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Monday, 4 November, 2024
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कर्नाटक चुनाव के 10 सबक: मोदी मैजिक की है सीमा, कमजोर CM नुकसानदायक, ध्रुवीकरण से जुड़े हैं जोखिम भी

मोदी-शाह की BJP लोकसभा चुनाव की सफलता राज्यों में नहीं दोहरा सकती, कांग्रेस और भाजपा को चाहिए मजबूत प्रादेशिक नेता, जेडी (एस) पतन की राह पर है.

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कर्नाटक चुनाव के नतीजे के जो आंकड़े उभरकर सामने आते हैं वे ये नहीं हैं कि कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिल गया है और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने दक्षिण में अपना एकमात्र गढ़ गंवा दिया है बल्कि यह है कि बीजेपी की सीटें घटकर कांग्रेस की सीटों से आधी से भी कम हो गई हैं. इस आंकड़े को जरा एक बार दोहराकर देखिए. सर्वशक्तिमान भाजपा, केंद्र और राज्य में डबल इंजन चलाने वाली भाजपा की ताकत यहां कांग्रेस की आधी से भी कम हो गई है.

इसके कई सबक और कई उपलब्धियां हैं.आइए हम उनमें से 10 सबसे अहम की सूची बनाएं :

◆अगर आप सचमुच में एक खराब राज्य सरकार चलाते हैं तो आपको कोई नहीं बचा सकता. वोटर्स तब आपके राष्ट्रीय नेताओं के करिश्मे, राष्ट्रवाद, ध्रुवीकरण, धर्म और निश्चित ही पक्षपाती समाचार मीडिया, सबको परे कर देंगे, चाहे वह आपकी कितनी भी लल्लोचप्पो क्यों न करें.

◆प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इतना जो सघन और व्यक्ति केंद्रित चुनाव अभियान चलाया वह कारगर क्यों नहीं हुआ? क्या यह उनकी घटती लोकप्रियता को दर्शाता है? जरा अपनी कल्पनाओं को लगाम दीजिए. कर्नाटक हमें फिर याद दिला रहा है कि मोदी जब खुद उम्मीदवार होते हैं तब और जब वे दूसरों के लिए वोट मांगते हैं तब में मतदाता फर्क करते हैं. वे अगले लोकसभा चुनाव को अब भी दिशा दे सकते हैं. इसीलिए तो वे गुजरात को जीत लेते हैं. वहां वे अपने लिए वोट मांगते हैं. ऐसा दूसरे राज्यों के मामले में नहीं होता.

◆इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मतदाता आपकी स्थानीय सरकारों के कामकाज का मूल्यांकन करते हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कर्नाटक के 224 विधानसभा क्षेत्रों में से 170 में भारी बढ़त ली थी. चुनाव से पहले किए गए गठबंधन के बावजूद कांग्रेस और जद (एस) मिलकर केवल 47 सीटें (कांग्रेस 36 और जेडी-एस 11) जीत पाए थे. आज जो उलटफेर हुआ है, जिसमें इन दोनों ने बिना गठबंधन किए मिलकर करीब 170 सीटें जुटा ली है, वह यही दर्शाता है कि भारतीय मतदाता इतने चतुर हो चुके हैं कि वे तार्किक अपेक्षाओं की खातिर भावनाओं को परे रख सकते हैं.

◆मोदी-शाह की भाजपा ने सत्ता के अपने 10वें साल में यह दर्शा दिया है कि वह लोकसभा चुनाव में अपनी सफलता को विधानसभा चुनावों में दोहरा नहीं सकती. राज्यों में उसे लगातार हार का सामना करना पड़ा है या गठबंधनों के साथियों को अपनी पसंद से ज्यादा तरजीह देनी पड़ी है. महाराष्ट्र, हरियाणा, या तब तक के बिहार को देख लीजिए, जब तक नीतीश का डिब्बा उसके इंजन से जुड़ा रहा.

हमें उन राज्यों का गहरा विश्लेषण करना पड़ेगा जहां उसने अपने बूते निर्णायक जीत हासिल की, मसलन उत्तर प्रदेश और असम. दोनों राज्यों में एक-एक स्थानीय नेता उभरे और दोनों अपने बूते चुनाव जीतने में काफी सक्षम रहे. दोनों अपने-अपने राज्य में प्रमुख अभियान नेता हैं. यह भाजपा आलाकमान की पटकथा के अनुरुप नहीं है. गुजरात के बारे में हम पहले बता चुके हैं. उत्तराखंड समेत पूर्वोत्तर के कुछ राज्य अपवाद हैं लेकिन वे बड़ी तस्वीर के लिहाज़ से काफी छोटे हैं.


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◆नई दिल्ली द्वारा हल्के मुख्यमंत्रियों को थोपने के मोदी-शाह वाले भाजपाई मॉडल की पहले ही काफी आलोचना हो चुकी है. कर्नाटक इस बात को पूरी कड़वाहट से याद दिलाता है कि यह मॉडल किस तरह कारगर नहीं रहा. हरियाणा के मनोहर लाल खट्टर एक अपवाद हैं, जो अपना दूसरा कार्यकाल काट रहे हैं. हालांकि, वे अपनी आधी सरकार दुष्यंत चौटाला को सौंप चुके हैं. खट्टर को छोड़ दें तो आलाकमान की दो पसंद आपदा ही लेकर आए. एक हैं देवेंद्र फडणवीस, जो नीचे खिसककर उप-मुख्यमंत्री का पद संभाल रहे हैं और बासवराज बोम्मई सबसे बुरे साबित हो चुके हैं. ‘हाइकमानवादी’ पार्टियां आमतौर पर शक्तिशाली नेताओं को नापसंद करती हैं. जैसा कि भाजपा ने येदियुरप्पा के साथ किया. इसने उसे 2013 और 2023 के चुनावों में बर्बाद कर दिया.

◆राज्यों का शासन दिल्ली से चलाने का मॉडल पूरी तरह त्तोत चुका है. क्या भाजपा का दिल इतना बड़ा होगा कि वह राज्यों में योगियों और हिमंतों को प्रोत्साहित करेगी? अगर ऐसा होगा तो वह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अभी से नेता चुन लेगी और पार्टी शिवराज सिंह चौहान को भी कमजोर करने की जगह अभी से उनका कद बढ़ाने की कवायद शुरू कर देगी. इसके लिए उसे अपनी शैली, तेवर और रणनीति में बुनियादी बदलाव लाना होगा. क्या भाजपा में एक नेता वाली पार्टी होने के खतरों को मंजूर करने का माद्दा है?

◆आप यह नहीं कह सकते कि ध्रुवीकरण काम नहीं करता या भाजपा ने अगर सुपर सक्षम शासन दिया होता तब भी अपना वोट प्रतिशत नहीं कायम रखती, लेकिन इसका उलटा तर्क भी काम करता है. विभाजनकारी अपील आपके वफादारों में उत्साह भरती है और बीच में अटके लोगों को भी तोड़ सकती है, अप्रतिबद्ध वोटरों का छोटा हिस्सा अंततः काम आ जाता है. इस मामले में जद-एस से निराश कई वोटरों ने कांग्रेस को पसंद किया. अब तक के आंकड़े यही बताते हैं भाजपा का वोट प्रतिशत लगभग साबुत है, कांग्रेस का 5 फीसदी बढ़ा और जेडी (एस) का 5 फीसदी से ज्यादा घटा. लगता है कि वोटों की सीधी अदलाबदली हुई. हम यह कहने का जोखिम उठा सकते हैं कि इन वोटरों ने जब दूसरे विकल्प की ओर देखा तो वे विभाजनकारी विकल्प नहीं चाहते थे. ध्रुवीकरण एक दोधारी तंलवार है. यह इतने हिन्दू वोटरों को पलट भी सकता है और आपको कांटे के चुनाव में बर्बाद भी कर सकता है.

◆उम्मीद है कि यह चुनाव गौड़ा वंश की थाती जेडी (एस) को खत्म कर सकता है जो स्वार्थी, विचारधारा मुक्त, सत्ता की भूखी है. 1996 में इसके मुखिया एच.डी. देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने थे, तब से 25 वर्षों से यह पार्टी अक्सर अनपेक्षित सत्ता पर कब्जा करने के लिए सिद्धांत विहीन तीसरे नंबर पर होने का फायदा उठती रही है. वह चाल अब खत्म हो चुकी है. गौड़ा कुनबा तेज पतन की राह पर है. भारत के लिए यह अच्छी बात है और कर्नाटक के लिए यह और भी अच्छी बात है.

◆कांग्रेस के लिए भी वही सबक है, जो भाजपा के लिए है. यह कि अगर आपके पास सिद्दारमैया और डी.के. शिवकुमार सरीखे मजबूत प्रादेशिक नेता हैं तो आप मुश्किलों के बावजूद जीत सकते हैं. गांधी परिवार में राज्यों को जीतने की क्षमता मोदी की इस क्षमता से काफी कम है, लेकिन इस तथ्य को शायद ही कबूल किया जाएगा. तब तो और भी नहीं जब आप कांग्रेस के प्रवक्ताओं को दिन भर यही कहते सुनेंगे कि इस जीत का श्रेय राहुल गांधी को जाता है.

◆और अंत में, सबूत यही दर्शाते हैं कि 21वीं सदी के भारत में टीपू सुल्तान का कोई काम नहीं है. वे अच्छी या बुरे रहे होंगे, मगर यह 200 साल से भी पहले की बात है. उनकी तारीफ करने या उन्हें गाली देने से आज हमारे बच्चे की शिक्षा का खर्च नहीं निकलने वाला, न हमें नौकरी मिलने वाली है या मेरे घर के नल में पानी आने वाला है. उन्हें इतिहासकारों के जिम्मे या आपके योद्धा टीवी चैनलों पर या नये लुटिएन्स क्षेत्र के अपने बैठकखाने में नकली आक्रोश के प्रदर्शन के लिए छोड़ दीजिए.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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