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शनिवार, 26 अप्रैल, 2025
होममत-विमतसीएए विरोधी प्रदर्शन, दिल्ली हिंसा, कोविड-19 के दौरान तबलीगी जमात के आयोजन की खबर देने में खुफिया एजेंसी नाकाम क्यों रहीं

सीएए विरोधी प्रदर्शन, दिल्ली हिंसा, कोविड-19 के दौरान तबलीगी जमात के आयोजन की खबर देने में खुफिया एजेंसी नाकाम क्यों रहीं

नागरिकता संशोधन कानून का विरोध, दिल्ली में हिंसा, कोरोनावायरस के दौरान मरकज में तब्लीगी जमात का आयोजन और पालघर में साधुओं की हत्या कुछ ऐसा ही संकेत देती हैं.

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नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश के कई राज्यों में धरना प्रदर्शन, दिल्ली में अचानक हुई हिंसा, कोरोनावायरस महामारी के खतरे के बीच निजामुद्दीन के मरकज में तब्लीगी जमात का आयोजन और हाल ही में महाराष्ट्र के पालघर में हिंसक भीड़ द्वारा दो साधुओं सहित तीन व्यक्तियों की पीट-पीट कर हत्या करने जैसी घटनायें स्थानीय खुफिया एजेंसी और पुलिस की कार्यशैली पर सवाल उठाती है.

सवाल यह है कि क्या खुफिया एजेंसी जनता के बीच चलने वाली गतिविधियों और सोच के बारे में जानकारी एकत्र करने की जिम्मदारी ठीक से नहीं निभा रही है. क्या पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ विचार विमर्श के दौरान खुफिया जानकारियों का आदान प्रदान होता है और क्या किसी प्रकार की गड़बड़ी के बारे में पहले से सूचना मिलने के बावजूद पुलिस ढुलमुल रवैया अपनाती है?

इस तरह के सवाल मन में उठने की वजह भी है. वजह यह है कि भीड़ तंत्र और भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश पाने के लिये देश की सर्वोच्च अदालत ने स्थानीय स्तर पर खुफिया तंत्र को अधिक सुदृढ़ करने और महीने में कम से कम एक बार वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ ऐसी सूचना साझा करने का निर्देश राज्य सरकारों और पुलिस प्रशासन को दिया था. परंतु हाल की घटनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि शासन और प्रशासन ने न्यायालय के इन निर्देशों पर प्रभावी तरीके से अमल करना उचित नहीं समझा या फिर इन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया.

इसी उदासीनता का नतीजा है कि अफवाहों और संदेह की वजह से भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेने और निर्दोष व्यक्तियों की हत्या करने जैसी घटनाओ को सांप्रदायिकता या फिर जातीय हिंसा का रंग दिया जाने लगता है जो नहीं होना चाहिए.

उच्चतम न्यायालय ने हिंसक भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की बढ़ती प्रवृत्ति पर सख्ती से अंकुश लगाने पर जोर देते हुये 17 जुलाई 2018 को अपने फैसले में स्थानीय स्तर पर चाक चौबंद खुफिया तंत्र की आवश्यकता पर जोर दिया था.

तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने उग्र या हिंसक गतिविधियों में संलिप्त होने की आशंका वाले समूहों के बारे में खुफिया जानकारी प्राप्त करने के लिये विशेष कार्यबल गठित करने का निर्देश दिया था.


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यही नहीं, न्यायालय ने राज्य सरकारों को प्रत्येक जिले में कम से कम पुलिस अधीक्षक स्तर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को नोडल अधिकारी बनाने का निर्देश दिया था. पुलिस अधीक्षक स्तर के इस नोडल अधिकारी को अपने जिले के थाना प्रभारियों और खुफिया इकाई के साथ महीने में कम से कम एक बैठक करके उग्र भीड़ या दूसरों को पीट-पीट कर मार डालने की प्रवृत्ति वाले तत्वों की पहचान करने का भी निर्देश न्यायालय ने दिया था.

इस तरह की भीड़ या गुटों और समूहों की हिंसक गतिविधियों की रोकथाम के लिये पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारियों को इस नोडल अधिकारी की मदद करनी थी.

भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की बढ़ती प्रवृत्ति को देखते हुये ही शीर्ष अदालत ने तहसीन पूनावाला बनाम भारत सरकार मामले में भीड़ द्वारा हिंसा को एक अलग अपराध की श्रेणी में रखने और इसके लिये समुचित दंड का प्रावधान करने के लिये एक विशेष कानून बनाने की सिफारिश संसद से की थी ताकि इस तरह की गतिविधियों में संलिप्त होने वाले तत्वों के मन में भय पैदा किया जा सके.

न्यायालय के इस सुझाव के बावजूद केन्द्र सरकार अभी तक इस तरह का कोई कानून बनाने में सफल नहीं हुयी जिसके तहत भीड़ तंत्र की हिंसा को एक अलग अपराध की श्रेणी में रखा जा सके. केन्द्र सरकार ने इस बारे में राज्य सरकारों से सुझाव मांगे कि क्या इस तरह के अपराधों से निपटने के लिये भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता में संशोधन की जरूरत है. परंतु ऐसा लगता है कि यह मामला इसके आगे अभी तक बढ़ा ही नहीं है.

एक बात साफ नज़र आती है कि राज्य सरकारों और पुलिस प्रशासन ने स्थानीय स्तर पर खुफिया तंत्र को चाक चौबंद करने के न्यायालय के निर्देश की ओर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया. अगर इस ओर गंभीरता से ध्यान दिया गया होता तो निश्चित ही नागरिकता संशोधन कानून और इससे जुड़े मुद्दों को लेकर समाज के एक वर्ग में व्याप्त आशंकाओं की जानकारी खुफिया तंत्र को पहले मिल गयी होती. यही नहीं, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पनप रहे असंतोष तथा शाहीन बाग और जाफराबाद में धरना प्रदर्शन की आशंकाओं के बारे में खुफिया सूचनाओं के आधर पर पुलिस और प्रशासन भी शायद अधिक सचेत होता और इस तरह की घटनायें नहीं हो पातीं.

यही नहीं, दिल्ली में बड़े पैमान पर अराजकता पैदा करने या फिर किसी प्रकार की तोड़फोड़ और हिंसा की तैयारियों की खुफिया जानकारी पहले से मिलने का लाभ यह भी होता कि असंतोष को हवा देने और हिंसा की साजिश रचने वालों को पहले ही दबोचा जा सकता था और ऐसा होने पर सांप्रदायिक हिंसा के दौरान जानमाल के नुकसान को कम किया जा सकता था.

कहा जा रहा है कि पालघर के आदिवासी इलाकों में बच्चा चोर सक्रिय होने की अफवाह फैली हुयी थी और इस वजह से स्थानीय स्तर पर लोग सचेत थे. अगर इस तरह की खुफिया जानकारी थी तो एक वाहन में सवार दोनों साधुओं को पुलिस पहले ही समझा बुझाकर आगे बढ़ने से रोक सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दोनों साधुओं तथा उनके ड्राइवर की पुलिस की मौजूदगी में ही पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी.


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ये घटनायें यही दर्शाती हैं कि स्थानीय स्तर पर खुफिया तंत्र ही नहीं बल्कि सूचना एकत्र करने वाली पुलिस की इकाईयां भी अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रही हैं.

हमारे देश में स्थानीय खुफिया एजेंसी ने हमेशा ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायालय के निर्देशों के अनुरूप खुफिया तंत्र को पहले से अधिक चाक चौबंद किया जायेगा ताकि पुलिस और प्रशासन को किसी भी तरह की असामाजिक गतिविधियों को अंजाम देने या ऐसी गतिविधि में किसी समूह या भीड़ के संलिप्त होने की संभावना के बारे मे समय रहते पुख्ता जानकारी मिल सके. यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही भीड़ तंत्र द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की किसी भी मंशा और अराजक तत्वों की तमाम गतिविधियों पर पैनी निगाह रखकर उन्हें किसी वारदात को अंजाम देने से पहले ही प्रभावी तरीके से विफल करना संभव हो सकेगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.)

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