कॉमरेड एके राय का निधन हो गया है. धनबाद के केंद्रीय अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था. वे खुद से सांस नहीं ले पा रहे थे. पिछले कुछ वर्षों से वे बोलने की स्थिति में नहीं थे, लेकिन वे साथ बैठते थे. मौन भाव से सब कुछ सुनते रहते थे. हां, उनके चेहरे पर एक सात्विक मुस्कान हर वक्त तैरती रहती थी. वह मुस्कान अब उनके होठों पर नहीं रह गई थी. उनके चाहने वाले दुआ कर रहे थे कि वे जल्द स्वस्थ हों. इसलिए नहीं कि वे फिर से राजनीति में लौटें. ये तो किसी भी हालत में संभव नहीं था. सिर्फ इसलिए कि उनकी उपस्थिति की वजह से समाज में एक शुचिता और संघर्ष का भाव होता है. लगता है कि नेता ऐसे भी हो सकते हैं.
कॉमरेड राय पिछले कुछ वर्षों से राजनीति के हाशिये पर चले गये थे. कुछ तो अपनी उम्र और स्वास्थ्य की वजह से और कुछ झारखंड की बदलती राजनीति की वजह से. वे धनबाद लोकसभा सीट से तीन बार सांसद रहे हैं और झारखंड के एक प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में आज स्थापित झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन में शिबू सोरेन और स्व. विनोद बिहारी महतो के साथ उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी. फरवरी 1973 में धनबाद के जिस गोल्फ मैदान में झामुमो के गठन की ऐतिहासिक घोषणा हुई थी, उसकी बुनियाद ‘लाल-हरे की मैत्री’ थी. इसमें लाल रंग कॉमरेड राय लेकर आए थे. हालांकि वे पेश से इंजीनियर रहे, लेकिन बाद में पूर्णकालिक राजनीतिक कार्यकर्ता बन गए.
इमरजेंसी में एके राय, शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो, तीनों जेल में बंद हुए. शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो तो जल्दी ही जेल से निकल आये थे, लेकिन कामरेड राय पूरी इमरजेंसी जेल में रहे और जेल में रह कर ही इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के संसदीय चुनाव में धनबाद से जीत कर पहली बार सांसद बने थे.
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कॉमरेड राय 60 के दशक से झारखंड की राजनीति में सक्रिय रहे. आज के पतनशील राजनीति के दौर में उन गिने-चुने राजनेताओं में थे, जिनकी सफेद चादर जैसे निर्मल व्यक्तित्व पर एक भी बदनुमा दाग नहीं. जिनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और सामाजिक सरोकारों की निष्ठा पर कोई संदेह नहीं कर सकता. चरम विरोधी भी नहीं. लेकिन ईमानदारी उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा भर थी.
वैसे भी, यह व्यक्तिगत ईमानदारी किसी काम की नहीं होती यदि उनमें वैचारिक उष्मा और आदिवासी, दलित जनता के प्रति गहरी प्रतिद्धता सन्निहित नहीं होती. वैचारिक उष्मा का मतलब यह कि कॉमरेड राय झारखंड के पुनर्निर्माण की एक मुकम्मल दृष्टि रखने वाले बिरले नेताओं में थे, जो न्याय के पक्षधर हैं और उसके लिए जिन्होंने संघर्ष किया है.
आदिवासी जनता के प्रति उनकी प्रतिद्धता का सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि मार्क्सवादी होते हुए भी उन्होंने उस दौर में झारखंड के अलग राज्य की मांग का समर्थन किया जब लगभग सभी वामदल इस मांग का विरोध करते थे. राय न सिर्फ इस मांग का समर्थन करते थे, बल्कि झारखंड को समाजवादी आंदोलन के लिए उर्वर भूमि मानते थे. उनका कहना था कि आदिवासी से अधिक सर्वहारा आज की तारीख में है कौन?
मेरा उनसे 1986 से संपर्क रहा है. बोकारो स्टील सिटी में उनके श्रमिक संगठन बोकारो प्रोग्रेसिव फ्रंट का दफ्तर था. वे अक्सर बगल में डायरी दबाये गुजरते दिख जाते थे. टखनों तक पहुंचते पायजामे और सफेद मगर थोड़े मलिन गोल गले के कुर्ते में. मेरे पहले उपन्यास ‘समर शेष है’ में कोयलांचल की राजनीति और माफिया के खिलाफ झारखंडी जनता के संघर्ष का खाका उनसे हुई बातचीत के आधार पर ही तैयार हुआ था.
बाजारवाद का तीखा विरोध
उनकी स्पष्ट मान्यता रही है कि बीजेपी से झारखंडी परंपरा और सोच का बुनियादी विरोध है. बीजेपी की सोच बाजारवादी है, जो पूंजीवादी सोच की एक विशेष विकृति है. दूसरी तरफ झारखंडी सोच, संस्कृति और परंपरा यदि पूर्णरूपेण समाजवादी नहीं भी तो निश्चित रूप से समाजमुखी है. आदिवासी बहुत जरूरी होने पर ही बाजार का रुख करते हैं. झारखंडी जनता श्रम पर विश्वास करती है और उत्पादन करके अपने बलबूते जीवित रहना चाहती है.
आंतरिक उपनिवेशवाद की अवधारणा के जनक
अक्सर वे कहा करते थे कि झारखंड की असली ऊर्जा है झारखंडी भावना. इसीलिए तमाम झारखंडी नेताओं को खरीद कर भी झारखंड आंदोलन समाप्त नहीं किया जा सका और अंत में अलग झारखंड राज्य का गठन करना पड़ा. अलग राज्य के रूप में झारखंड के गठन के पूर्व भी इस क्षेत्र का विकास हुआ था. बहुत सारे उद्योग धंधे लगे थे. सार्वजनिक क्षेत्र में लगी कुल पूंजी का बड़ा भाग इसी राज्य में लगा. सिंदरी एफसीआई, बोकारो स्टील प्लांट, एचईसी, बीसीसीएल, सीसीएल, डीवीसी आदि पीएसयू इसके उदाहरण हैं. लेकिन तमाम विकास बाहर से आये. विकसित लोगों का चारागाह बनता रहा. झारखंडियों का विकास नहीं हुआ, बल्कि उन्हें विस्थापन, उपेक्षा और शोषण का शिकार होना पड़ा.
कॉमरेड राय के मुताबिक, झारखंडी जनता इस थोपे हुए विकास से नफरत करती है. जिस विकास में उनसे पूछा नहीं जाता, जिसमें उनकी कोई भागिदारी नहीं, उस विकास का वे विरोध करते हैं. किसी भी क्षेत्र का विकास उस क्षेत्र विशेष के जन समुदाय के सक्रिय सहयोग और उत्साह के बिना एक सीमा के ऊपर नहीं जा सकता. दरअसल झारखंड शुरू से ही एक आंतरिक उपनिवेश बन कर रहा और आंतरिक उपनिवेश एक दायरे से ऊपर उठ कर विकास की राह पर नहीं चल सकता.
उनसे एक मुलाकात में पूछा था कि इसका समाधान क्या है? उनका जवाब था – ‘समाधान तभी हो सकता है जब झारखंड के लिए अब तक लड़ने वाले और सही रूप में झारखंडी भावना से जुड़े लोग सही राजनीतिक दिशा के साथ नेतृत्व में आएं. लेकिन यहां विडंबना यह है कि जो लोग झारखंड के लिए लड़े हैं और जिनका झारखंडी भावना और संस्कृति से लगाव है, उनको झारखंड के विकास की सही दिशा का ज्ञान और समझ नहीं, दूसरी तरफ जिनके पास यह समझ है, उनमें झारखंडी भावना और संस्कृति से लगाव नहीं. वह दिशा क्या है? वह समाजवादी दिशा है.’
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कॉमरेड राय कहते हैं कि – झारखंडी आंदोलन बुनियादी रूप से एक सामाजिक आंदोलन है जो एक स्तर के बाद अलग राज्य के आंदोलन में बदल गया और उन्हें अलग राज्य मिल भी गया. अब इस अलग राज्य को उनके अपने राज्य में बदलना है तो उनके सामाजिक आंदोलन के सूत्र को पकड़ कर उसे समाजवादी आंदोलन में बदलना पड़ेगा. झारखंडी नेतृत्व के अंदर समाजवादी एवं वामपंथी विचारधारा उनके अस्तित्व रक्षा के लिए नितांत जरूरी है. लेकिन एक साजिश के तहत इसे पीछे ढकेला जा रहा है और उसकी जगह सांप्रदायवादी, जातिवादी और उपभोक्तावादी रुझान पैदा किया जा रहा है.’
कॉमरेड राय झारखंड में बाहर से आकर बसे श्रमिकों और झारखंड की मूल जनता के बीच के पुल रहे. यही उनकी सबसे बड़ी खासियत थी. मजदूर आंदोलन और झारखंड आंदोलन के बीच टकराव की स्थिति कभी पैदा नहीं हुई तो इसका श्रेय उन्हें भी जाता है. 70 के दशक में लाल और हरे झंडे की मैत्री ने झारखंड आंदोलन को दिशा देने में अहम भूमिका निभाई. कॉमरेड राय की बुझती आंखों में आज भी वो सपना था.
(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है, यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)