पिछले आठ वर्षों में लुटियंस के मीडिया ने यह सबक तो सीख ही लिया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फैसलों के बारे में अटकलें लगाने की कोशिश मत कीजिए और अगर सत्ताधारी भाजपा का कोई शख्स आपको यह कहे कि मोदी के मन को समझता है, तो उसके दावे को हल्के से ही लीजिए. वैसे लोग जो दावा करें उसे खबर मत बना दीजिए. उनकी बातों को आप अनुमानों के रूप में ही ले सकते हैं.
शनिवार को भाजपा संसदीय बोर्ड (यानी मोदी) ने उपराष्ट्रपति पद के लिए जगदीप धनखड़ को पार्टी उम्मीदवार बनाने का फैसला किया तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ. वैसे भी हर किसी को अप्रत्याशित होने की ही उम्मीद थी. राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू को भी इसी तरह उम्मीदवार घोषित करके आश्चर्य में डाला गया था. उप-राष्ट्रपति पद के लिए कुछ सर्वज्ञ लोग शनिवार तक मुख्तार अब्बास नक़वी को उम्मीदवार बता रहे थे.
धनखड़ और उनके साथ जुड़ी राजनीति
मोदी युग में ज्ञान बाद में आता है. आज हमें समझ में आ रहा है कि मुर्मू और धनखड़ के सिवा दूसरे नाम क्यों नहीं हो सकते थे.
पश्चिम बंगाल के राज्यपाल का नाम उप-राष्ट्रपति पद के लिए कितना सटीक बैठता है! भाजपाई मुख्यमंत्रियों में जो हस्ती योगी आदित्यनाथ की है वही हस्ती राजभवनों के स्वामियों में धनखड़ की है. दोनों ही प्रेरणा के बड़े स्रोत हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को धनखड़ ने जितना परेशान किया होगा उतना शायद भाजपा के सभी नेताओं ने मिलकर भी नहीं किया होगा.
फरवरी में, राज्य सरकार के एक वरिष्ठ नौकरशाह ने राजभवन को पत्र लिखा जिसमें विधानसभा का सत्र बुलाने की तारीख दी गई थी. राजभवन ने उसे जवाब देकर उसकी योग्यता पर सवाल उठा दिया. बाद में, राज्यपाल ने 6-7 मार्च की रात दो बजे विधानसभा का सत्र शुरू करने की राज्य मंत्रिमंडल की सिफ़ारिश को मंजूर करते हुए ट्वीट किया कि ‘रात दो बजे विधानसभा की बैठक बुलाना असामान्य, और इतिहास रचने जैसी बात है लेकिन आखिर यह मंत्रिमंडल का फैसला है!’ राज्य के मुख्य सचिव ने राज्यपाल को लिखकर अनुरोध किया कि टाइपिंग की गलती के कारण ‘2 एएम.’ लिखा गया था, कृपया उसे ‘2 पीएम’ किया जाए. राजभवन ने मना कर दिया और कहा कि मुख्य सचिव ऐसा परिवर्तन करने का अनुरोध करने की योग्यता नहीं रखते. परेशान ममता बनर्जी ने राज्यपाल को फोन करके यह अनुरोध किया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. राज्य मंत्रिमंडल को फिर बैठक करनी पड़ी और दूसरी सिफ़ारिश भेजनी पड़ी कि राज्यपाल विधानसभा की बैठक 2 बजे रात की जगह 2 बजे दोपहर में बुलाएं.
जब राज्य विधानसभा सचिवालय ने मुख्यमंत्री को राज्य के विश्वविद्यालयों का चांसलर बनाने का विधेयक राज्यपाल के पास भेजा तो उन्होंने उसे लौटा दिया क्योंकि जानकारियां ‘अधूरी’ थीं. विधानसभा सचिवालय से कहा गया कि इस विधेयक पर सदन में जो बहस हुई उसका अंग्रेजी टेप भेजे. जाहिर है, जगदीप धनखड़ बंगाल के मंत्रियों और नौकरशाहों को संविधान और क़ानूनों का थोड़ा पाठ पढ़ा रहे थे. उन्हें सुप्रीम कोर्ट में दो से ज्यादा दशकों तक एक ऐसे वरिष्ठ वकील के रूप में जाना जाता रहा जिसकी योग्यता को कमतर आंका जाता रहा.
इसलिए, मोदी जानते हैं कि विपक्षी दल जब अपनी आदत के अनुसार राज्यसभा में नियमों का हवाला देने लगेंगे तब धनखड़ कितने काम के साबित हो सकते हैं. दोनों पक्षों में उनके दोस्तों की संख्या भी काम में आ सकती है. कोलकाता राजभवन के अधिकारी आपको बता सकते हैं कि ममता बनर्जी से उनकी निरंतर मुठभेड़ भले होती रही लेकिन दोनों के बीच फोन पर 10-15 मिनट से कम बात नहीं होती थी, या उनकी मुलाक़ात 100 मिनट से कम नहीं चलती थी. दोनों के बीच लगभग रोज लिखित संदेशों का आदान-प्रदान चलता रहता था.
इसलिए, दोस्तों-दुश्मनों के साथ संवाद बनाए रखने का कौशल धनखड़ को उप-राष्ट्रपति बनने के बाद बहुत काम आएगा. वे बिलकुल काम के आदमी हैं. इसी तरह, द्रौपदी मुर्मू भी राष्ट्रपति के रूप में, एक सजावटी राष्ट्रपति के रूप में उपयुक्त साबित हो सकती हैं.
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मोदी के मिशन 2024 में मुर्मू और धनखड़ उपयोगी
इन दोनों की नामजदगी और उनका अपेक्षित निर्वाचन के साथ 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए मोदी की तैयारियों का श्रीगणेश हो जाएगा. प्रतीकात्मकता के लिहाज से दोनों का कई राज्यों में राजनीतिक महत्व है. उप-राष्ट्रपति के रूप में राजस्थान के एक प्रमुख जाट नेता धनखड़ का नाम भाजपा को दूसरे राज्यों, खासकर हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी जाटों की ओर हाथ बढ़ाने में सहायक बन सकता है. अब भाजपा आलाकमान की चहेती न रहीं राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने भले धनखड़ को पार्टी में वर्षों तक हाशिये पर डाल रखा था मगर इससे वे मोदी-शाह की नज़रों में कम महत्वपूर्ण नहीं हो जाते. वसुंधरा की तुलना में वे इन दोनों के प्रति कहीं ज्यादा वफादार रहे हैं.
भारत के राष्ट्रपति के रूप में एक आदिवासी चेहरा, द्रौपदी मुर्मू 2024 लोकसभा चुनाव से पहले करीब दर्जनभर विधानसभाओं के चुनाव में जोरदार काम आ सकती हैं. अनुसूचित जनजातियों की आबादी गुजरात में 14.8 फीसदी है, तो हिमाचल प्रदेश में 5.7 फीसदी है. इन दोनों राज्यों में इसी साल चुनाव होने हैं. अगले साल जिन नौ राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें से चार उत्तर-पूर्व में हैं, जहां जनजातियां निर्णायक भूमिका निभाती हैं. नागालैंड (जनजातीय आबादी 86.5 फीसदी), मेघालय (86.1 फीसदी), और त्रिपुरा (31.8 फीसदी) में फरवरी में चुनाव होंगे, तो मिज़ोरम (94.4 फीसदी) में नवंबर में होंगे. कर्नाटक में जनजातीय आबादी 7 फीसदी है, जहां अगले साल मई में चुनाव होंगे. नवंबर में जिन चार राज्यों में चुनाव होंगे उनमें छत्तीसगढ़ में जनजातीय आबादी 23 फीसदी है, मध्य प्रदेश में 21.1 फीसदी, राजस्थान में 13.5 फीसदी, और तेलंगाना में 9 फीसदी है. मुर्मू के अपने राज्य में जनजातीय आबादी 23 फीसदी है, और वहां विधानसभा चुनाव 2024 में लोकसभा चुनाव के साथ ही होगा.
झारखंड में जनजातीय आबादी 26 फीसदी है, जहां 2017 में राज्यपाल के रूप में मुर्मू ने उन भूमि किराया कानूनों में प्रस्तावित दो संशोधनों को रोक दिया था जिन कानूनों के चलते जमीन और प्राकृतिक संसाधनों पर जनजातियों के अधिकार कमजोर होते थे. झारखंड में नवंबर 2024 में चुनाव होंगे. महाराष्ट्र में उस साल अक्टूबर में चुनाव होंगे, जहां जनजातीय आबादी 9 फीसदी है. हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव साथ-साथ होंगे.
कोई सवाल उठा सकता है कि क्या राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति सत्ताधारी दल की चुनावी संभावनाओं को मजबूत करने में कोई भूमिका निभा सकते हैं? इसका जवाब मुश्किल है. 2017 में, उत्तर प्रदेश के दलित (कोरी उप-जाति) नेता रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति बने. सीएसडीएस-लोकनीति के चुनाव-बाद सर्वे के मुताबिक, भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को जाटव मतदाताओं के वोट प्रतिशत का आंकड़ा 2017 में 8 से बढ़कर 2022 में 22 पर पहुंच गया और उसी अवधि में गैर-जाटवों के वोट 32 फीसदी से 41 फीसदी हो गए.
लेकिन इन आंकड़ों से कोई निष्कर्ष निकालना मुश्किल है क्योंकि बसपा के वोट प्रतिशत में गिरावट आई. सपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को मिले दलित वोटों का आंकड़ा उसी अवधि में जाटव वोटों के मामले में यह 3 फीसदी से 9 फीसदी और गैर-जाटव वोटों के मामले में 11 फीसदी से 23 फीसदी हो गया. इसके अलावा, वेंकैया नायडू का उप-राष्ट्रपति बनना 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को आंध्र प्रदेश में कोई फायदा नहीं पहुंचा सका था. भाजपा को वहां एक भी सीट नहीं मिली थी, जबकि वेंकैया नायडू भी चंद्रबाबू नायडू की तरह कम्मा समुदाय के थे. सीएसडीएस-लोकनीति के चुनाव-बाद सर्वे के मुताबिक, टीडीपी और जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआरसीपी ने मिलकर 95 फीसदी कम्मा वोटों पर कब्जा कर लिया.
कहा जा सकता है कि भारत के राष्ट्रपति की पहचान चुनाव को प्रभावित कर सकती है, तो 2012-17 के बीच प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति पद पर होने से पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की वापसी होनी चाहिए थी. इसी तरह, हामिद अंसारी जब 2007 से 2017 तक उप-राष्ट्रपति थे तब उत्तर प्रदेश में और कम-से-कम मुसलमानों में तो कांग्रेस की स्थिति जरूर मजबूत हो जानी चाहिए थी. कांग्रेस के लिए दूसरे राज्यों में तो क्या, न तो पश्चिम बंगाल में ऐसा कुछ हुआ और न उत्तर प्रदेश में.
मोदी-शाह की भाजपा बेशक कांग्रेस नहीं है. विपक्ष ने राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति पदों के लिए जिन्हें उम्मीदवार बनाया है उन यशवंत सिन्हा और मारग्रेट अल्वा पर नज़र डालिए. सिन्हा कायस्थ समुदाय के हैं और अपने ही राज्य झारखंड में वे भाजपा के वोट बैंक में शायद ही कोई सेंध लगा सकते हैं, जबकि ईसाई समुदाय की अल्वा अपने राज्य कर्नाटक में भी शायद ही कोई राजनीतिक अहमियत रखती हैं.
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