स्विटजरलैंड के दावोस में आयोजित होने वाली वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की सालाना बैठक में इस बार भी दुनियाभर में बढ़ रही आर्थिक असमानता पर गंभीर चर्चा हुई. लेकिन इस बार की बैठक की एक खास बात यह रही कि इसमें भारत में आर्थिक असमानता पर विशेष चर्चा हुई.
आर्थिक असमानता का अध्ययन करने वाली संस्था, ऑक्सफैम इंटरनेशनल की कार्यकारी निदेशक विनी बेयानिमा ने इस बैठक में अपने संस्थान की सालाना रिपोर्ट ‘पब्लिक गुड, प्राइवेट वेल्थ’ के आधार पर बताया कि किस तरह भारत में असमानता अपने चरम पर पहुंचती जा रही है. यहां एक तरफ गरीब अपने लिए दो बार की रोटी और बच्चों के लिए आवश्यक दवाओं तक का इंतजाम नहीं कर पा रहे हैं, वहीं कुछ अमीरों की संपत्ति में बेहताशा वृद्धि हो रही है.
विनी बेयानिमा ने अपने भाषण में यह तक कह डाला कि ‘अगर भारत सरकार ने समय रहते देश के एक प्रतिशत अमीरों और नीचे के 50 प्रतिशत गरीबों के बीच बढ़ रही आर्थिक असमानता की खाई को कम करने के लिए कदम नहीं उठाए तो भारत का सामाजिक और राजनीतिक ढांचा चरमरा जाएगा.’
विनी जो चेतावनी भारत के नीति नियंताओं के सामने पेश कर रही हैं, उसे समझने के लिए हमें बढ़ती हुई आर्थिक असमानता के विभिन्न क्षेत्रों में पड़ रहे प्रभाव को समझना होगा.
इस प्रभाव को हम अर्थव्यवस्था, राजनीति, समाज, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण समेत अन्य क्षेत्र में देख सकते हैं.
अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में आर्थिक असमानता बढ़ने का मतलब है कि धन और संपत्ति का कुछेक परिवारों के पास अत्यधिक मात्रा में इकट्ठा होते चले जाना. जैसा कि आजकल हो रहा है, जिसमें सुपर अमीर वर्ग के हाथों में धन और संपत्ति अत्यधिक मात्रा में एकत्रित होती जा रही है. निजीकरण और सूचना और तकनीकी के क्षेत्र में आई क्रांति की वजह से इसमें तेजी आई है. इसका व्यापक खतरा असंगठित क्षेत्र के बढ़ने और मंदी की आशंका के तौर पर उभर कर सामने आ रहा है. ऐसा माना जा रहा है कि 2008 में आई वैश्विक मंदी धन और संपत्ति के कुछ खास लोगों के पास अत्यधिक मात्र में एकत्रित हो जाने की वजह से आई थी.
दरअसल, जब धन और संपत्ति अत्यधिक मात्रा में कुछेक व्यक्तियों के पास एकत्रित हो जाती है, तो उनकी आने वाली पीढ़ियां आमदनी के लिए, उस संपत्ति पर मिलने वाले किराया ब्याज पर निर्भर हो जाती है, जिससे वो कोई नया इन्वेस्टमेंट नहीं करतीं. जब इन्वेस्टमेंट नहीं होगा, तो नयी नौकरियां नहीं पैदा होंगी और बेरोजगारी बढ़ेगी. बेरोजगारी बढ़ने के सैकड़ों दुष्प्रभाव हैं. इस तरह की अर्थव्यवस्था को किराए की अर्थव्यवस्था कहा जा रहा है, जहां लोग अपने मेहनत की बदौलत नहीं, अपने पूर्वजों की संपत्ति की बदौलत अमीर बन रहे हैं. शहरों में जिन लोगों के पास किन्हीं कारणों से ज़मीनें हैं, वो भी इसी तरह अमीर बनते जा रहे हैं.
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बढ़ती आर्थिक असमानता राजनीति के क्षेत्र में अलग-अलग तरीके से काम कर रही है. दरअसल, आधुनिक लोकतंत्र का मतलब उसकी संस्थाओं से है, क्योंकि संस्थाएं ही अलग-अलग तरह के नियम और कानून बनाती हैं. आर्थिक असमानता बढ़ने की वजह से राजनीतिक पार्टियों, न्यायालयों, विश्वविद्यालयों, मीडिया समेत तमाम संस्थाओं पर कुछेक परिवारों का कब्जा होता जा रहा है. इससे लोकतंत्र ‘जनता का, जनता के द्वारा, जनता पर शासन’ न बनकर कुछेक परिवारों का जनता पर शासन बनता जा रहा है.
लोकतन्त्र की संस्थाओं पर कुछ परिवारों का कब्जा हो जाने की वजह से, आपसी हित के अनुसार नियम और कानून बन रहे हैं. ऐसे में जनता का लोकतंत्र की संस्थाओं से लगातार भरोसा उठता जा रहा है और वो हीरो टाइप नेताओं का चुनाव कर रही हैं, जो कोई चमत्कार कर दे. ऐसे नेताओं के चुन कर आने की वजह से संस्थाओं पर खतरा और बढ़ता जा रहा है. लोकतंत्र की संस्थाओं पर आ रहे खतरे की वजह से 21वीं सदी में फांसीवाद के आने की चर्चा हो रही है. लोकतंत्र की विभिन्न संस्थाओं पर कुछ एक परिवारों के कब्जे की वजह से वंचित तबकों को इन संस्थाओं में समुचित भागीदारी नहीं मिल पा रही है, जिससे उनका इन संस्थाओं पर से विश्वास कम हो रहा है.
आर्थिक असमानता बढ़ने का समाज पर भी काफी नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है जो कि दंगे-फसाद, कटुता फ़ैलने के तौर पर देखने को मिल रही है. लोकतंत्र की संस्थाओं पर कुछ परिवारों के कब्जे की वजह से तमाम समुदाय के लोगों को ऐसा लगने लगा है कि उनकी तरक्की इसलिए नहीं हो रही है, क्योंकि उनके साथ रहने वाले किसी समुदाय ने ज्यादा तरक्की कर ली है. इस प्रकार बढ़ती हुई आर्थिक असमानता लोगों के मनोविज्ञान को प्रभावित कर रही है. उनके साथ या आस-पास रहने वाले किसी समुदाय ने अगर थोड़ी बहुत तरक्की कर ली, तो इस बात को चालू किस्म के नेता जलन का विषय बना दे रहे हैं. कई बार तरक्की की बात सच नहीं होती है, लेकिन वास्तविक कटुता फैला दी जाती है.
आर्थिक असमानता बढ़ने की दृष्टि से यदि शिक्षा व्यवस्था को देखा जाये तो इसमें दो तरह का परिवर्तन आ रहा है. पहला, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा खुद बाजार की वस्तु बनती जा रही है, इसलिए इसको हासिल करना दिनों दिन आम आदमी की पहुंच से दूर की बात होती जा रही है. दूसरा, दुनियाभर के सुपर अमीर समुदाय अपने अनुसार शिक्षा व्यवस्था में बदलाव करा रहे हैं. मसलन, पिछले एक-दो दशक में भारत समेत दुनियाभर के अलग-अलग देशों में अमीरों के बच्चों को पढ़ने के लिए आईबी और आईजीएसई जैसे अंतर्राष्ट्रीय बोर्ड से संबंधित स्कूल खुल रहे हैं, जहां के कोर्स की संरचना समेत पढ़ने-पढ़ाने का तरीका भारतीय बोर्ड से बिलकुल अलग है. इन्हीं इलीट स्कूलों से पढ़े स्टूडेंट्स दुनिया के अच्छे से अच्छे विश्वविद्यालयों में एडमिशन पा रहे हैं, और वहीं विभिन्न क्षेत्र में लीडर बनाकर भेजे जा रहे हैं. ध्यान देने वाली बात यह है कि यह नया सुपर अमीर समुदाय आम जनता के बच्चों को अपने बच्चों के साथ पढ़ाने का भी विरोधी है.
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आर्थिक असमानता का बढ़ना मानव स्वास्थ्य को विभिन्न तरीके से प्रभावित कर रहा है. ऐसा साबित हुआ है कि भोजन और स्वास्थ्य सेवाएं मानव की जीवन प्रत्याशा (आदमी औसतन कितने साल जिंदा रहेगा) को काफी हद तक निर्धारित करती हैं. इसके साथ ही मनुष्य की कार्यक्षमता का विकास भी भोजन और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता पर निर्भर करता है. बढ़ती आर्थिक असमानता ने स्वास्थ्य सेवाओं पर काफी गहरी चोट की है, क्योंकि अस्पतालों का तेजी से निजीकरण हो रहा है और दवाओं की कीमत तेजी से बढ़ रही है. जैसे भारत में एक दलित महिला अपने समकक्षी उच्च जाति की महिला से औसतन 14.6 साल कम जीती है.
इसी प्रकार बढ़ती आर्थिक असमानता पर्यावरण को भी काफी हद तक प्रभावित कर रही है. हालांकि, इस विषय पर अभी बहुत कम शोध हुए हैं, फिर भी नए शोध से पता चलता है कि आने वाले समय में आर्थिक असमानता के बढ़ने का प्रभाव असमान बारिश, सूखा, हवाओं की दिशा में परिवर्तन, वायु और प्रदूषण में वृद्धि के तौर पर उभरकर आएगा.
दरअसल, आर्थिक असमानता बढ़ने से कुछ शहरों और क्षेत्रों में धन और संपत्ति के केन्द्रीकरण का खतरा है. ऐसी जगहों पर ही ज़्यादातर इन्वेस्टमेंट होने की संभावना है. इस तरह से असमानता असंतुलित विकास को जन्म दे रही है, जिसका प्रभाव हमें ग्लोबल वार्मिंग, ओज़ोन परत में छेद के तौर पर देखने को मिल रहा है.
(लेखक लंदन यूनिवर्सिटी के रॉयल होलोवे से बढ़ती असमानता पर पीएचडी कर रहे हैं.)