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Friday, 29 March, 2024
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लोहिया और आंबेडकर का अधूरा एजेंडा क्या माया-अखिलेश करेंगे पूरा?

लोहिया और आंबेडकर 1956 में साथ मिलकर चलने की संभावना तलाश रहे थे, जो संभव नहीं हो पाया. उसके 37 साल बाद जाकर सपा और बसपा दो साल के लिए साथ आए और फिर आया 25 साल का अंतराल. अब वे फिर साथ आए हैं.

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12 जनवरी को लखनऊ के ताज होटल में खचाखच भरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब बीएसपी अध्यक्ष मायवती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बोलना शुरू किया, तो मंच पर सिर्फ दो और तस्वीरें थीं. उन तस्वीरों ने कुछ लोगों का ध्यान ज़रूर खींचा होगा. वे तस्वीरें भारत की संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष और देश के पहले कानून मंत्री बी.आर. आंबेडकर और समाजवादी आंदोलन के प्रखर नेता राममनोहर लोहिया की थी. साथ ही मंच पर जय भीम और जय समाजवाद का नारा भी लिखा था. जब दोनों नेताओं ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस पूरी की तो ये स्पष्ट हो चुका था कि लोहिया और आंबेडकर का नाम लेने वाले दोनों दल अगला लोकसभा चुनाव साथ मिल कर लड़ेंगे. ये दोनों दल 1993 में भी ठीक इसी तरह साथ आए थे. लेकिन दो साल बाद वे जो अलग हुए तो अब 23 साल बाद जाकर साथ आए हैं.

पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और अखिलेश यादव प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए | समाजवादी /ट्विटर

बहरहाल सपा और बसपा तो फिर भी कभी साथ आए, अलग हुए और साथ आए, लेकिन कितने आश्चर्य की बात है कि आधुनिक भारतीय इतिहास के बेहद चमकीले दो सितारे राममनोहर लोहिया और बी.आर. आंबेडकर कभी नहीं मिले. कम से कम उन दोनों के सार्वजनिक रूप से मिलने का कहीं कोई दस्तावेज़ या अन्य प्रमाण नहीं है. वे दोनों बार-बार मिल सकते थे. दोनों की राजनीतिक यात्रा साथ-साथ चली. लेकिन ऐसा लगता है कि दोनों के वैचारिक साम्य की तलाश देर से शुरू हुई. 1956 में दोनों नेताओं के बीच पत्राचार शुरू हुआ, मिलने की योजना भी बनी. लेकिन वह मुलाकात कभी हो नहीं पाई. 6 दिसंबर, 1956 को बाबा साहेब का परिनिर्वाण हो गया और दोनों नेताओं की साथ मिलकर काम करने की योजना पर कभी अमल नहीं हो पाया. कहना मुश्किल है कि उस समय अगर लोहिया और आंबेडकर साथ आए होते तो देश की राजनीति पर इसका क्या असर हुआ होता.

लोहिया और आंबेडकर की राजनीतिक यात्रा में काफी समानताएं हैं.


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दोनों ही नेता की पढ़ाई पश्चिम में हुई. दोनों ने व्यवस्थित तरीके से एकेडेमिक काम किया था. लोहिया की पढ़ाई जर्मनी में तो बाबा साहेब की पढ़ाई इंग्लैंड और अमेरिका में हुई. दोनों की एकेडेमिक ट्रेनिंग लिबरल डेमोक्रेटिक विचार परंपरा से हुई और दोनों ही समानता और बंधुत्व के सिद्धांतकारों से प्रभावित थे.

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दोनों के विचारों के केंद्र में पश्चिमी आधुनिकता थी. भारतीय सनातन परंपरा के दोनों ही आलोचक थे. भारत को वे किसी पुराने स्वर्ण युग में ले जाने की कल्पना नहीं करते थे. उनका मॉडल आधुनिक लोकतांत्रिक ही था.

राजनीतिक रूप से दोनों को ही बेहद सीमित सफलताएं मिलीं. राममनोहर लोहिया सिर्फ एक बार लोकसभा का चुनाव जीत पाए. बाबा साहेब ने कभी कोई लोकसभा चुनाव नहीं जीता. दोनों जिन राजनीतिक पार्टियों से जुड़े रहे या जो पार्टी उन्होंने बनाई, वह कभी सत्ता में नहीं आ पाई.

लोहिया और आंबेडकर दोनों अपनी राजनीतिक ताकत की तुलना में ज़्यादा वैचारिक असर छोड़ने में कामयाब रहे. दोनों का असर उनके मरने के बाद लगातार गाढ़ा हो रहा है. दोनों ने खूब लिखा और खूब बोला. दोनों के रचना संग्रह हज़ारों-हज़ार पन्नों में हैं और ये उनका पूरा काम नहीं है.

ये दोनों नेता संपूर्ण राष्ट्र के लिए चिंतन करते हुए जाति मुक्ति को एक अनिवार्य कार्यभार की तरह लेते हैं और मानते हैं कि जाति के अंत के बिना भारत सही मायने में राष्ट्र नहीं बन सकता. दोनों इस बात पर सहमत हैं कि जातियों के रहते हुए समानता की बात करना निर्थक है. लोहिया अपनी किताब भारत में जातिवाद और आंबेडकर अपनी किताब एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में यह व्याख्या देते हैं कि जन्म के आधार पर पेशों के निर्धारण ने भारतीय अर्थव्यवस्था को गतिहीन बना दिया है. दोनों की राय में जाति अनैतिक है और इसका अंत हो जाना चाहिए.

हालांकि आंबेडकर के चिंतन में वर्ग और जाति दोनों हैं लेकिन वर्ग की तुलना में जाति ज़्यादा महत्वपूर्ण तरीके से आती है, लेकिन बाबा साहेब भी संविधान सभा के अपने आखिरी भाषण में सामाजिक से साथ साथ आर्थिक असमानता को लोकतंत्र के लिए सबसे बड़े खतरे के तौर पर चिन्हित करते हैं. यहां पर बाबा साहेब और लोहिया साथ खड़े दिखते हैं. स्त्री मुक्ति के सवाल पर भी लोहिया और आंबेडकर काफी करीब हैं.

भारत को आधुनिक राष्ट्र के तौर पर देखने के इच्छुक रहे. समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के विचारों से दोनों प्रभावित रहे. आंबेडकर जाति व्यवस्था में सबसे नीचे की पायदान से आने के कारण जाति को लेकर बेहद कटु हैं, और धर्मशास्त्रों को इसके लिए जवाबदेह मानकर उन्हें जला डालने की बात करते हैं.

वहीं लोहिया उत्तर भारतीय व्यवसायी जाति से आते हैं. वे जाति का अंत चाहते हैं लेकिन इसके लिए वे धर्म का विनाश नहीं चाहते. जाति मुक्ति का सवाल आंबेडकर के लिए सबसे महत्वपूर्ण है. भारत की आजादी से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण. वहीं लोहिया जाति मुक्ति को ज़रूरी मानते हुए भी स्वतंत्रता आंदोलन को ज़्यादा महत्व देते हैं.


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जहां आंबेडकर धर्म और शास्त्रों को जाति का आधार मानते हैं, वहीं लोहिया जाति को धर्म की बुराई मानते हैं. इस बिंदु पर लोहिया अपने गुरु महात्मा गांधी के साथ खड़े हैं. लोहिया निजी जीवन में नास्तिक हैं, लेकिन राजनीतिक और सामाजिक तौर पर वे धर्मसुधारक हैं. बाबा साहेब नहीं मानते कि हिंदू कभी सुधर सकते हैं और जाति से मुक्ति पा सकते हैं, इसलिए वे 1936 में ही हिंदू धर्म छोड़ने की घोषणा करते हैं और 1956 में हिंदू धर्म त्याग कर विधिवत बौद्ध बन जाते हैं.

धर्म और जाति का अंतर्संबंध वह एकमात्र बिंदु है जहां लोहिया और आंबेडकर बिल्कुल अलग जगह खड़े नज़र आते हैं. लेकिन दोनों के बीच समानताएं इतनी अधिक हैं कि दोनों को अलग अलग नहीं देखा जाना चाहिए. ऐसा करने वाले आंबेडकरवादियों और लोहियावादियों ने अपनी एकांगी सोच का ही परिचय दिया है और इसका नुकसान दोनों को हुआ है.

(लोहिया और आंबेडकर की समानताओं और असमानताओं के बारे में और ज़्यादा पढ़ने के इच्छुक लोगों को पंकज कुमार का रिसर्च पेपर ज़रूर पढ़ना चाहिए.)

लोहिया और आंबेडकर के बीच पत्राचार दिसंबर 1955 से शुरू होता है, जब लोहिया ने आंबेडकर को अपनी पत्रिका मेनकाइंड में जाति विषय पर लिखने का निमंत्रण दिया और निवेदन किया कि वे जाति के बारे में लिखते समय क्रोध के साथ दया का भी भाव रखें, ताकि वे न सिर्फ अनुसूचित जाति के बल्कि पूरे देश के नेता बन सकें. इसी पत्र में लोहिया ने आंबेडकर को सोशलिस्ट पार्टी के स्थापना सम्मेलन के लिए भी न्यौता दिया और कहा कि वे भी इसमें अपनी बात रखें.

लोहिया के दो मित्रो विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी ने उनका प्रस्ताव डॉक्टर आंबेडकर तक पहुंचाया. इसके जवाब में डॉ. आंबेडकर ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी और डॉक्टर लोहिया को 2 अक्टूबर को दिल्ली में अपने आवास पर बुलाया. वे साथ मिलकर आगे बढ़ने की बात करते हैं. लेकिन वह मुलाकात कभी हो नहीं सकी.

आश्चर्यजनक है कि जो दो नेता 1956 में इतने करीब पहुंच गए थे, उनकी विचारधारा पर चलने या ऐसा दावा करने वाले दो दल 37 साल बाद 1993 में पहली बार एक दूसरे के करीब आते हैं और दूसरी बार करीब आने में फिर 25 साल गुजार देते हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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