पार्टियों पर हमला कर रही है, जो अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों की रक्षा करने का वादा करती हैं.
हालांकि, अब ‘भाजपा का मोहरा’ होने की अपनी छवि से निकालने के निश्चय के साथ इस पार्टी ने विपक्षी दलों की ओर हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया है.
मिसाल के तौर पर इस साल मार्च में, पार्टी ने महाराष्ट्र में भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस और एनसीपी के साथ एक गठबंधन का प्रस्ताव रखा था, लेकिन एमवीए के गठबंधन सहयोगियों ने एआईएमआईएम को भाजपा की बी-टीम कहकर इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था.
इसलिए, 15 जून को ममता बनर्जी द्वारा बुलाई गई विपक्षी पार्टियों की बैठक के दौरान ओवैसी की हाई- टेबल पर वापसी अपने-आप में महत्वपूर्ण थी, खासकर महाराष्ट्र राज्यसभा चुनावों में महा विकास अघाड़ी को समर्थन देने के एआईएमआईएम के प्रस्ताव के बाद.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में राजनीतिक अध्ययन केंद्र के राजनीतिक विश्लेषक और सहायक प्रोफेसर अजय गुडावर्ती कहते हैं कि साथ आने के ये प्रस्ताव ‘भूल सुधार’ का हिस्सा हो सकते हैं.
उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में हुआ हाल का चुनाव – जहां वह अपनी लड़ी गई 97 में से एक भी सीट नहीं जीत सकी – यह दिखाता है कि मुसलमान इस बात से सहमत नहीं थे कि ओवैसी भाजपा को हराना चाहते हैं.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समुदाय समाजवादी पार्टी या कांग्रेस को काफ़ी पसंद करता है, लेकिन अगर वे भाजपा का विकल्प चाहते हैं, तो ये पार्टियां ही विकल्प हैं. और ऐसा लगता है कि ओवैसी को भी इस बात का एहसास हो गया है.’
उन्होंने कहा कि ओवैसी का यह कहना कि भाजपा और कांग्रेस के विचार एक जैसे हैं, मुसलमानों को बहुत ढिठाई वाली बात लगती है, खासकर तब जब उन्हें किसी खास पार्टी से सीधे तौर पर खतरा है.
उन्होंने कहा, ‘इस समुदाय ने [बड़ी संख्या में] सपा के लिए वोट देकर ओवैसी को उनका जवाब दे दिया है, क्योंकि वे आश्वस्त नहीं थे कि वह वास्तव में भाजपा को हराने के प्रति गंभीर हैं.’
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