अफगानिस्तान में जो नया मोड़ आया है वह हमारी रणनीतिक संस्कृति के एक बड़े विरोधाभास को उजागर कर रहा है. हमारे उपमहादेश में और उसके बारे में जो विमर्श चल रहा है वह इतिहास से इतना बोझिल है कि भूगोल उपेक्षित हो गया है. याद रहे कि भू-राजनीति और भू-रणनीति में ‘भू’ यानी भूगोल ही पहले आता है.
इससे एक अहम सवाल उभरता है- क्या इतिहास भूगोल को आकार प्रदान करता है? या इसका उलटा होता है? यह ‘पहले अंडा या पहले मुर्गी?’ जैसा ही सवाल है. लेकिन हकीकत यह है कि पश्चिम से हमें जो बड़ी रणनीतिक चुनौती मिलती रही है उसमें भूगोल ही इतिहास को स्वरूप प्रदान करता रहा. हमें जो कहना पड़ रहा है, हम उसकी व्याख्या पेश कर रहे हैं और तब यह बता रहे हैं कि यह सब क्यों बदल सकता है और इस उपमहादेश के भविष्य में भूगोल की अहमियत क्यों खो सकती है.
इस तर्क का मुख्य आधार यह है कि भूगोल अफगानिस्तान के लिए एक रणनीतिक अभिशाप, पाकिस्तान के लिए एक वरदान, तो भारत के लिए मुद्दे से भटकाव का मामला रहा है. इसकी वजहें हैं-:
1. अफगानिस्तान हमेशा से एक बेहद गरीब, ठेठ रूढ़िवादी, क़बायली, बिखरी-बिखरी रिहाइश वाला, ढीले-ढाले शासन वाला, चारों तरफ से एक-दूसरे से लड़ती महाशक्तियों से घिरा मुल्क रहा है. ये सब मिलकर उसे महाशक्तियों की लड़ाई का अखाड़ा बना देते हैं, जिसमें नुकसान तो बेहिसाब होता है, फायदा कुछ भी नहीं होता.
2. 19वीं सदी में साम्राज्यवादी ब्रिटेन और ज़ार के रूस, 20वीं सदी में सोवियत संघ और अमेरिका, अमेरिका और इसके नये वैश्विक प्रतिद्वंद्वी, और राज्यविहीन मगर देशव्यापी अल-क़ायदा के बीच यह पिसता रहा है. पहले दो मामलों में, सोवियत संघ के सबसे नरम, इस्लामी, मध्य एशियाई क्षेत्र के भौगोलिक रूप से करीब होना इसके लिए एक बोझ बन गया. फिर यह अमेरिका की शह पर हमलावर मुजाहिदीनों और सोवियत संघ के बीच लड़ी गई बड़ी लड़ाइयों का मलबा बन गया. यह लड़ाई विजयी इस्लामी बागियों और आतंकवादियों को वहां छोड़ गई. उनमें से कुछ ने तालिबान का गठन कर लिया. इसने अपने बहुराष्ट्रीय भाइयों के साथ मिलकर दुनिया को फतह करने का फैसला कर लिया. आखिर सुदूर स्थित और नज़रों से ओझल अफगानिस्तान जैसा अड्डा जो उनके पास था! इसकी भौगोलिक स्थिति ने इसे महान खेल, शीतयुद्ध, और आतंकवाद के खिलाफ जंग में बलि का बकरा बना दिया. रणनीतिक अभिशाप इसे ही तो कहते हैं.
इस ‘महान खेल’ से पाकिस्तान अछूता रहा क्योंकि वह 1947 में ही अस्तित्व में आया और पश्चिम में उसे वही सरहदें विरासत में मिलीं, जो औपनिवेशिक भारत की सरहदें थीं. भूगोल ने उसे अग्रिम मोर्चे का देश इसलिए बना दिया क्योंकि उसकी लंबी सरहदें अफगानिस्तान के साथ जुड़ी हुई थीं, दोनों मुल्कों के मजहब एक थे, उनमें क़बायली रिश्ते थे, अफगानिस्तान तक पहुंच आसान है, जो कि सोवियत संघ की सीमा पर है और महाशक्तियों के लिए एक रणक्षेत्र था. अमेरिका 1950 के दशक से ही इसे अपने अग्रिम मोर्चे का देश बना चुका था और उसे अपनी सैन्य संधियों में शामिल कर चुका था. यहां तक कि वह सोवियत संघ के ऊपर अपने यू-2 खुफिया विमान पेशावर से उड़ाया करता था. 1960 में रूसियों ने जिस यू-2 विमान को मार गिराया था और उसके पाइलट फ्रांसिस गैरी पावर्स को बंदी बनाया था वह विमान पेशावर से ही उड़ान भरा करता था. अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी ब्लॉक में पाकिस्तान का उपयोग दुनिया के नक्शे में सिर्फ उसकी स्थिति की वजह से था.
इसका महत्व 1971 में तब दोगुना बढ़ गया जब चीन के साथ इसकी भौगोलिक और राजनीतिक नजदीकी ने इसे छलांग लगाने वाला मंच, और चीन की ओर हाथ बढ़ाने की निक्सन-किसिंजर पहल में मध्यस्थ बना दिया. 1979 में सोवियत संघ ने जब इस पर हमला कर दिया और यह शीतयुद्ध का मैदान बन गया तब इसी भूगोल ने पाकिस्तान पर रणनीतिक तोहफों की बरसात कर दी.
अमेरिका फिर तोहफे लेकर आ पहुंचा और विनाशकारी उथलपुथल का वह सबसे गंदा खेल शुरू हो गया जिसमें आईएसआई के उसके चेलों ने गुरु से ज्यादा महारत हासिल कर ली.
शीतयुद्ध में विजय, और अफगानिस्तान में पराजय के बाद सोवियत संघ का विघटन ठीक तीन दशक पहले शुरू हो गया. इतिहास बदलने वाली भू-रणनीतिक नेमत पाकिस्तान के हाथ से फिसल गई. करीब एक दशक तक अमेरिकी विश्वदृष्टि में उसकी अहमियत घटती गई. ठीक इसी समय भारत के प्रति अमेरिका की गर्मजोशी बढ़ने लगी और इस उपमहादेश के मामले में अपनी नीति में वह भारत को जोड़ने लगा. लेकिन अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण पाकिस्तान की खुशकिस्मती ठीक एक दशक बाद फिर तब जाग उठी जब विमानों ने न्यू यॉर्क में दो टावरों को ध्वस्त कर दिया और इस हमले के मास्टरमाइंड तथा उनके नेटवर्क का अड्डा उस क्षेत्र में पाया गया जिसे आज ‘अफ-पाक’ कहा जाता है. पाकिस्तान के लिए अमेरिकी तोहफा-गाड़ी फिर चल पड़ी थी.
* 1947 के बाद भूगोल ने भारत को कहां पहुंचाया और हम इसे अपने रणनीतिक सोच का सबसे बड़ा भटकाव क्यों कहते हैं? भारत को विरासत में 15,000 किलोमीटर की जमीनी सरहदें मिलीं. जिस दिन वह आज़ाद हुआ उसी दिन से इन सरहदों में से आधी तो पाकिस्तान के साथ जुड़ी हुई थीं, जो पहले दिन से ही हमारा सैन्य प्रतिद्वंद्वी था. इसमें आज ज्यादा फर्क नहीं आया है, सिवा इसके कि पूर्वी सीमा पर दोस्ताना बांग्लादेश बन गया है. लेकिन भारत का रणनीतिक सोच पूरी तरह जमीनी सरहदों पर केंद्रित हो गया.
इन सरहदों पर कई छोटी-बड़ी लड़ाइयां लड़ी गईं, ज़्यादातर जमीन के छोटे टुकड़ों के लिए, वह भी शायद ही मिले. इसलिए हमारा रणनीतिक सोच जमीनी सरहदों पर केंद्रित हो गया. हमारे दिमाग में बराबर पाकिस्तान, आतंकवाद, चीन ही घूमता रहा और हम जवाबी तथा रक्षात्मक कार्रवाई करते रहे.
हम इसे भटकाव, वह भी भयानक भटकाव इसलिए कहते हैं कि इसने हमारा ध्यान भारत की 7,500 किमी से ज्यादा लंबी समुद्री सीमा की ओर से हटा दिया. इसे इस तरह देखें. हमारी जमीनी सरहदें एक सैन्य खतरे के रूप में स्थायी रणनीतिक बोझ बन गई. इसने हमारी विविध समुद्री सीमाओं से हमारा ध्यान हटा दिया जबकि दुनिया के कुछ सबसे महत्वपूर्ण समुद्र मार्ग इनसे होकर गुजरते हैं. इनके पूरब और पश्चिम में विशाल ‘एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक ज़ोन’ (EEZ) और समृद्ध द्वीप स्थित हैं, जो अदभुत अवसरों के स्रोत हैं. 75 वर्षों से भारत का रणनीतिक सोच एक ऐसे खतरे को लेकर इतना परेशान रहा कि अपने अवसरों के लिए उसके पास समय ही नहीं था.
हमने यह कहना क्यों शुरू कर दिया कि अफगानिस्तान में ताजा परिवर्तन सभी तीनों पक्षों के लिए बदलाव ला सकता है? यह अफगानिस्तान को अपने भौगोलिक अभिशाप से कैसे मुक्त करेगा, पाकिस्तान को उसकी नेमत से कैसे वंचित करेगा, और भारत को उसके भटकाव से कैसे छुटकारा दिलाएगा?
रूस अब एक ताकत है और अफगानिस्तान में उसका दांव सिर्फ यह सुनिश्चित करना है कि तालिबानी वायरस, या अमेरिका जिसे ‘स्टैन्स’ कहता है वह चीज मध्य एशियाई गणतंत्रों में न पहुंच जाए. रूस से या चीन से लड़ने के लिए अब किसी को अफगानिस्तान जाने की जरूरत नहीं है. चीन की भी वैसी ही चिंताएं हैं जैसी रूस की है— शिंजियांग और इसके मुस्लिम ऊईगरों को इस वायरस से बचाए. वह अफगानिस्तान में अब कोई ‘पावर गेम’ खेलना नहीं चाहता.
यह आतंकवाद के खिलाफ जंग में अग्रिम मोर्चे वाले देश या ‘अग्रणी सहयोगी’ के रूप में पाकिस्तान की हैसियत को खत्म करता है. अपने अनाड़ीपन और अयोग्यता के कारण जो बाइडन ने खुद चाहे जितनी बदनामी मोल ली हो, वे पाकिस्तान को शुक्रिया नहीं कहने जा रहे और न तालिबान को 100 एफ-16 विमान देने जा रहे हैं कि वह उन्हें इतनी बुरी तरह हरा दे.
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दूसरी ओर, अगर अफगानिस्तान फिर संभलता है तो पाकिस्तान को अपनी फिक्र करनी पड़ेगी. तब चीन भी अपनी विशाल ‘सीपीईसी’ परियोजना में अपने निवेशों की खातिर अफगानिस्तान में स्थिरता ही चाहेगा. वह पाकिस्तान से यही चाहेगा कि वह अपने आतंकी गुटों को रणनीतिक गहराई देने के लिए अफगानिस्तान का उपयोग करके उसे चोट न पहुंचाए और ऐसा बहाना न करे कि ओह, हमें तो पुलवामा के बारे में पता ही नहीं था. उसने ताजा किताब ‘स्पाइ स्टोरीज़ : इनसाइड द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ द रॉ ऐंड द आइएसआइ’ के लेखकों एड्रीयान और स्कॉट-क्लार्क से यही कहा कि उस कांड की साजिश जैश ने हेलमंद में बनाई थी.
अपनी भूलों से सबक लेने के मामले में पाकिस्तान का रेकॉर्ड कोई अच्छा नहीं रहा है. लेकिन वहां किसी को समझ में आ जाना चाहिए कि अंतिम बार उसने जब ऐसा किया (करीब एक सप्ताह पहले), तब तालिबान ने अपनी रणनीतिक मजबूती के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल किया.
पाकिस्तान, और तालिबानी शासन वाले अफगानिस्तान के बीच एक नया ‘टेररिस्तान’ उभरने को लेकर भारत में काफी अफरातफरी और दहशत जैसी है. पाकिस्तान में ऐसा कुछ बनाने की आर्थिक, कूटनीतिक, भू-रणनीतिक या सैन्य क्षमता शून्य है. अगर वह इसकी कोशिश करेगा तो भारत के लिए बहुत अच्छी खबर होगी क्योंकि इस तरह वह फिर खुदकशी ही करेगा. शीतयुद्ध के पहले चरण में इस भौगोलिक नेमत ने 1971 में उससे उसके आधे मुल्क के रूप में कीमत वसूल की थी. दूसरे चरण (1979-91) में उसने अपनी नई जम्हूरियत, अपनी संस्थाओं को बरबाद किया और इस्लामीकरण को बुलावा दिया.
उथलपुथल वाले उन वर्षों में उसकी प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा 1990 में भारत के इस आंकड़े से 60 फीसदी ज्यादा था (पीपीपी आधार, विश्व बैंक डेटा). आज भारत पीपीपी आधार पर भारत के प्रति व्यक्ति जीडीपी का आंकड़ा उसके आंकड़े से 32 फीसदी ज्यादा है. यह तब है जब भारत ने पिछले दो वर्षों में इस अंतर को कम करने के लिए कड़ी मेहनत की है. 1971 में पाकिस्तान से जो देश अलग हुआ, उस बांग्लादेश का औसत नागरिक आज आज़ादी के बाद इस उपमहादेश में बने तीन देशों के औसत नागरिकों में सबसे ज्यादा समृद्ध है. अमेरिकी कृपा से वंचित पाकिस्तान में अफगानिस्तान के जरिए भारत को खतरा पहुंचाने में बिलकुल अक्षम है. उसे अपने पश्चिमी इलाकों को बचाकर रखने में भी मुश्किल होगी.
इसीलिए हम कहते हैं कि अफगानिस्तान के इतिहास में आए नये मोड़ ने हमारे क्षेत्र में भूगोल की अहमियत को बदल दिया है. भारत पाकिस्तान को लेकर अपनी खब्त को परे रखे, फिलहाल अफगानिस्तान को भी भूल जाए और जमीनी खतरों को भूलकर अपनी समुद्री शक्ति तथा अवसरों पर ध्यान केंद्रित करे. 75 वर्षों में अब जाकर भारत के लिए अपनी रणनीतिक नज़र उत्तर से दक्षिण की ओर मोड़ने का सबसे अच्छा मौका मिला है.
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