इस सप्ताह के अंत में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्राचीन सिल्क रोड पर स्थित उज्बेकिस्तान के शहर समरकंद में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मिलेंगे, तो यह दिल्ली द्वारा अपनाई गई उस गई कठोर कूटनीति का जश्न मनाने का अवसर होगा जिसने इस बैठक में शामिल होने को पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीनी सेनाओं की वापसी के साथ जोड़ा हुआ था.
15-16 सितंबर को होने जा रहे शंघाई कोऑपरेशन आर्गेनाइजेशन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में मोदी की उपस्थिति, जहां वह रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ से भी मुलाकात करेंगे, ने भारत की विदेश नीति में आये एक नए झुकाव के बारे में अटकलों को बढ़ावा दिया है.
पिछले हफ्ते व्लादिवोस्तोक में आयोजित ईस्टर्न इकोनॉमिक फोरम में मोदी की गर्मजोशी भरी टिप्पणी, जिसे पुतिन और चीनी नेशनल पीपुल्स कांग्रेस के अध्यक्ष ली झांशु दोनों सुन रहे थे, जो बाइडेन प्रशासन की उस नाखुशी के विपरीत है, जो वह भारत द्वारा रूस से रियायती तेल खरीदने की हर दिन बढ़ती मात्रा के मद्देनजर दिखा रहा है.
न ही अब ऐसा लगता है कि भारत कच्चे तेल की उस ऊपरी कीमत की सीमा (प्राइस कैप) का पालन करेगा जो अमेरिका के नेतृत्व वाले जी-7 में शामिल राष्ट्र रूस को यूक्रेन युद्ध के लिए दंडित करने के उद्देश्य से उस पर थोपने की योजना बना रहे हैं. जहां तक उन खबरों का सवाल है कि भारत और रूस रूपया-रूबल वस्तु विनिमय व्यापार तंत्र की दिशा में काम कर रहे हैं – वाशिंगटन डीसी इस तरह की खबर से शायद ही खुश होगा.
पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी हाल ही में सीएनबीसी को कह चुके हैं कि वे रूस से तेल के आयत पर प्राइस कैप लगाने वाली जी-7 की पहल में शामिल होने के प्रति ‘कोई नैतिक दायित्व’ महसूस नहीं करते.
इस नई उथल-पुथल भरी दुनिया में, यह तथ्य कि चीनी सैनिक दो लंबे वर्षों के गतिरोध के बाद एलएसी की अपनी सीमा के भीतर वापस जा रहे हैं, भारत द्वारा चीन के बिछाये खेल को खेलने से साफ़ इनकार करने के साक्ष्यपत्र जैसा है.
मध्य मार्ग पर चलने के इस निर्णय को भारतीय अधिकारी ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ का नाम देते हैं, और यह हमेशा आसान नहीं होता है. एक ओर, भारत और अमेरिका के ‘स्वाभाविक सहयोगी’ होने का तथ्य है, जो अटल बिहारी वाजपेयी के जितना ही पुराना वाक्यांश है; और दूसरी ओर, यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के मामले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बार-बार किये गए भारतीय बहिष्कार भी सबके सामने हैं.
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मोदी का तुरुप का पत्ता
जब भारतीय अधिकारियों ने इस बात पर ध्यान दिया कि समरकंद में होने वाला एससीओ शिखर सम्मेलन निकट है, उन्होंने बड़ी विनम्रता के साथ शिखर सम्मेलन में मोदी और शी के बीच की किसी भी संभावित बैठक को एलएसी से चीनी सैनिकों की वापसी से जोड़ दिया. ज्ञात हो कि भारत अगले साल एससीओ शिखर सम्मेलन के साथ-साथ जी -20 की भी मेजबानी करेगा.
भारतीय अधिकारियों ने चीनियों से साफ तौर पर कहा कि अगर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैनिक अप्रैल 2020 में एलएसी पर कब्जा किए गए अपने ठिकानों पर बने रहे, तो मोदी सम्मेलन में शामिल नहीं होंगे. यह बीजिंग के लिए एकदम से स्पष्ट संदेश था.
इसलिए 8 सितंबर को, एससीओ की बैठक से ठीक एक सप्ताह पहले, चीनी सैनिकों ने ‘एक समन्वित और योजनाबद्ध तरीके से डिसइंगेज करना शुरू कर दिया.’ अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि हॉट स्प्रिंग्स-गोगरा क्षेत्र, जिसे पेट्रोलिंग पॉइंट 15 भी कहा जाता है, से सैनिकों की यह वापसी ‘एक किलोमीटर से अधिक’ की है.
हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब भारतीय अधिकारियों ने इस विशेष ‘ चार्म ‘ का इस्तेमाल वह पाने के लिए किया है जो वे चाहते थे. इससे पहले, सितंबर 2017 में, जब भूटान में स्थित डोकलाम पठार पर भारतीय और चीनी सैनिक एक दूसरे की आंखो में आंखे डाले डटे थे, तब भी नई दिल्ली ने बीजिंग को साफ-साफ बताया था कि यदि चीनी सैनिक पहले वाली यथास्थिति में नहीं लौटे तो भारतीय प्रधानमंत्री मोदी चीन में आयोजित हो रहे ब्रिक्स शिखर बैठक वाले स्थान, ज़ियामेन, नहीं जाएंगे.
चीनी पक्ष झुक गया और तभी मोदी ने ज़ियामेन के लिए हवाई जहाज की उड़ान भरी. शी के पास अपनी ही पार्टी के धूमधाम और दिखावे से समझौता करने का कोई तरीका नहीं था – मोदी का चीनी शहर से अनुपस्थित रहना शी का एक कठोर उपहास होता. यह बात मोदी और शी दोनों जानते थे.
बराबरी की शर्तों पर हो रही है शी से मुलाकात
समरकंद में दिखाया गया पैंतरा भी कुछ इसी तरह का है, लेकिन था उससे इससे भी अधिक दिलचस्प. कोविड के मार से उबरने के बाद से चीन की इस पहली पार्टी में पुतिन के नेतृत्व में शी के सभी दोस्त मौजूद रहेंगे. एलएसी पर गतिरोध के दूसरे वर्ष में भी जारी रहने के साथ ही मोदी का फिर से अनुपस्थित होना शी जिनपिंग के चेहरे पर एक कूटनीतिक तमाचे जैसा होता.
याद रखें, चीनी नेता समरकंद से लौटते हीं अगले महीने होने वाली नेशनल पीपुल्स कांग्रेस की राजनीति में पूरी गहराई के साथ उतर जायेंगे. इस कांग्रेस के दौरान शी अभूतपूर्व रूप से तीसरी बार नामांकित होने और जीवन भर के लिए ‘प्रिय नेता’ (डिअर लीडर) बनने की उम्मीद कर रहे हैं. इन परिस्थितियों में, एक साथी एशियाई शक्ति के नेता का एससीओ शिखर सम्मेलन में शामिल नहीं होना, उनकी कल्पित वैश्विक नेतृत्व वाली योजनाओं में आई एक शिकन से कहीं अधिक होता – विशेष रूप से तब जब दुनिया में हर कोई जानता होता कि ऐसा क्यों हैं!
मोदी के लिए यह निश्चित रूप से एक कूटनीतिक जीत है. उन्होंने चीनी विदेश मंत्री वांग यी – जो मार्च महीने में बिना बुलाये ही मोदी को ब्रिक्स सम्मलेन में आमंत्रित करने के लिए दिल्ली आए थे – से मिलने से साफ़ इनकार कर दिया था. इसके बाद चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र, ग्लोबल टाइम्स ने स्पष्ट रूप से टिप्पणी की थी कि ‘चीन और भारत को सीमा मुद्दे को अपने आपसी संबंधों के समग्र विकास को परिभाषित या प्रभावित नहीं करने देना चाहिए.’
लेकिन मोदी ने झुकने से इनकार कर दिया. वह शी से बराबरी की शर्तों पर ही मिलेंगे. और शी सीधी लाइन पर आ गए.
ऐसा करते समय शायद चीनी राष्ट्रपति के दिमाग में एक और विचार आया होगा. मोदी और पुतिन के साथ-साथ तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन को एससीओ शिखर सम्मेलन में शामिल करके, वह शायद उन कई फोटो-ऑप्स (खींची गई तस्वीरों) के बारे में सोच रहे थे जो पूरी वैश्विक मीडिया में छापे जाएंगे. पुतिन और एर्दोगन तो पहले से ही उनके खेमे में थे, लेकिन भारतीय प्रधान मंत्री के बारे में क्या? पश्चिमी दुनिया उसके बारे में क्या सोचेगी?
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लेखक एक कंसल्टेंट एडीटर हैं. वह @jomalhotra ट्वीट करती हैं. यहां विचार निजी हैं.
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