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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतअंबानी की जगह अगर रघुराम राजन की यूनिवर्सिटी चुनी जाती, क्या इतना हो-हल्ला करते हमारे लिबरल्स ?

अंबानी की जगह अगर रघुराम राजन की यूनिवर्सिटी चुनी जाती, क्या इतना हो-हल्ला करते हमारे लिबरल्स ?

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आश्चर्य नहीं होगा यदि जियो इंस्टीट्यूट की आलोचना करने वाले लोग ही इसके नए चांसलर पद के लिए सीवी तैयार कर रहे हों।

रेंद्र मोदी विवाद पैदा किए बिना कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इस झोल में मुकेश अंबानी को जोड़िए, फिर क्या, आलोचकों के लिए डबल बोनान्ज़ा है। अंबानी के उच्च शिक्षा के प्रस्तावित उपक्रम जियो इंस्टीट्यूट को प्रतिष्ठित संस्थान का दर्जा दिये जाने के कारण राजनीतिक और बौद्धिक हलकों मे अनुमानित हो-हल्ला पैदा हो चुका है।

मैं रिलायंस या सरकार का समर्थक नहीं हूँ लेकिन यहाँ कोई वित्तीय घोटाला नहीं है। उस 1000 करोड़ के अनुदान के बारे में शुरुआती अफवाहें अब खत्म हो चुकी हैं। यह बिन मांगी तरफदारी है जो इस खेल के  पहले से ही उबड़-खाबड़ मैदान पर खेल को बर्बाद कर सकती है। और तो और इसके प्रतिद्वंदियों के लिए यह मुश्किल कोई एवेरेस्ट से ऊँची भी नहीं है । नीतिगत विसंगतियों के बावजूद अलग-अलग राज्यों मे फल-फूल रहे निजी शैक्षिक उद्यमों के अच्छे और बुरे बहुत सारे उदाहरण हैं।

सबसे पहले, चयन की आलोचना करने वाले लोग पैनल पर मौजूद नहीं थे। दूसरा,शायद उनको पता भी नहीं होगा कि इसका मापदंड क्या था और किस-किस ने इसके लिए आवेदन दिया था। इससे उन लोगों के मकसद के बारे में सवाल उठते हैं जो सबसे ज्यादा शोर-शराबा पैदा करते हैं और एक सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि क्या अंतर्निहित पूर्वाग्रह उनके उपद्रव को बढ़ावा दे रहे हैं।

सही दिशा में एक कदम

सबसे पहले हम पूछें कि क्या समस्या “ग्रीनफील्ड” मान्यता की अवधारणा के साथ है या रिलायंस के साथ है? क्या आपत्तियाँ इतनी ही द्वेषपूर्ण होतीं यदि कुछ अन्य इंस्टीट्यूट भी योग्य होते, जिनका उल्लेख किया जा रहा है जैसे कि – चेन्नई के पास रघुराम राजन समर्थित केआरईए विश्वविद्यालय? सोशल मीडिया और समाचार पत्रों के कॉलमों को पढ़ते हुए चर्चाओं से गुजरने के बाद जवाब है ‘न’।

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अब यह पूछा जा रहा है कि वह यूनिवर्सिटी जो अभी बनी भी नहीं, उसकी मान्यता प्रदान करना कितने हद तक सही है। सुनने में शायद अजीब लगे, पर यदि कोई मुर्गी या अंडे की पहेली को सुलझा सकता है तो ‘ग्रीन्फील्ड’ के रस्ते से एक यूनिवर्सिटी को बनने से पहले मान्यता देने की नीति भी प्रशंसनीय हो सकती है।

आज भारत में शिक्षा एक बड़ा कारोबार है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, शिक्षा क्षेत्र में बड़े निजी निवेश के कई उदाहरण हैं। दुर्भाग्यवश, उनमें से कई बस डिग्री बांटने के कारखाने हैं या यूं कहें कि बड़े पैमाने पर गोरखधंधे हैं। अतः व्यावहारिक समझ यह जताती है कि ठीक अवधारण के समय से कठोर गुणवत्ता नियंत्रण की किसी भी प्रणाली का निस्संदेह स्वागत किया जाना चाहिए।

सरकार से आईआईटी, आईआईएम और विज्ञान संस्थानों को बढ़ाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। राज्य विश्वविद्यालय प्रणाली बहुत खंडित है और राजनीति के दलदल मे फंसी हुई है जिसे अकेले बड़े वित्त पोषण के माध्यम से भी पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है। इसलिए, इस तरह की एक योजना का वास्तविक लाभ इंडस्ट्री के बड़े लोगों को प्रलोभन देने में निहित होगा कि वे “शिक्षा-उद्यमियों” के क्लब में शामिल हो जाएँ जिससे तेजी से बढ़ने, प्रतिभा को आकर्षित करने और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को सुविधाजनक बनाने के लिए एक सक्षम वातावरण बनाया जा सकेगा।दुनिया भर में निजी वित्तपोषण द्वारा उच्च शिक्षा के कई प्रतिष्ठित संस्थान बनाए गए हैं।

भाजपा का अकादमिक कौशल

इतिहास गवाह रहा है कि हमारे देश के व्यापारी नवाब, परोपकार के समय कोई दानवीर कर्ण जैसे तो उभर कर आये नहीं हैं । यह केवल अब है कि कुछ नयी पीढ़ी के उद्योगपतियों और कॉर्पोरेट अरबपतियों ने सामाजिक उद्यम पर नजर डालनी शुरू कर दी है। उनमें से कई, जो विदेशों मे पढ़े हैं और आईवी-लीग स्कूलों के संपर्क में हैं, भारत में वैश्विक मानकों के शीर्ष विश्वविद्यालयों की संभावना को पहचानते हैं। लेकिन वे भी लाल फीताशाही और नौकरशाही बाधाओं की भूलभुलैया से सावधान होंगे। इसलिए नीति में पूर्वकथनीयता और पारदर्शिता ऐसी एक पहल की अनिवार्य पूर्व शर्ते हैं।

निष्पक्ष रूप से देखा जाए तो ऐसी नीति अपनाने से उच्च शिक्षा में “बेदाग धन” प्राप्त किया जा सकता है। यह अकादमिक आजादी और संस्थागत स्वायत्तता दोनों को सुनिश्चित करने के लिए सुरक्षा उपायों का निर्माण करेगा। “बाद में-प्रमाणीकरण” की कोई भी प्रणाली असली निवेशकों के लिए नये माहौल में बड़ी रकम दाव पर लगाने के लिए जोखिम भरी साबित हो सकती है।

किसी अन्य सरकार ने यदि इसे पेश किया, तो हो सकता है इन्हीं आलोचकों ने इसकी सबसे नवीन योजना के रूप में सराहना की होती। हो सकता है उन्होंने इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उच्च शिक्षा के लिए एक गंतव्य के रूप में दृढ़ता से रखते हुए भारत के शिक्षा परिदृश्य को बदलने की क्षमता के रूप में देखा होता। लेकिन हमारे बुद्धिजीवी भाजपा के अकादमिक कौशल के प्रति इतने दयालु नहीं हैं।

लाइसेंस-परमिट-कोटा राज के युग में बड़े होने के बाद, भारतीय व्यापारिक समूहों पंक्ति तोड़ने के लिए आनुवांशिक रूप से कूट बद्ध हैं। रिलायंस जैसे संगठनों ने इसे एक कला के रूप में परिपूर्ण किया है। यदि रिलायंस ने एक व्यावसायिक उपक्रम को स्थापित करने के लिए गलत मार्ग चुना होता तो लोगों ने चुटकी में इसे ख़ारिज कर दिया होता। लेकिन, उदार कला और विज्ञान शिक्षा में रिलायंस का एकाएक आ धमकना मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने जैसा है।

अनपेक्षित उपस्थिति

कुछ समय से, वामपंथी लिबरल बुद्धिजीवी समुदाय ने निजी तौर पर वित्त पोषित स्वतंत्र शैक्षणिक दुकानों के उद्भव को राज्य विश्वविद्यालयों के सेवानिवृत्त शिक्षाविदों के लिए पेशेवर बुद्धिजीवियों और हराम की नौकरी के गढ़ के रूप में देखना शुरू कर दिया था (जैसे कि एम्स के डॉक्टर निजी अस्पतालों में सेवानिवृत्त नियुक्तियों की तलाश में रहते हैं)। इन प्रमुख निजी विश्वविद्यालयों ने न केवल अपने पाठ्यक्रम में बल्कि विभाग के पारितोषिक में, अंतर्राष्ट्रीय व्याख्यान क्षत्र पर उनकी निर्भरता को कम कर दिया था।

लेकिन महारथियों के इस व्यूह में मोदी के संरक्षण के साथ रिलायंस का बेधड़क प्रवेश इनकी नींव पर एक कड़ा प्रहार है।

अचानक अहसास हो रहा है कि एक वैकल्पिक पारिस्थितिक तंत्र बनाने की तलाश में नए राजनीतिक विवाद की सीमा से बाहर कुछ भी नहीं है। विश्वविद्यालय,जिसे अभी तक स्थापित नहीं किया गया है, के संभावित कुलपतिके चयन पर अटकलों में असुरक्षा का स्तर स्पष्ट है। इस संभावित कुलपति को पहले से ही “हम में से कोई नहीं (या अब नहीं)” के रूप में देखा जा रहा है।

लेकिन इस विचार में कोई रुकावट नहीं है, जिसके लिए समय आ गया है। इसलिए, अगर जियो इंस्टीट्यूट की आलोचना करते हुए व्यक्तिगत राय लिखने वाले कुछ लोग नए कुलपति को अग्रेषित करने के लिए चुपचाप अपना स्वयं का बायो डाटा बना रहे हों,तो इससे कोई भी आश्चर्यचकित नहीं होगा ।

संदीप घोष सामयिकी के एक विपणन अधिकारी और ब्लॉगर है। वह @SandipGhose पर ट्वीट करते हैं

Read in English: Would liberals have raged if Raghuram Rajan-backed varsity was chosen instead of Ambani’s?

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