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Friday, 19 April, 2024
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सरकारों की बेरुखी के कारण सुप्रीम कोर्ट के निर्देश भी मॉब लिंचिंग रोकने में नाकाम

हाल की घटनाओं से ऐसा लगता है कि राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में जहां केन्द्र ने इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है वहीं राज्य सरकारों का रवैया भी ढुलमुल रहा है.

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हिंसक भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने और किसी न किसी आरोप में संलिप्त होने के संदेह मात्र पर निर्दोष व्यक्ति की हत्या करने की घटनाओं पर उच्चतम न्यायालय की कड़े रुख और इनकी रोकथाम के लिये निर्देशों के बावजूद ऐसे अपराध बदस्तूर हो रहे हैं. इस तरह की घटनाओ में संलिप्त आरोपियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई के लिये उचित कानून बनाने पर न्यायालय ने जोर दिया था लेकिन हाल की घटनाओं से ऐसा लगता है कि राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में जहां केन्द्र ने इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है वहीं राज्य सरकारों का रवैया भी ढुलमुल रहा है.

उग्र भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की घटनाओं से सख्ती से निपटने के लिये शीर्ष अदालत ने जुलाई 2018 में विस्तृत निर्देश दिये थे. इन निर्देशों के परिप्रेक्ष्य में 7 सितंबर, 2018 को अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने न्यायालय को बताया था कि सरकार ने कानून बनाने पर विचार के लिये गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में उच्चाधिकार प्राप्त समिति गठित की है.


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हालांकि इसके बाद कानून बनाने की दिशा में कोई विशेष प्रगति होने के संकेत नहीं हैं. न्यायालय के निर्देषों के बाद भी उग्र भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेने की घटनाओं में कहीं कोई विशेष कमी नहीं आयी और लोग आज भी इस तरह की हिंसा का शिकार हो रहे हैं.

कभी स्वंयभू गोरक्षकों की हिंसा तो कभी किसी मां-बेटी को ‘डायन’ होने के संदेह में अंधविश्वासी लोग पीट पीट कर अधमरा कर रहे हैं तो कहीं मवेशी तो कहीं बच्चा चोर होने के संदेह में किसी व्यक्ति को इतना पीटा जा रहा है कि अंततः उसकी मृत्यु हो जाती है. कहीं मोटरसाइकिल चोर होने के संदेह में तो कहीं लस्सी के पैसे देने या फिर ढाबे पर किसी अन्य वजह से हुई तकरार की वजह से हिंसक भीड़ असहाय व्यक्ति की जान ले रही है.

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उग्र भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की घटनाओं और निर्दोष व्यक्तियों की पीट पीट कर हत्या के मामले में कानून के तहत कठोर कार्रवाई करने के बारे में न्यायालय ने रेडियो, टेलीविजन और गृह मंत्रालय व राज्यों की पुलिस महकमे की वेबसाइटों सहति दूसरे संचार माध्यमों पर जनता को सचेत करने के लिये केन्द्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिये थे. केन्द्र ने इस निर्देश पर अमल करने का आश्वासन भी दिया था लेकिन स्थिति में विशेष सुधार नहीं हुआ.

स्थिति यह हो गयी है कि झारखंड में चोरी के संदेह में उग्र भीड़ की हिंसा का शिकार हुये तबरेज अंसारी की पिटाई की वारदात के चंद दिनों के भीतर ही जहां प्रदेश के सिंहभूमि जिले में मां-बेटी के ‘डायन’ होने के अंधविश्वास में ग्रामीणों ने उनकी पिटाई करके जान ले ली तो दूसरी ओर पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में भी मोटरसाइकिल चोरी के संदेह में एक युवक को भीड़ ने पीट पीट कर मार डाला. कुछ महीने पहले ओडिशा में ग्रामीणों ने एक महिला और उसके चार बच्चों की हत्या कर दी थी क्योंकि उन्हें संदेह था कि यह महिला ‘डायन’ है जबकि पिछले महीने मथुरा में लस्सी के पैसों के भुगतान को लेकर हुई हिंसा में दुकानदार की मौत हो गई.

ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटनाओं में पुलिस और प्रशासन कार्रवाई नहीं कर रहा है. कानून में हाथ में लेने वालों के खिलाफ कार्रवाई भी हो रही है और उन पर अदालत में मुकदमे भी चले हैं. झारखंड के लातेहार की अदालत ने ही मार्च, 2016 में दो व्यक्तियों की पीट पीट कर हत्या के अपराध में पिछले साल दिसंबर में छह व्यक्तियों को सजा सुनायी थी.


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यह सही है कि भीड़ द्वारा लोगों की पीट कर हत्या की वारदातों में वृद्धि हुई है, लेकिन इस तरह की घटनाओं को सांप्रदायिक रंग देने की बजाय यह पता लगाना जरूरी है कि इनकी असली वजह क्या है. आखिर लोग अचानक ही किसी घटना को लेकर हिंसा का सहारा क्यों ले रहे हैं? यह भी पता लगाने की आवश्यकता है कि ऐसी घटनाओं के पीछे कहीं स्थानीय स्तर पर आपस में होने वाले झगड़ों से व्याप्त तनाव की भूमिका तो नहीं है?

यह भी जानने की आवश्यकता है कि स्थानीय स्तर पर छोटी-छोटी बातों को लेकर व्याप्त होने वाले तनाव का समय रहते सही परिप्रेक्ष्य में आकलन करने में कहीं पुलिस विफल तो नहीं रही? या फिर क्षेत्र की जनता या समूह को यह लगता हो कि संदिग्ध को पुलिस को सौंपने से कोई फायदा नहीं होगा? कारण चाहे जो भी हों लेकिन सभ्य समाज और कानून के शासन वाले राज्यों में किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती है.

स्वंयभू गौरक्षकों द्वारा कानून अपने हाथ में लेने की घटनाओं पर पिछले साल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी सख्त रुख अपनाया था और कहा था कि गौ भक्ति के नाम पर लोगों की हत्या स्वीकार्य नहीं है. राज्य सरकारों को ऐसे मामलों में तत्काल सख्त कार्रवाई करनी चाहिए लेकिन इसके बाद भी ऐसी घटनाएं हो रही हैं.

हालांकि ऐसी घटनाओं में हर बार न्यायपालिका ने हस्तक्षेप करके पीड़ित परिवार को राहत प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन सवाल है कि आखिर हम कब तब कानून व्यवस्था से जुड़े प्रशासनिक स्तर पर प्रभावी कार्रवाई के लिये न्यायपालिका की ओर ताकते रहेंगे. लगातार यही देखा जा रहा है कि खाप पंचायतें हों या फिर किसी न किसी विषय पर होने वाले आन्दोलनों के दौरान सरकारी और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की घटनायें हों या फिर बच्चियों से बलात्कार अथवा दूसरे जघन्य अपराध, हम सीधे न्यायपालिका की ओर ही देखते हैं.

न्यायपालिका भी प्रशासन और पुलिस की अकर्मण्यता पर चिंता व्यक्त करते हुये महत्वपूर्ण निर्देश देती है और फिर मामला धीरे धीरे शांत हो जाता है. इस तरह की घटनाओं पर कारगर तरीके से अंकुश पाने के लिये स्थानीय स्तर पर पुलिस को अधिक संवेदनशील और जवाबदेह बनाने के साथ ही स्थानीय स्तर पर खुफिया तंत्र, जो लगभग निष्प्रभावी ही लगता है, को चाक-चैबंद करने की आवश्यकता है.


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अगर पुलिस और खुफिया तंत्र मजबूत हो तो स्थानीय स्तर पर पनपने वाले असंतोष पर समय रहते काबू पाया जा सकता है. कई बार तो यही लगता है कि पुलिस का ढुलमुल रवैया ही अनेक समस्याओं और अपराधों को जन्म देने में अप्रत्यक्ष रूप से अपना योगदान दे रहा होता है.

उच्चतम न्यायालय ने महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी और कांग्रेस के नेता तहसीन पूनावाला की जनहित याचिका पर 17 जुलाई, 2018 को अपने फैसले में कहा था कि भीड़ द्वारा कानून अपने हाथ में लेने और गोरक्षा के नाम पर निर्दोष की पीट कर हत्या करने को बार्दश्त नहीं किया जायेगा. न्यायालय ने ऐसे अपराध का पता चलते ही तत्काल इसमें प्राथमिकी दर्ज करने और ऐसे मुकदमों की सुनवाई आरोप पत्र दाखिल होने के 6 महीने के भीतर पूरी करने का निर्देश दिया था.

यही नहीं, न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि लिंचिंग जैसे अपराधों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई भी बलात्कार के मुकदमों की तरह ही त्वरित अदालतों में ही होगी और दोषी पाये जाने वाले प्रत्येक अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की संबंधित धाराओं में प्रदत्त अधिकतम सजा दी जानी चाहिए.

लेकिन हाल की घटनाओं को देखने से तो यही लगता है कि न्यायालय के सख्त निर्देशों के बावजूद भीड़ द्वारा हिंसा करने और कानून अपने हाथ में लेने की घटनाओं पर काबू पाने में पुलिस और प्रशासन ज्यादा कामयाब नहीं हो रहा है.

प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने 17 जुलाई 2018 को तहसीन पूनावाला बनाम भारत सरकार प्रकरण में अपने फैसले में केन्द्र और राज्यों को ऐसे मामलों से निपटने के लिये एहतियाती कदम, उपचारात्मक कदम और दण्डात्मक कदम उठाने के निर्देश दिये थे.

एहतियाती कदमों के तहत राज्य सरकारों को प्रत्येक जिले में पुलिस अधीक्षक स्तर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को नोडल अधिकारी बनाने और भीड़ की हिंसक गतिविधियों की रोकथाम के लिये उनकी मदद के लिये पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारी तैनात करने का निर्देश दिया था. इस तरह की घटनाओं में संलिप्त होने की संभावना वाले समूहों के बारे में खुफिया जानकारी प्राप्त करने के लिये विशेष कार्यबल गठित करने और नोडल अधिकारी को अपने जिले के थाना प्रभारियों और खुफिया इकाई के साथ नियमित बैठक करके गोरक्षकों, उग्र भीड़ या पीट कर मार डालने की प्रवृत्ति वाले तत्वों की पहचान करने सोशल मीडिया या अन्य तरीके से उत्तेजना पैदा करने वाली सामग्री को प्रसारित होने से रोकने के लिये पुलिस उचित कदम उठाने का निर्देश दिया गया था.

न्यायालय के फैसले के तहत राज्य के पुलिस महानिदेशक और गृह विभाग के सचिव के लिये सभी नोडल अधिकारियों और पुलिस की खुफिया प्रमुखों के साथ तीन महीने में एक बार स्थिति की समीक्षा करनी जरूरी थी. न्यायालय ने कहा था कि इस तरह की घटनाओं के प्रति गृह मंत्रालय को राज्य सरकारों के साथ तालमेल करके कानून लागू करने वाली एजेंसियों को संवेदनशील बनाना होगा.

इस व्यवस्था में कहा गया है कि केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों का यह कर्तव्य है कि सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों पर ऐसे विस्फोटक संदेश, वीडियो और दूसरी इसी तरह की सामग्री को संप्रेषित होने से रोकने के उपाय करे जिनसे भीड़ द्वारा हिंसा करने या फिर किसी को पीट पीट कर मार डालने जैसा अपराध करने की प्रवृत्ति हो. उत्तेजना पैदा करने या फिर हिंसा के लिये उकसाने की संभावना वाले संदेश संप्रेषित करने वालों के खिलाफ पुलिस को भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए और अन्य उचित प्रावधानों के तहत प्राथमिकी दर्ज करनी होगी.

उपचारात्मक कदमों के अंतर्गत न्यायालय ने कहा था कि यदि स्थानीय पुलिस के संज्ञान में किसी व्यक्ति को पीट कर मार डालने या भीड़ द्वारा हिंसा करने की घटना आती है तो उस क्षेत्र की पुलिस के थाना प्रभारी भारतीय दंड संहिता के संबंधित प्रावधानों के तहत अविलंब प्राथमिकी दर्ज करके अपने नोडल अधिकारी को सूचित करेंगे जो यह सुनिश्चित करेंगे की पीड़ित परिवार को अनावश्यक परेशान नहीं किया जाये.

नोडल अधिकारी को इस तरह के अपराध की जांच की व्यक्तिगत रूप से निगरानी करनी होगी और वह यह सुनिश्चित करेंगे की प्राथमिकी दर्ज होने या आरोपी की गिरफ्तारी की तारीख से कानून में निर्धारित समयावधि के भीतर आरोप पत्र दाखिल हो.


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इस तरह की घटनाओं से पीड़ित परिवार को उचित मुआवजा दिलाने के उद्देश्य से न्यायालय ने राज्य सरकारों को इस निर्णय की तारीख से एक महीने के भीतर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 357ए के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुये लिंचिंग और भीड़ की हिंसा पीड़ित मुआवजा योजना तैयार करने का निर्देश दिया था. योजना में पीड़ित के परिवार को ऐसा हादसा होने के 30 दिन के भीतर अंतरिम मुआवजा देने की भी व्यवस्था करने का निर्देश दिया था.

ऐसे अपराधों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई के लिये प्रत्येक जिले में विशेष या त्वरित अदालतें होंगी. ये अदालतें दैनिक आधार पर इन मुकदमों की सुनवाई करेंगी और मामले का संज्ञान लेने की तारीख से यथासंभव छह महीने के भीतर इसे पूरा किया जायेगा. यह निर्देश पहले से लंबित मुकदमों पर भी लागू होगा.

दण्डात्मक कदमों के अंतर्गत ऐसे अपराधों और घटनाओं के प्रति ढुलमुल रवैया अपनाना या इन निर्देशों का पालन करने में विफल रहने वाले पुलिस अधिकारियों और जिला प्रशासन के अधिकारी के खिलाफ दण्डात्मक कार्रवाई के बारे में भी विस्तृत निर्देश दिये थे.

इस प्रकरण में 24 सितंबर, 2018 के बाद आगे की सुनवाई ही नहीं हुई है. हो सकता है कि अचानक ही झारखंड और पश्चिम बंगाल में हिंसक भीड़ की घटनाओं को देखते हुये निकट भविष्य में इस पर आगे सुनवाई हो.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.)

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