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Saturday, 20 April, 2024
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बीजेपी ने ले ली कांग्रेस की जगह, देश में दो कांग्रेस की गुंजाइश नहीं

समता, न्याय और अभिव्यक्ति की आजादी जैसे जीवन मूल्यों के प्रति गहरी निष्ठा रखकर और पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र बहाल करके ही कांग्रेस की दोबारा प्राण प्रतिष्ठा हो सकती है.

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कांग्रेस का इस समय कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा है. पार्टी अपने संसदीय जीवन के सबसे निचले स्तर पर है. लेकिन उसका मूल संकट ये नहीं है कि संसद में उसके कम सदस्य हैं. कम सांसद होना कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समाधान न हो. बीजेपी के 1984 में दो सांसद थे. कांग्रेस की समस्या बड़ी है. उसकी समस्या यह है कि उसके पास कोई वैचारिक आधार नहीं है. उसका कोई ठोस वोट बैंक नहीं है. ज्यादातर नीतिगत सवालों पर वह बीजेपी से अलग नजर नहीं आती. उसके अप्रासंगिक होने की एक प्रमुख वजह यह कि किसी भी पॉलिटिकल सिस्टम में एक ही तरह की दो राजनीतिक पार्टियां शीर्ष पर नहीं हो सकतीं.

गौर से देखें तो कांग्रेस और बीजेपी में छद्म धर्मनिरपेक्षता के एक झीने विभाजन के सिवा कोई फर्क नहीं रह गया है. दोनों का सामाजिक आधार एक है, दोनों की अर्थनीति एक है, दोनों पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है, दोनों में मानवाधिकारों के प्रति सम्मान की भावना का अभाव है. फर्क सिर्फ इतना है कि बीजेपी कट्टर हिंदुत्ववादी भावना पर सवार है, वहीं कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को बार-बार बताना पड़ता है कि वे कम हिंदू नहीं हैं.

किसी भी लोकतंत्र में सभी राजनीतिक दल एक ही व्यवस्था के तहत काम करते हैं. इसलिए उनकी चाल-ढाल में कोई खास फर्क नहीं दिखाई देता या बेहद मामूली फर्क दिखाई देता है. इसके बावजूद, ये दल किसी न किसी वर्ग और जाति के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं. पार्टियों को वोट अलग-अलग तबकों से मिलता हो, लेकिन हर पार्टी का अपना एक स्थिर वोट बैंक भी होता है. पार्टियों की मुख्य चिंता इस वोट बैंक को समेटे रखते हुए, नए वोट बैंक को जोड़ने की होती है.

कांग्रेस का डीएनए इलीट वर्ग का है

ऐसा कहा जाता है कि जमे हुए वर्ग ही जातियां हैं. अपवाद को छोड़कर उच्च वर्ग, उच्च जाति भी है, मध्यम वर्ग में मध्यम जातियां आती हैं और निम्न वर्ग ही निम्न जातियां हैं. राजनीतिक दल इन्हीं सामाजिक-आर्थिक संरचना के तहत काम करते हैं. कांग्रेस अपने जन्म के समय से अभिजात वर्ग यानी इलीट की पार्टी रही है. यानी ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आक्रांत देशी पूंजीपतियों की पार्टी, बड़े किसानों की पार्टी जो महात्मा गांधी के राजनीति में आने के पहले तक ब्रिटिश शासन के अंदर ही होम रूल की मांग करती थी. आजादी के बाद जब देश ने लोकतंत्र को शासन प्रणाली के तौर पर अपनाया तो कांग्रेस ने दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों को खुद से जोड़ा और इस आधार पर वह देश पर राज करती रही.


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ग्रामीण मध्यम वर्ग और मध्यम जातियों का प्रतिनिधित्व हाल तक समाजवादी करते थे. यानी, सोशलिस्ट पार्टी, लोकदल, जनता दल, फिर उनसे टूट कर बनी राजद, सपा, रालोद, बीजू जनता दल आदि. इसी तरह निम्न जाति और वर्ग का प्रतिनिधित्व सामान्यतः कम्युनिस्ट करते थे, जो खासकर उत्तर भारत में उनसे खिसक कर बीएसपी के पास चले गए.

बीजेपी ने अपने जनाधार का विस्तार किया है

बीजेपी, जिसका पूर्व रूप जनसंघ था, बनियों की पार्टी मानी जाती थी, जिसका नेतृत्व कट्टर हिंदुत्ववादी संगठन आरएसएस करता था. उस पर सवर्ण जातियों का वर्चस्व था. लेकिन चूंकि वह नवोन्मेष का दौर था, समता, न्याय, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की भावना सर्वोपरी थी, इसलिए संघ और जनसंघ देश की राजनीति के हाशिये पर ही रहे. दक्षिण भारत में आजादी के तुरंत बाद तो कांग्रेस ही प्रभावी थी. लेकिन हिंदी विरोधी आंदोलन के बाद वहां क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ और कांग्रेस का प्रभाव घटता चला गया. खासकर तमिलनाडु में तो द्रविड़ राजनीति ने कांग्रेस के कदम पूरी तरह उखाड़ दिए.

ढलान पर कांग्रेस और राम रथ पर सवार बीजेपी

चीन युद्ध में शर्मनाक पराजय के बाद देश नेहरू के मोह से निकलने लगा. इलीट वर्ग की बढ़ती समृद्धि, और गरीबों की बिगड़ती हालत तथा भ्रष्टाचार और मंहगाई से भी लोग कांग्रेस से छिटकने लगे. विभिन्न राज्यों में गैर-कांग्रेस संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारों का गठन, गुजरात का छात्र आंदोलन, बिहार का जेपी आंदोलन, इंदिरा गांधी द्वारा थोपा गया आपातकाल… इन सबने कांग्रेस का तिलिस्म तोड़ दिया.

इस पर कील ठोंकी दलित और पिछड़ा राजनीति के अभ्युदय ने. आक्रामक मुद्रा में राजनीतिक मंच पर आई बसपा, सपा, जनता दल जैसी पार्टियां. इनके उभार से मनुवादी सामंती मिजाज आहत होने लगा. बीजेपी ने इस स्थिति का भरपूर फायदा उठाया. मंडल के खिलाफ रामरथ यात्रा को बीजेपी की राजनीति का प्रस्थान बिंदु माना जा सकता है. उसने इसके समानांतर आरक्षण विरोधी आंदोलन को भी हवा दी. वीपी सिंह के पतन के दिन संसद में तमाम राजनीतिक दलों के अगड़े एकजुट दिखे. चाहे वे समाजवादी चंद्रशेखर हों या हिंदुत्ववादी आडवाणी और अटल.

वीपी सिंह सरकार के पतन के बावजूद दलित-पिछड़ा राजनीति बुलंदी पर पहुंची. उत्तर प्रदेश में यदि मुलायम, कांशीराम और बाद में मायावती शक्तिशाली बन कर उभरीं, तो बिहार में लालू यादव का जलवा रहा. आडवाणी के रथ को बिहार में रोक कर लालू ने पिछड़ा-अल्पसंख्यक गठजोड़ को अपनी राजनीति की धुरी बनाया. इस तरह कांग्रेस की झोली खाली होती चली गई.

जयपाल सिंह मुंडा की झारखंड पार्टी के कांग्रेस में विलय से कांग्रेस को एकाध चुनाव में फायदा हुआ, लेकिन आदिवासियों का विश्वास उन्होंने खो दिया. दलित और पिछड़ा वोट उनके नियंत्रण में नहीं रहे. अल्पसंख्यक कुछ दिन विभाजित रहे, फिर बीजेपी को सबसे कड़ी चुनौती देने वाली ताकतों के साथ गोलबंद होने लगे. रह गये सवर्ण वोट, तो उन्हें लगा कि आक्रामक दलित व पिछड़ावाद का मुकाबला कांग्रेस नहीं कर सकती, इसलिए वे बीजेपी के पक्ष में गोलबंद होने लगे.

जिस दक्षिण भारत ने इमरजंसी के बाद कांग्रेस को सहारा दिया था, उस दक्षिण भारत में भी दलित-पिछड़ा आंदोलन ने राजनीति को बदल दिया. द्रमुक, अन्नाद्रमुक, तेलुगु देशम जैसे दल अपने इलाकों में शक्तिशाली बन कर उभरे. कांग्रेस के लिए वह इलाका भी बंजर हो गया.


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आर्थिक क्षेत्र में कांग्रेस उदारीकरण और नई औद्योगिक नीति की पैरोकार बनी, जिसने समाज में असमानता को बढ़ाया और इसके खिलाफ लोगों का गुस्सा भी सामने आ गया. आर्थिक असमानता के संकट को दूर करने के लिए जिन लोक कल्याणकारी उपायों की जरूरत थी, उनमें कांग्रेस ने ढील बरती. सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में वह कभी मुस्लिम तुष्टीकरण के रास्ते चली तो कभी हिंदू तुष्टीकरण की नीति पर. शाहबानो प्रकरण पर वह झुकी. बाबरी मस्जिद का ताला उसके शासन में खुला और ये मस्जिद भी उसके शासनकाल में जमींदोज हुई. कांग्रेस की छद्म धर्मनिरपेक्षता पर बीजेपी का कट्टर हिंदुत्व भारी पड़ा. अब सवर्ण बीजेपी के साथ हैं, पिछड़ावाद के नाम पर कुछ जातियों के वर्चस्व से आक्रांत अन्य ओबीसी बीजेपी के साथ हैं. आदिवासी इलाकों की पिछड़ी जातियां उनके साथ है. मुस्लिमों और दलित-आदिवासियों के दमन से खुश होने वाले हिंदू उनके साथ हैं.

कांग्रेस के सामने रास्ता

कांग्रेस भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाती है तो भूल जाती है कि बिहार का छात्र आंदोलन कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ था. वीपी सिंह ने बोफोर्स मामले में ही कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व को चुनौती दी थी. कांग्रेस जब मोदी शासन में तानाशाही की बात करती है तो लोगों को इमरजेंसी याद आती है. वह जब लोकतंत्र की बात करती है तो लोग देख रहे होते हैं कि खुद कांग्रेस पार्टी में किसी स्तर पर आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. प्रखंड अध्यक्षों तक का वह चुनाव नहीं करा पाती. विधायक दल अपना नेता खुद चुने, यह कांग्रेस के लिए कल्पनातीत है. बीजेपी यदि आरएसएस से संचालित होती है तो कांग्रेस भी एक परिवार की छाया में सांस लेती है.

इसलिए कांग्रेस के मौजूदा स्वरूप से कोई उम्मीद नहीं है. वह बीजेपी की प्रतिस्पर्धी बन कर राजनीति में आगे नहीं बढ़ सकती. उसे बीजेपी का जवाब बनना होगा. नई वैकल्पिक अर्थनीति, छद्म धर्मनिरपेक्षता की जगह सच्ची धर्मनिरपेक्षता, समानधर्मी राजनीतिक दलों से बराबरी का व्यवहार, संविधान और उसके समता, न्याय और अभिव्यक्ति की आजादी जैसे जीवन मूल्यों के प्रति गहरी निष्ठा रखकर और पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र बहाल करके ही कांग्रेस की दोबारा प्राण प्रतिष्ठा हो सकती है.

(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है)

(यह लेखक का निजी विचार है.)

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