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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतक्यों प्रधानमंत्री मोदी को अपने इर्द-गिर्द जमा कागजी शेरों को लेकर चिंता होनी चाहिए

क्यों प्रधानमंत्री मोदी को अपने इर्द-गिर्द जमा कागजी शेरों को लेकर चिंता होनी चाहिए

प्रधानमंत्री मोदी के कागजी शेर टीवी और ट्विटर पर विपक्ष के खिलाफ खूब दहाड़ते हैं, लेकिन उनमें से कोई भी लुटियंस की दिल्ली से निकलकर सिंघू, टिकरी और गाज़ीपुर बॉर्डर तक नहीं जाता.

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पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान पिछले गुरुवार को राज्यसभा में पूरे फॉर्म में थे. सरकार की किसान समर्थक नीतियों के बारे में आधिकारिक आंकड़ों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं तथ्य पेश कर रहा हूं, कोई मन की बात नहीं कह रहा’. उन्होंने विपक्षी दलों के शासन के रिकॉर्ड का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया. कई अन्य मंत्रियों ने भी ऐसा ही किया.

लेकिन तथ्य कभी कोई मुद्दा था ही नहीं. विशेषज्ञों के बीच आमराय है कि कृषि क्षेत्र में सुधारों की बहुत जरूरत है. लेकिन ये बात दिल्ली की सीमाओं पर इकट्ठा किसानों को तो बताएं! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्री वही कर रहे हैं जिनमें वो अच्छे हैं — प्रधानमंत्री की तारीफ़ करना और विपक्षी दलों पर तीन कृषि कानूनों के बारे में किसानों को गुमराह करने की तोहमत लगाना. प्रधान ने कहा, ‘जो लोग चांदी के चम्मच के साथ पैदा हुए हैं, उन्हें ये बात हजम नहीं हो रही कि एक चायवाला का बेटा देश का प्रधान सेवक बन गया है.’

हालांकि इससे प्रधानमंत्री मोदी को अधिक तसल्ली नहीं मिल सकती. अभी तो वह यही चाहेंगे कि पार्टी सदस्य ज़मीनी स्तर पर विमर्श को बदलने की कोशिश करें. दरअसल दक्षिणपंथी ट्रोल सेना — सत्तारूढ़ दल का एक वर्ग भी — ने पॉप सितारों और अधिकारवादी कार्यकर्ताओं के खिलाफ हल्ला बोलकर तथा उन्हें और उनकी जैसी अन्य शख्सियतों को भारतीय किसानों के अंतरराष्ट्रीय हितैषियों की श्रेणी में डालकर समस्या को और जटिल बना दिया है. उससे भी गंभीर बात है नवनिर्वाचित अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भांजी, मीना हैरिस, पर ट्रोल सेना का हमला और उनका ज़ोरदार प्रतिरोध — दिल्ली पुलिस की हिरासत में एक अधिकारवादी कार्यकर्ता के कथित यौन उत्पीड़न को उजागर करना, और फासीवाद के लिए हिंदू धर्म का इस्तेमाल करने वालों को चुनौती देना — जिससे साउथ ब्लॉक में खतरे की घंटी बजनी चाहिए थी.

लेकिन लगता है एस. जयशंकर की अगुवाई वाले विदेश मंत्रालय को घरेलू जनता की अधिक चिंता है क्योंकि मंत्रालय ने अमेरिकी पॉप स्टार के ट्वीट को एक संपूर्ण आधिकारिक बयान वाली प्रतिष्ठा दी, और उसे मोदी के नेतृत्व वाले भारत में किसानों के प्रदर्शन के दौरान लाल किले पर हुई हिंसा और डोनल्ड ट्रंप के नेतृत्व वाले अमेरिका में कैपिटल हिल पर हुए ‘बलवे’ के बीच समानताएं दिखती हैं.

मोदी सरकार के नियमित संकटमोचक दुनिया का ध्यान खींच रहे किसानों के आंदोलन के समाधान को लेकर अनभिज्ञ दिखते हैं. और इसीलिए प्रधानमंत्री अपनी पार्टी से इस संकट से निपटने की उम्मीद कर रहे होंगे.

लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को क्या हो गया, जो 2015 में ही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को पीछे छोड़ दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक संगठन बन गई थी?

आखिरी बार पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा को भाजपा सदस्यों की गिनती 18 करोड़ बताते सुना गया था, और उन्होंने दावा किया था कि केवल सात देशों की ही आबादी उनकी पार्टी के सदस्यों से अधिक है.


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मैदान से गायब

सब इस बात पर सहमत हैं कि भाजपा एक ज़ोरदार चुनावी मशीन और सामने आए प्रतिस्पर्धी को कुचल कर रख देना वाला प्रभावशाली बल है. विपक्षी दल भाजपा के बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं, पन्ना प्रमुखों और मंडल प्रमुखों के बारे में पढ़कर भौंचक्के रह जाते हैं. लेकिन ये कार्यकर्ता पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश से अचानक कहां गायब हो गए हैं? भाजपा ने इन राज्यों में अपने सदस्यता अभियान के विस्तृत परिणामों की घोषणा कभी भी नहीं की है. इसलिए केवल भाजपा नेताओं को पता होगा कि पार्टी के अंबाला, जींद, मुज़फ्फ़रनगर, शामली या गाजियाबाद में कितने सदस्य हैं. बाकियों को इस बात की जानकारी नहीं है कि हरियाणा में कितने लोग भाजपा के सदस्य हैं. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और नड्डा को जरूर ये जानकारी होगी, और वे उन पार्टी सदस्यों को ढूंढ रहे होंगे.

प्रधानमंत्री मोदी को 18 करोड़ सदस्यों वाली पार्टी की संकट वाले स्थानों से अनुपस्थिति पर ज़रूर परेशानी हो रही होगी, खासकर ऐसे समय जबकि पार्टी को अपने कार्यकर्ताओं की सर्वाधिक ज़रूरत है — किसानों के बीच मौजूद रहने के लिए, उन्हें केंद्रीय कृषि कानूनों के फायदे गिनाने के लिए और विपक्ष के ‘दुष्प्रचार’ का मुकाबला करने के लिए. यदि पार्टी सदस्य वास्तव में अभी भी मौजूद हैं, और फिर भी विपक्ष किसानों को ‘गुमराह’ कर पा रहा है, तो निसंदेह ये भाजपा के लिए चिंता की बात होनी चाहिए.

यह सिर्फ भाजपा के सदस्यों और ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं की ही बात नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी को अपने मंत्रिपरिषद और पार्टी संगठन के कागजी शेरों से भी निराशा हो रही होगी. विपक्ष के खिलाफ उनकी दहाड़ टीवी कैमरों के सामने और ट्विटर पर खूब सुनी जा सकती है. लेकिन कोई भी लुटियंस की दिल्ली के अपने दायरे से बाहर निकलकर साथ लगे राज्यों के गांवों में — या यहां तक कि सिंघू, टिकरी और गाजीपुर जैसी दिल्ली की सीमाओं तक भी — ये बताने नहीं जाता कि कानूनों को लेकर प्रधानमंत्री क्यों सही हैं, और वे लोग गलत हैं.

संजीव कुमार बलियान याद हैं? उन्होंने 2013 के मुज़फ्फ़रनगर दंगों के दौरान राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरी थीं. उन्हें 2014 में मोदी सरकार में मंत्री बनाया गया. अब मंत्रीजी के बलियान खाप के नेता राकेश टिकैत, मोदी के लिए बहुत बड़ा सिरदर्द बन गए हैं, अगर प्रधानमंत्री ने उम्मीद की हो कि उनके मंत्री पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी के जाट चेहरे के रूप में अपनी उपयोगिता साबित करेंगे, तो उन्हें बेहद निराशा हो रही होगी. किसानों से घर वापस लौटने, क्योंकि उनके आंदोलन को ‘असामाजिक तत्वों ने हाइजैक कर लिया है‘, की अपील वाले रस्मी बयानों के अलावा बलियान टिकैत के प्रमुखता हासिल करने और दिल्ली-गाज़ीपुर सीमा पर जाट समर्थकों को जुटाने के घटनाक्रम के मूकदर्शक भर रहे हैं. पश्चिमी यूपी में भाजपा के चार अन्य जाट सांसद और दर्जन भर गैर-जाट सांसद भी हैं. वे आज ज़मीन पर कहीं नहीं नजर आ रहे हैं. भाजपा नेताओं के एक वर्ग में इस बात को लेकर भी जिज्ञासा है कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह राकेश टिकैत को काबू करने में कैसे नाकाम रहे, जिन्हें कि यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री का करीबी माना जाता है.

और, हिसार के सांसद बृजेंद्र सिंह कहां हैं, जो मोदी के पहले कार्यकाल के दैरान मंत्रिमंडल में जाट चेहरा रहे चौधरी बीरेंद्र सिंह के पुत्र हैं? मालूम हो कि आखिरी बार नवंबर में, उन्हें ये कहते सुना गया था कि तीन कृषि कानून सुधारवादी और क्रांतिकारी हैं, लेकिन उन्हें पारित कराने से पहले सभी हितधारकों को भरोसे में लिया जाना चाहिए था. उनके पिता कानूनों को संसद में पारित कराने से पहले किसानों की आशंकाओं को दूर नहीं करने के लिए हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार और पंजाब के भाजपा नेतृत्व पर पहले ही कटाक्ष कर चुके हैं. वैसे, पहली बार के सांसद बृजेंद्र सिंह को दोष देना अनुचित होगा, क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में हरियाणा की सभी 10 सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की थी. बाकी नौ सांसद भी किसानों की एकजुटता को सुरक्षित दूरी से देख रहे हैं.

भाजपा के पंजाब से दो सांसद हैं — होशियारपुर से केंद्रीय मंत्री सोमप्रकाश और गुरदासपुर से सनी देओल. सोमप्रकाश कोई जोख़िम उठाने से बचने की कोशिश करते हुए इतना भर कह रहे हैं कि भारत सरकार किसानों के मुद्दों को हल करने के लिए गंभीर है. सनी देओल की प्रतिक्रिया भी सतर्कतापूर्ण है कि वह अपनी पार्टी और किसानों के साथ खड़े हैं, हालांकि कुछ लोग स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं.


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क्या हैं भाजपा की प्राथमिकताएं

ऐसा नहीं है कि केवल मंत्री और सांसद ही सतर्कता बरतते हुए इस राजनीतिक संकट से निपटने का जिम्मा मोदी सरकार के शीर्ष नेतृत्व पर छोड़ रहे हैं. दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी इस संकट से खुद को लगभग पूरी तरह अलग-थलग किए दिखती है, और ये प्रधानमंत्री और उनकी सरकार पर छोड़ दिया गया है कि वे अपने मामल खुद ही संभालें.

पिछले महीने, पार्टी ने कृषि कानूनों के खिलाफ कथित ‘दुष्प्रचार’ अभियान के खिलाफ एक जनसंवाद कार्यक्रम की योजना बनाई थी. इसके तहत देश के सभी जिलों में प्रेस कॉन्फ्रेंस, जनसंपर्क कार्यक्रम और ‘चौपाल’ आयोजित किया जाने थे. स्पष्ट है कि इसका पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी में कोई प्रभाव नहीं पड़ा. पार्टी की हरियाणा इकाई अब खाप पंचायतों और जाट नेताओं तक पहुंचने का कार्यक्रम बना रही है, लेकिन अभी ये योजना निर्माण के चरण में ही है.

भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के ट्विटर हैंडल को देखकर आप प्राथमिकताओं को समझ सकते हैं. वह पिछले सप्ताह पश्चिम बंगाल और केरल में पार्टी के प्रचार में लगे रहे. और किस गर्मजोशी से उनका स्वागत हो रहा है! दमकता चेहरा, मालाएं और हाथ हिलाकर भीड़ का अभिवादन. ये सब देखकर यही लगता है कि हमेशा उनको ये सब पसंद रहा है, भले ही आलोचकों को लगता था कि वे अमित शाह के साये में रहेंगे.

गौरव के ऐसे क्षणों में, दिल्ली की सीमाओं पर मौजूद उदास चेहरों को कौन याद करेगा? यदि कागज़ी शेरों से घिरे प्रधानमंत्री आज शीर्ष पर अकेले दिख रहे हैं तो इसमें उनका भी दोष है. उन्होंने अपनी पार्टी से कभी नहीं कहा कि उन्हें पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष डीके बरुआ की नकल के अलावा भी कुछ करना है, जिनका कुख्यात नारा – इंदिरा इज़ इंडिया एंड इंडिया इज़ इंदिरा- आज भी कई राजनेताओं के लिए एक प्रेरणास्रोत है. वैसे, इंदिरा के सत्ता खोने के बाद बरुआ ने उनका साथ छोड़ दिया था.

ये लेखक के निजी विचार हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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