scorecardresearch
Thursday, 2 May, 2024
होममत-विमतBJP के लोग अशोक स्तम्भ के शेरों की ही नहीं, भगवान राम की छवि को भी रौद्र बनाने की कोशिश कर चुके हैं

BJP के लोग अशोक स्तम्भ के शेरों की ही नहीं, भगवान राम की छवि को भी रौद्र बनाने की कोशिश कर चुके हैं

भारत की आत्मा की सौम्यता, ‘सत्यमेव जयते’ का धैर्य और साहस भी इस नये स्तम्भ में एकसार नहीं ही हो पाए हैं, जबकि किसी भी देश का राष्ट्रीय प्रतीक उसके मूल चरित्र का परिचायक होता है.

Text Size:

नये संसद भवन की छत पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा उद्घाटित विशालकाय अशोक स्तम्भ के सिंहों की रौद्रता को लेकर दी जा रही सफाइयों के बारे में बस यही कहा जा सकता है कि काश, वे काबिल-ए-एतबार होतीं! लेकिन उन्हें काबिल-ए-एतबार न रहने देने का गुनाह अकेले प्रधानमंत्री या उनकी सरकार का ही नहीं है. प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने तो महज इतना भर किया है कि हिन्दू धर्म के धीर-गम्भीर, शांत और आश्वस्तिकारी प्रतीकों को रौद्र रूप देने की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों की कवायदों को राष्ट्रीय प्रतीकों तक ला पहुंचाया है.

इसे यों समझा जा सकता है कि अपने राम मन्दिर आन्दोलन के सुनहरे दौर में विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या समेत देशदेशांतर में लोकप्रिय भगवान राम की श्रीरामपंचायतन वाली धीर, वीर और गंभीर छवि को श्रीलंका पर चढ़ाई से पहले सेतुबंध के वक्त ‘दुष्ट’ समुद्र पर कोप वाली छवि से, जिसमें में गुस्से में धनुष पर बाण चढ़ाते दिखते हैं, प्रतिस्थापित करने में कुछ भी उठा नहीं रखा. यह और बात है कि वह उसमें बहुत सफल नहीं हो पाई. प्रसंगवश, अयोध्या का अतीत गवाह है कि उसमें भगवान राम की धनुर्धर, रावणहंता या लंकाविजेता की छवि पर उनकी आनंदकंद, प्रजावत्सल, कृपालु, समदर्शी और मूल्यचेता छवि हमेशा भारी रही है. कारण यह कि रामानन्दी सम्प्रदाय के प्रणेता रामानन्द की शिष्य परम्परा की चौथी पीढ़ी में अग्रदास ने सोलहवीं शताब्दी में रसिक सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया तो अयोध्या के ज्यादातर संत-महंत उनके अनुयायी बन गये.

रामानन्द के बारह प्रमुख शिष्यों में से एक थे अनंतानन्द, जिनके शिष्य कृष्णदास पयहारी आगे चलकर आमेर के राजा पृथ्वीराज की रानी बालाबाई के दीक्षा गुरू बने. अग्रदास इन्हीं कृष्णदास पयहारी के शिष्य थे. उनके भगवान राम रसिक बिहारी भी हैं और कनक बिहारी भी. हां, दशरथनन्दन, दीनबंधु, दारुण भवभयहारी, नवकंजलोचन, कंजमुख, करकंज पदकंजारुणम भी. उनकी कन्दर्प अगणित अमिट छवि नवनील नीरद सुन्दरम है. उनका दिनेश और दानव दैत्यवंश निकन्दनम होना इसके बाद की बात है. इसलिए वे कभी फूल बंगले में विराजते हैं और कभी हिंडोलों में झूलते हैं.


यह भी पढ़ें: रौद्र शेर हों या पॉलिस्टर का तिरंगा, न्यू इंडिया में राष्ट्र के प्रतीक बेमानी हो रहे हैं


राममनोहर लोहिया ने राम की उदार छवि की तारीफ की थी

समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी अपने ‘राम, कृष्ण और शिव’ शीर्षक निबंध में संकेत किया है कि अयोध्या लंका विजय के राम के पराक्रम को उतना भाव नहीं देती, जितना इसको कि लंका को जीतने के बाद भी उन्होंने उसे हड़पा नहीं और विभीषण को सौंपकर चले आये और उदार व उदात्त मानवीय मूल्यों के प्रतिनिधि बने रहे. उन्हें राज्य का लोभ क्योंकर होता, वे तो अपने ‘बाप का राज भी बटेऊ की नाईं’ तजकर बन चले गये थे. उनके द्वारा प्रतिष्ठित यही मूल्य अयोध्या में श्रीरामपंचायतन की परम्परा से चली आती तस्वीरों में भी दिखाई देते हैं. उनमें वे महारानी सीता और अपने तीनों भाइयों के साथ सबके लिए आश्वस्तिकारक मुद्रा में दिखाई देते हैं.

लेकिन विश्व हिन्दू परिषद ने हमेशा उनकी रौद्र रूप वाली धनुर्धर छवि ही आगे की. इसका उद्देश्य क्या था, बताने की जरूरत नहीं है. वैसे ही जैसे यह बताने की जरूरत नहीं है कि नई संसद पर स्थापित अशोक स्तंभ के सिंहों को रौद्र रूप क्यों दिया गया है. सरकार के समर्थक सोशल मीडिया पर यों ही नहीं कह रहे कि वे सिंह हैं तो कभी न कभी दहाड़ेंगे ही और जरूरत हुई तो काट भी खायेंगे.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

जाहिर है कि योगेन्द्र यादव यह कहते हुए बिल्कुल सही हैं कि अशोक-स्तंभ पर उत्कीर्ण शेर धर्मचक्र पर प्रतिष्ठित हैं यानी उनकी ताकत का स्रोत धर्म है. लेकिन मोदी के सेंट्रल विस्टा पर कायम शेर धर्मचक्र पर चढ़े हुए हैं, वे स्वयं ही शक्तिस्वरूप हैं. मूल प्रतीक के शेरों के जैसी उसकी प्रतिकृति के शेर कुछ वैसे ही हैं जैसे कि हनुमान की पहले की तस्वीरों की जगह आजकल की रौद्र हनुमान वाली तस्वीर या यों कहें कि विधि-सम्मत राज-व्यवस्था और बुलडोजरी राजसत्ता के बीच जो अन्तर है वैसा ही अन्तर अशोक-स्तंभ के शेरों और उसकी प्रतिकृति के शेरों के बीच है.

यह विश्वास करने के कारण हैं कि यह सारी कवायद बहुत सोच-समझकर और दूरगामी लक्ष्यों को ध्यान में रखकर की जा रही है. क्योंकि किसी भी रूप में यह नहीं माना जा सकता कि प्रधानमंत्री ‘विधि-विधान’ से नई संसद पर उक्त अनावरण कर रहे थे तो उन्हें मालूम ही नहीं था कि वे महज सरकार के मुखिया हैं और संसद के दोनों सदनों का नेतृत्व नहीं करते, इसलिए उन्हें इस अनावरण का नैतिक अधिकार ही नहीं है. कायदे से यह अधिकार लोकसभा के अध्यक्ष का था, जो लोकसभा का प्रतिनिधित्व करते हैं और सरकार के अधीन नहीं आते.

वैदिक रीति-रिवाज से स्तम्भ के उद्घाटन गलत

प्रधानमंत्री को यह भी पता ही था कि बौद्ध शासक अशोक से जुड़े इस राष्ट्रीय प्रतीक के अनावरण में वैदिक रीति से पूजा-पाठ करना अनुचित है. फिर भी उन्होंने ऐसी पूजा की तो वे किसी को इस निष्कर्ष तक पहुंचने से कैसे रोक सकते हैं कि पुराने अशोक स्तम्भ में ‘बौद्ध सिंह’ थे, जबकि नये अशोक स्तम्भ में ‘वैदिक सिंह’ हैं और वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति. कई प्रेक्षक तो यह भी मानते हैं कि प्रधानमंत्री को इसकी इसी रूप में चर्चा अभीष्ट है ताकि विरोधियों की जुबान से भी उनका ‘संदेश’ दूर-दूर तक जा सके.

इसे यों भी समझ सकते हैं है कि प्रधानमंत्री को सरकार और पार्टी के बीच की सीमा रेखा याद नहीं रहती और उनकी जमातें अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जड़ें जमाने के लिए ‘प्रतीक कुछ तो कुव्याख्या कुछ’ की राह चलती रहती हैं.
फिर उन्हें क्योंकर चिन्ता होने लगी कि सारनाथ के मूल अशोक स्तंभ के चारों सिंह क्रमशः शक्ति, साहस, आत्मविश्वास व गौरव के प्रतीक हैं और उनकी सुडौल मुखमुद्रा में गरिमा और ठहराव महसूस किया जाता है, जबकि प्रधानमंत्री ने नये संसद भवन में जिस अशोक स्तंभ का अनावरण किया, उसके बेडौल सिंह गुस्से से दहाड़ते हुए अजीब से विद्रूप भाव से भरे नजर आ रहे हैं और उनकी दहाड़ में कोई गरिमा भी नहीं है. भारत की आत्मा की सौम्यता, ‘सत्यमेव जयते’ का धैर्य और साहस भी इस नये स्तम्भ में एकसार नहीं ही हो पाए हैं, जबकि किसी भी देश का राष्ट्रीय प्रतीक उसके मूल चरित्र का परिचायक होता है.

यहां एक और बात गौरतलब है. जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है कि साढ़े छः मीटर ऊंचाई वाले कांसे के नये अशोक स्तम्भ का वजन 9500 किलो है, यह भी कि उसे कितने लौह पाशों से साधा गया है, जबकि सच्ची कला में प्रेम, करुणा व शांत भाव आवश्यक तत्व होते हैं, कलाकृति की विशालता नहीं. क्रूरता और वीभत्सता के प्रदर्शन का तो दुनिया की प्रायः सारी कलाओं में निषेध है. लेकिन प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने स्थापत्य कला में विशालकायता के प्रति अपना अवांछनीय आकर्षण पहली बार नहीं दिखाया है. इससे पहले उन्होंने गुजरात में सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा की स्थापना में भी कलात्मकता के बदले विशालता को ही प्रमुखता दी थी. अभी भी वे उसे दर्पपूर्वक सबसे ऊंची ही बताया करते हैं.

पत्रकार और स्तम्भकार शकील अख्तर इस सिलसिले में ठीक ही पूछते हैं कि: दुनिया में भारत का नाम किनसे है? सम्राट अशोक के युद्ध से मोह भंग, मानव के प्रति करुणा के भाव के उदय और उसके प्रतीक सारनाथ के शांत गरिमामयी सिंहों से या क्रुद्ध सिंहों से, जो सिर्फ गलत परिस्थितियों में ही आक्रामक मुद्रा दिखाते हैं-भय में, भूख में, वन में गलत पारिस्थितिकी पैदा करने की कोशिशों में?

अफसोस की बात है कि प्रधानमंत्री और उनकी सरकार में इतनी भी लोकतांत्रिकता नहीं बची है कि वे खुद को इस तरह के सवालों के जवाब देने के लिए प्रस्तुत करें. इसलिए वे इससे सम्बन्धित सारे आरोपों व एतराजों को नजर व नजरिये के खोट बताकर खारिज किये दे रहे हैं.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढे़ं: काश, महंगाई के क्लेश से भी किसी की भावनाओं को ठेस लगती


 

share & View comments