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Thursday, 28 March, 2024
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सपा-बसपा-राजद की दोस्ती से बदला उत्तर भारत का राजनीतिक भूगोल

उत्तर प्रदेश और बिहार में लोकसभा की 120 सीटें हैं. नरेंद्र मोदी की सरकार मुख्य रूप से इसी गंगा-यमुना के मैदान में बनी थी. अब यहां का राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल चुका है.

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राजनीति कई बार रातों रात बदल जाती है. उत्तर भारत में जो भाजपा कुछ महीने पहले तक अजेय नजर आ रही थी और उमर अब्दुल्ला जैसे नेता ये ट्विट कर रहे थे कि विपक्ष को 2019 की नहीं, 2024 की तैयारी करनी चाहिए. लेकिन वह सब अब बदल चुका है. बीजेपी अपने तीन परंपरागत गढ़ों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पस्त हो चुकी है. और रही सही कसर यूपी-बिहार के गंगा-यमुना क्षेत्र में सपा-बसपा और राजद के एक साथ आने से पूरी हो गई.

12 जनवरी को सपा और बसपा ने यूपी का चुनाव साथ मिलकर लड़ने का एलान किया और दो दिन बाद आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने लखनऊ पहुंचकर बसपा अध्यक्ष बहन मायावती का पैर छूकर उनसे आशीर्वाद ले लिया. मायावती ने ये भी कहा कि सीबीआई लालू प्रसाद को बिना वजह परेशान कर रही है.

लोकसभा चुनाव के नतीजे क्या होंगे और 2019 का किंग कौन होगा, ये सवाल तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन जिन दो राज्यों में लोकसभा की 120 सीटें हैं और 2014 के लोकसभा चुनाव में जहां एनडीए को 104 सीटें मिली थीं, वहां इन राजनीतिक शक्तियों का साथ आना बेहद महत्वपूर्ण हैं.


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उत्तर प्रदेश का युद्ध का मैदान 2019 के लिए कुछ इस तरह सज रहा है – एक तरफ बीजेपी और शायद अपना दल हो. दूसरे खेमे में सपा-बसपा और शायद आरएलडी. तीसरा खेमा कांग्रेस का होगा, जिसमें और कौन साथ होगा, ये तस्वीर अभी साफ नहीं है. उत्तर प्रदेश में 2014 में सपा और बसपा अलग लड़ी थी और दोनों की दुर्गति हुई थी. सपा तो फिर भी पांच सीट जीत पाई थी. लेकिन बसपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी. लेकिन तब भी उसके वोट खत्म नहीं हुए थे और 33 सीटों पर वह दूसरे नंबर पर थी.

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बिहार में चक्रव्यूह कुछ इस तरह नजर आएगा- एक तरफ बीजेपी, जेडीयू और लोक जनशक्ति पार्टी होगी और दूसरे खेमे में आरजेडी, कांग्रेस, उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी और जीतन राम मांझी की हम पार्टी होगी. इस खेमे में वामपंथी दल और मल्लाहों की पार्टी भी रहेगी. 2014 में बीजेपी, लोकजनशक्ति पार्टी और आरएलएसपी को जबर्दस्त कामयाबी मिली थी और तीनों ने मिलकर 40 में से 31 सीटें जीत ली थीं.

गठबंधन का सामाजिक संदर्भ

खासकर उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के साथ आने से दलितों और पिछड़ों और खासकर यादवों के बीच लगभग 20 साल से चली आ रही कड़वाहट कम होगी. 1993 में इन दोनों दलों ने मिलकर यूपी में बीजेपी को रोक दिया था. जबकि उस समय ऐसा लग रहा था कि बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद बीजेपी को कोई रोक नहीं पाएगा. लेकिन बाद में दोनों दलों के संबंध बिगड़ गए और लखनऊ के वीआईपी गेस्ट हाउस में सपा कार्यकर्ताओं के उपद्रव के बाद दोनों दलों की कड़वाहट, सामाजिक कटुता में तब्दील हो गई थी.

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मायावती और अखिलेश यादव प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए । प्रतीकात्मक तस्वीर

दोनों दलों को इसका नुकसान हुआ. दोनों का अपना वोट उन्हें सत्ता में पहुंचाने के लिए काफी नहीं था. इसलिए दोनों को ही नए सामाजिक समीकरण बनाने पड़े, जिससे उनकी विचारधारा कमजोर हुई. जहां बसपा को ब्राह्मणों के साथ समीकरण बनाना पड़ा और बहुजनवाद को ताक पर रखकर सर्वजनवाद को अपनाना पड़ा. वहीं सपा ने सवर्णों को खुश करने के चक्कर में दलितों और आदिवासियों का प्रमोशन में आरक्षण का बिल लोकसभा में फाड़ दिया. सपा भी अपना लोहिया समाजवाद भूलकर सवर्णों के साथ समीकरण बनाने में जुट गई.

इसका खामियाजा दोनों समुदायों को भी भुगतना पड़ा.

गोरखपुर, फूलपुर और कैराना ने बदला गणित

दरअसल, लोकसभा चुनाव के बाद से ही दोनों दलों को ये समझ में आ गया था कि बीजेपी के राष्ट्रीय राजनीति में उभार के बाद यूपी की भी राजनीतिक स्थिति बदल चुकी है. इससे पहले तक ऐसा लगता था कि यूपी में एक बार सपा आएगी तो दूसरी बार बसपा और दोनों अदला-बदली करके राज्य की सत्ता में बने रहेंगे. नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने इस धारणा को तोड़ दिया. खासकर 2017 में विधानसभा चुनाव में यूपी में बीजेपी की बंपर जीत और सपा और बसपा की भारी दुर्गति के बाद अखिलेश यादव और मायावती के पास हाथ मिलाने के अलावा कोई उपाय नहीं बचा. इसी समझदारी के तहत बसपा ने गोरखपुर और फूलपुर को उपचुनाव में सपा के उम्मीदवार का समर्थन कर दिया. ऐसा होते ही बीजेपी दोनों सीटें हार गईं. ये बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि गोरखपुर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और फूलपुर उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सीट थी. इसके बाद बीजेपी कैराना भी हार गई, जहां आरएलडी की उम्मीदवार के खिलाफ सपा और बसपा ने अपने कैंडिडेट नहीं दिए.

सपा और बसपा को समझ में आ चुका था कि अगर बीजेपी को हराना है, तो उनके पास पुरानी कड़वाहट भूलने के अलावा कोई उपाय नहीं है. राज्य के स्तर पर गठबंधन की घोषणा करके उन्होंने यही किया है. ये भी महत्वपूर्ण है कि दोनों दलों ने सीटों का बराबरी का बंटवारा किया है. इससे कोई दल छोटा और कोई बड़ा होने जैसी बात भी नहीं रही.

आरजेडी और बसपा की करीबी का मतलब

मायावती ने जब राज्यसभा में दलित मुद्दों को उठाने से रोके जाने पर सदन से इस्तीफा दे दिया था, तब आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने उन्हें बिहार से राज्यसभा में भेजने का प्रस्ताव दिया था. मायावती ने हालांकि इस प्रस्ताव के लिए धन्यवाद कहते हुए इसे स्वीकार करने में असमर्थता जताई थी, लेकिन इसके बाद दोनों दल एक दूसरे के करीब आ गए. इसमें ऐसे भी कोई बाधा नहीं थी, क्योंकि दोनों का प्रभाव क्षेत्र भी अलग है.


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अब तेजस्वी यादव ने खुद लखनऊ आकर जिस तरह मायावती से मुलाकात की और उनका चरण स्पर्श किया और उसकी तस्वीर ट्विटर पर लगाई, उससे आरजेडी की सामाजिक न्याय वाली छवि मजबूत होती है और दलित वोटों का ध्रुवीकरण भी उसकी तरफ होगा. साथ ही पिछड़ा और दलितों का साथ आना उत्तर भारत की राजनीति में एक नए अध्याय की शुरूआत का कारण बन सकता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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