किसी भी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति मुख्य रूप से इस पर निर्भर करती है कि उसकी सामरिक नीति में गहराई है या नहीं है. यह आधार यानी ‘बेस’ से मोर्चों, जिन्हें टैक्टिकल बैटल एरिया (टीबीए) कहा जाता है, की दूरी कितनी है. सेना को सैनिकों, साजो सामान और संसाधन के मामले में मजबूती उसके ‘बेस’ से ही मिलती है. इन दोनों को जोड़ने के लिए उनके बीच की जगह से सड़कें, रेल पटरियां, संचार लाइन गुजरती हैं जिन्हें ‘कम्यूनिकेशन ज़ोन’ या ‘कॉम ज़ेड’ कहा जाता है. इस ज़ोन में वे साधन और प्रशासनिक व्यवस्थाएं होती हैं जो टीबीए तथा आबादी क्षेत्र में मौजूद सेना की मदद करती हैं. इस ज़ोन की गहराई और उसके अंदर मौजूद मूल्यवान लक्ष्य यह तय करते हैं कि देश प्रतिकूल स्थिति का सामना करने पर ‘समय बिताने’ की रणनीति अपना सकता है या नहीं.
रणनीति की गहराई या उसकी कमी
द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने जब जून 1941 में सोवियत संघ के खिलाफ ‘ऑपरेशन बार्बारोसा’ शुरू किया था तब रूसियों ने जर्मन सेना को तेजी से आगे बढ़ने से रोकने के लिए अपनी रणनीतिक गहराई का पूरा इस्तेमाल किया था. रूसियों को पीछे भागने पर मजबूर होना पड़ा था और लौटते हुए उन्होंने फसलों और मवेशियों से लेकर कारखानों और सैन्य महत्व की सभी चीजों को जला डाला था ताकि जर्मन सेना को ‘कॉम ज़ेड’ में टिकना मुश्किल हो जाए. नतीजतन, जर्मन सेना का संचार तंत्र, जर्मन मुख्य भूमि में उसका ‘बेस’ दूर से दूर होता गया और अंततः पहुंच से दूर हो गया. उन्हें रूस की भयानक ठंड के कारण घुटने टेकने पड़े. ‘समय बिताने’ की सुविधा ने रूसियों को फिर से अपनी ताकत बटोरने, अपना औद्योगिक उत्पादन शुरू करने और फिर पूरी तरह तैयार होकर हमला करने का मौका दे दिया.
लेकिन जो देश आकार में बड़ा नहीं है वह रणनीतिक गहराई कैसे हासिल करे? ऐसे देश को यह गहराई अपने पड़ोसी देश या साम्राज्य में कृत्रिम रूप से बनानी पड़ेगी. महान मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी ने पहली बार इस रणनीतिक का इस्तेमाल किया था, जब कि इसे पूरी तरह शायद तैयार भी नहीं किया था. मुगल फौज की जोरदार ताकत से सामना होते ही प्रतिकूल हालात के खिलाफ हथियार डाल देने की जगह वे छापामार युद्ध शैली का इस्तेमाल करते हुए पड़ोसी बीजापुर के इलाके में छिप जया करते थे.
1980 के दशक के शुरू में, पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ इस रणनीति का इस्तेमाल करने के लिए अफगानिस्तान की ओर देखना शुरू कर दिया था. इसका विचार इस्लामाबाद के उसकी नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी में पहली बार उभरा. यही मुख्य वजह थी उसने अफगानिस्तान के अंदरूनी मामलों में दखल देना शुरू कर दिया था ताकि काबुल में अपने प्रति हमदर्द निजाम को कायम करा सके. लेकिन ऐसा लगता है कि उसकी योजना सफल नहीं हुई. अफगानिस्तान से सटे उसके पश्चिमी मोर्चे पर हालात विस्फोटक बने हुए हैं और तालिबान ने दिखा दिया है कि वे कोई कठपुतली सरकार नहीं हैं. फिर भी, यह आपदा योजना पाकिस्तान की रणनीतिक जोड़तोड़ का हिस्सा बना हुआ है.
और तब क्या हो जब कोई देश रणनीतिक गहराई भी नहीं हासिल कर सकता और दोस्ताना पड़ोसी भी नहीं? ऐसी स्थिति में यह गहराई वह अपनी सीमाओं से बाहर के इलाकों पर कब्जा करके हासिल कर सकता है. इजरायल इसकी मिसाल है. 1967 के छह दिन के युद्ध के बाद वह सिनाइ प्रायद्वीप पर कब्जा जमाए रहा, क्योंकि इससे उसे दक्षिण में मिस्र से किसी अचानक हमले के खिलाफ रणनीतिक गहराई का लाभ मिल सकता था. इस कब्जे ने 1973 के योम किप्पुर युद्ध में जोरदार फायदा कराया, जब इजरायली सेना ने मिस्र की सेना को सिनाइ के अंदर मितला और गीड़ी दर्रों में रोक दिया था. यह कब्जा 1982 तक कायम रहा, जब इजरायल ने 1979 के मिस्र-इजरायल शांति समझौते के बाद सिनाइ को मुक्त कर दिया. इसी तरह, इजरायल उत्तर में गोलन हाइट्स पर कब्जा जमाए है, जिसे उसने सीरिया के साथ छह दिन की लड़ाई में कब्जे में लिया था. इसके अलावा इजरायल जॉर्डन नदी के पश्चिमी तट पर 5,800 वर्ग किमी जमीन पर काबिज है. यह उसे बेहद जरूरी गहराई देता है क्योंकि यह ईस्ट-वेस्ट से मात्र 15 किमी की दूरी पर है.
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भारत की मुश्किल
भारत खुशनसीब है कि उसका भौगोलिक आकार बड़ा है और पूरे देश में औद्योगिक केन्द्रों, बड़े शहरों, सड़कों और रेलों का जाल बिछा है. लेकिन कई लुभावने ठिकाने ‘टीबीए’ के दायरे से काफी नजदीक है जिन्हें दुश्मन सेना हमले के शुरू मेनिन ही निशाना बना सकती है. इसलिए भारत को अपने संभावित दुश्मनों, उत्तर में चीन और पश्चिम में पाकिस्तान के मद्देनजर अपनी रणनीति को संवारना होगा. इन दोनों के खिलाफ सीमाओं पर अलग-अलग तरह के क्षेत्र के लिए ऑपरेशन के लिहाज से इलाके, रणनीतिक महत्व और नुकसान के राजनीतिक प्रभावों के मद्देनजर अलग-अलग रणनीति बनानी पड़ेगी.
पश्चिमी मोर्चे पर हम रेगिस्तानी इलाके में समय बिताने की सुविधा ले सकते हैं, और दुश्मन को खासकर पानी जैसे प्राकृतिक संसाधन के अभाव में हिम्मत हारने पर मजबूर कर सकते हैं. लेकिन उत्तरी मोर्चे के लिए यह लागू नहीं हो सकता. यहाँ आबादी के बड़े इलाके हैं जो राजनीतिक तथा धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, जैसे अमृतसर, जो अंतरराष्ट्रीय सीमा से करीब 30 किमी ही दूर है और दुश्मन की लंबी दूरी तक मार करने वाली तोप की जद में है. उसे किसी भी कीमात पर बचाना ही होगा. इसे हारना देश-विदेश में भारत की प्रतिष्ठा को भारी चोट पहुंचाएगा. दोनों सेक्टरों, रेगिस्तानों, मैदानी इलाकों के लिए सैन्य रणनीति अलग ही होगी.
उत्तर में, भारत की 3,000 किमी सीमा तिब्बत से जुड़ती है, जिस पर चीन ने 1950 के दशक से कब्जा जमा रखा है. यहां भी उत्तरी, मध्यवर्ती, पूर्वी सेक्टरों में सीमा की रक्षा के लिए रणनीति अलग-अलग होगी. 2020 के गलवान झगड़े के बाद से चीन और भारत, दोनों की सेनाओं ने अपनी-अपनी स्थिति मजबूती से थाम ली है और आगे बढ़कर तैनात हो गई हैं. कोई भी पक्ष टस से मस होने को राजी नहीं है. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की सीमा पर मध्यवर्ती सेक्टर में, धार्मिक महत्व के कई स्थल मौजूद हैं जिन्हें भी पूरी तरह अपने कब्जे में रखना है. पूर्वी सेक्टर में सिककिन और तवांग के लिए भी याहे बात लागू होती है. समय बिताने की गुंजाइश केवल पूर्वी अरुणाचल प्रदेश की दूसरी घाटियों में ही है. लेकिन यह उपाय सोच-समझकर अपनाना पड़ेगा क्योंकि चीन का दावा है कि यह दक्षिण तिब्बत का हिस्सा है. इस दावे पर उसने अभी 28 अगस्त को अपनी ओर से एक नक्शा जारी करके और ज़ोर दिया है.
सार यह है कि भारत का भौगोलिक आकार भले बड़ा है लेकिन घरेलू मजबूरीयों के कारण उसकी रणनीतिक गहराई बहुत काम की नहीं है. इसलिए उसे अचानक होने वाले पहले हमले को नाकाम करने के लिए लगभग हर मोर्चे पर हमेशा आगे बढ़कर सेना को तैनात रखना पड़ेगा. तकनीक के मामले में उसने तरक्की तो की है लेकिन इसके लिए उसे मोर्चों पर पर्याप्त संख्या में फ़ौजियों की तैनाती करनी ही पड़ेगी.
जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)
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