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Thursday, 21 November, 2024
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कर्णन, काला, असुरन या जय भीम जैसी फिल्में हिंदी में क्यों नहीं बन सकती

तमिलनाडु में नए उभरे दलित-पिछड़ा मध्य वर्ग से ही रंजीत, वेट्रिमारन, मारी सेल्वराज, रजनीकांत, धनुष, सूर्या आदि निकलकर आए हैं. उत्तर भारत के राज्यों में दलित और पिछड़ा मध्य वर्ग छोटा और नया है और वहां से निकलने वाली ऐसी प्रतिभाओं की संख्या कम है.

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तमिल फिल्म इंडस्ट्री इन दिनों इंटरनेशनल न्यूज में है. इसकी वजह सूर्या की नई फिल्म जय भीम को लेकर होने वाली चर्चा है. बीबीसी, याहू न्यूज, खलीज टाइम्स और द इंडिपेडेंट जैसे अंतरराष्ट्रीय न्यूज प्लेटफॉर्म ने ये खबर दी है कि जय भीम फिल्म ने आईएमडीबी रेटिंग में शॉशांक रिडम्पशन (1994) और द गॉडफादर (1972) जैसी सर्वकालिक श्रेष्ठ फिल्मों को पीछे छोड़ते हुए यूजर रेटिंग चार्ट में टॉप की जगह बना ली है. यूजर रेटिंग हालांकि किसी फिल्म की लोकप्रियता को मापने के कई तरीकों में से एक तरीका है लेकिन ग्लोबल मीडिया ने इसे एक महत्वपूर्ण घटना माना है.

जय भीम तमिल सिनेमा की नई मुकुटमणि है. पिछले एक दशक में नए तमिल सिनेमा ने कई धमाकेदार प्रस्तुतियां दी हैं. नया सिनेमा शब्द दरअसल फ्रांस से आया है. जब वहां सिनेमा के घिसे-पिटे ढर्रे से लोग थक गए तो हटके अलग तरह की फिल्में भी बनने लगीं. ये प्रतिरोध का भी सिनेमा था, हालांकि प्रतिरोध नया सिनेमा के कई पहलुओं में एक पहलू ही है.

नया सिनेमा अनिवार्य रूप से प्रतिरोध का सिनमा नहीं है. तमिलनाडु का नया सिनेमा भी फिल्म निर्माण के बॉक्स ऑफिस फॉर्मूला को तोड़ता है और समाज की सच्चाइयों को ज्यादा तल्खी से उजागर करता है. इस क्रम में खासकर जाति और शोषण के प्रश्न से टकराने का साहस इन फिल्मों ने किया है. इन फिल्मों में दलित, बहुजन, आदिवासी समुदायों के प्रतिरोध की भी दास्तान है.

इन फिल्मों को बनाने वालों में पा. रंजीत का नाम प्रमुख है, जिन्होंने अट्टाकथी (2012), मद्रास (2014), कबाली (2016), काला (2018), सारपट्टा परम्बरई (2021) बनाई है. उनके साथ काम शुरू करने वाले मारी सेल्वराज ने स्वतंत्र रूप से पेरियारुम पेरुमल (2018) और कर्णन (2021) बनाई. वहीं, इन दोनों से पहले से फिल्म बना रहे वेट्रिमारन ने असुरन (2019) बनाई है. और अब सूर्या की जय भीम आई है. इन फिल्मों को तमिल नया सिनेमा की शुरुआत माना जा रहा है.

तमिल फिल्मों की ये नई लहर हिंदी या बांग्ला नया सिनेमा से कम-से-कम चार मायनों में अलग हैं.

1. हिंदी नया सिनेमा (1970 का दशक) या बांग्ला नया सिनेमा (1940-50) के सभी फिल्मकार समाज के उच्च वर्ण-जातीय समूहों से थे. इनमें सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, तपन सिन्हा, बुद्धदेव दासगुप्ता से लेकर विमल रॉय, श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी शामिल हैं. वहीं तमिल नया सिनेमा के सभी डायरेक्टर एससी या ओबीसी समुदायों से हैं. इन तमिल फिल्मकारों के वंचित सामाजिक समूहों से आने का नतीजा ये है कि इन फिल्मों का नजरिया अलग हो गया है, क्योंकि ये समाज को नीचे से देख रहे हैं, जबकि हिंदी और बांग्ला के फिल्मकार समाज को अपनी नजर यानी ऊपर से देख रहे थे.

2. हिंदी और बांग्ला नया सिनेमा की फिल्मों में फिल्मकार बेशक सवर्ण रहे हों, पर उन्होंने वंचित समुदायों को अपनी कहानी का हिस्सा बनाया है. गोविंद निहलानी की आक्रोश (1980), सत्यजीत राय की सद्गति (1981), गौतम घोष की पार (1984) और प्रकाश झा की दामुल (1985) में किरदार वंचित सामाजिक समूहों से हैं. पर ये सभी बेहद कमजोर, गरीब, अशिक्षित और लगभग बेजुबान नजर आते हैं. सद्गति फिल्म का दुखी तो सचमुच बेहद दुखी है और पुजारी द्वारा थोपी गई बंधुआ मजदूरी का कोई प्रतिकार नहीं करता. वहीं, तमिल नया सिनेमा के दलित और वंचित समुदायों के किरदार बेहद दमदार और ठसक और ठाठ वाले हैं. काला, कबाली, असुरन, कर्णन, पेरियारुम पेरुमल, सरपट्टा परम्बरई जैसी फिल्मों के लीड करेक्टर बेहद मुखर हैं और इतने दबे-कुचले भी नहीं हैं कि अन्याय का प्रतिकार न कर सकें.

3. हिंदी और बांग्ला नया सिनेमा में जहां कहीं भी कमजोर तबके के लोग दिखाए गए हैं, वहां उनका उद्धारक या तारणकर्ता कोई उच्चवर्णीय व्यक्ति जरूर होता है. 1959 में बनी सुजाता में अछूत लड़की का उद्धार एक ब्राह्मण कुलीन पुरुष करता है. ये सिलसिला कई फिल्मों में दोहराया गया है. लगान फिल्म में कचरा की प्रतिभा की पहचान भुवन करता है और उसे टीम में जगह देता है.

हाल में बनी फिल्म आर्टिकल 15 में भी एक ब्राह्मण पुलिस अफसर ही न्याय करता है. जो पीड़ित हैं, उनके करने के लिए खास कुछ होता नहीं है. तमिल नया सिनेमा के तो चूंकि हीरो या हीरोइन के किरदार ही दलित या आदिवासी या पिछड़े हैं, तो सारा कुछ उन्हें ही करते हुए दिखाया जाता है. जय भीम फिल्म में आदिवासियों का केस वकील चंद्रू जरूर लड़ता है लेकिन आदिवासी परिवार को कथानक में पर्याप्त जगह मिली है और खासकर आदिवासी विधवा महिला सेंगेनी का चरित्र तो बेहद मजबूती से उभरता है.

4. हिंदी और बांग्ला नया सिनेमा की विचार दृष्टि गांधीवादी-समाजवाद या मार्क्सवाद थी. इसके उलट तमिल नया सिनेमा की विचारभूमि में आंबेडकरवाद, पेरियार विचारधारा और एक हद तक बुद्ध का चिंतन और प्रतीक भी नजर आते हैं. पा रंजीत और मारी सेल्वराज की फिल्मों में ये बात प्रमुखता से दिखाई गई है. काला में तो बुद्ध विहार और नीले रंग का प्रभावशाली तरीके से प्रयोग किया गया है. कर्णन में भी बुद्ध प्रभावशाली तरीके से नजर आते हैं. जय भीम फिल्म का नाम ही आंबेडकरवादी नारा है. और इसके मुख्य किरदार के आस पास आंबेडकर और बुद्ध (साथ में मार्क्स) के चित्र और मूर्तियां नजर आती हैं. पा रंजीत अपनी फिल्म सारपट्टा परम्बरई में 1970 के दौर के द्रविड़ आंदोलन को भी दिखाते हैं.


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हिंदी फिल्मों की दरिद्रता

ऐसा अक्सर कहा जाता है कि फिल्में समाज का दर्पण होती हैं. यानी समाज और देश में जो चल रहा होता है, उसका असर फिल्मों पर पड़ता है और उसकी झलक भी फिल्मों में नजर आती है. इसके साथ ही फिल्मों का भी समाज पर असर होता है. लेकिन ये कहने की बात है. हिंदी सिनेमा में ऐसा कुछ नहीं होता. समाज और फिल्मों की गति में कोई साम्य नहीं होता.

जैसा कि मैंने पहले बताया कि सारपट्टा परम्बरई में पा. रंजीत 1970 के दशक के मद्रास (अब चेन्नई) की छवि को उभारते हैं और इस क्रम में द्रविड़ आंदोलन और इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी को कथानक में जगह देते हैं. लेकिन हिंदी फिल्मों में आपको न तो जयप्रकाश आंदोलन मिलेगा, न इमरजेंसी, न मंडल कमीशन का लागू होना और न ही राजनीति में आया पिछड़ा उभार या बहुजन आंदोलन. ऐसी तमाम घटनाओं से हिंदी फिल्मों ने खुद को अलग रखा. अगर कोई भारत के घटनाक्रम पर नजर नहीं रखता है तो इस दौर की सारी फिल्मों को देखने के बावजूद उसे पता नहीं चल पाएगा कि यहां कोई जयप्रकाश आंदोलन हुआ था या मान्यवर कांशीराम के नेतृत्व में दस साल के अंदर देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी!

इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हिंदी सिनेमा इस बात को देख ही नहीं पाया कि आरक्षण और तमाम और प्रक्रियाओं के चलते भारत में करोड़ों दलित-पिछड़े लोगों का शहरी मध्यवर्ग आ चुका है. ये पूरा वर्ग हिंदी सिनेमा में अनुपस्थित है. यही वर्ग तमिल नया सिनेमा का मुख्य पात्र है, जिसे हिंदी और बांग्ला ही नहीं बाकी ज्यादातर राज्यों (मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र में नागराज मंजुले जैसे चंद डायरेक्टर को छोड़कर) के फिल्मकार देख नहीं पा रहे हैं या जानबूझ कर उनकी अनदेखी कर रहे हैं.


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पा. रंजीत के साथ आई नई लहर

तमिल सिनेमा में भी ये बदलाव पिछले एक दशक में ही बड़े पैमाने पर आया है. भारती राजा अपनी फिल्मों में गांव दिखा रहे थे, लेकिन उनकी फिल्मों में वो ताप नहीं था. कुल मिलाकर तमिल फिल्में किसी भी और भारतीय भाषा की फिल्मों की तरह ही बन रही थीं.

जेएनयू में राजनीति अध्ययन केंद्र के प्रोफेसर हरीश वानखेड़े कहते हैं, ‘भारतीय सिनेमा की यात्रा धार्मिक मिथकीय फिल्में बनाने से शुरू हुई. आजादी के बाद के दौर में फिल्मों ने मोटे तौर पर नेहरूवादी विचार परंपरा की सीमाओं के अंदर काम किया. इन फिल्मों ने भारतीय राष्ट्र के साथ उम्मीद से लेकर मोहभंग और उग्र राष्ट्रवाद तक की यात्रा की है.’

ये बड़ा वैचारिक फ्रेम, तमाम वर्गीय हितों की रक्षा से भी संचालित हो रहा था और इसलिए उसने विभिन्न तबकों के हितों की अनदेखी की और उनकी कहानियों को नजरअंदाज किया. फिल्मों ने उन सवालों को उठाया ही नहीं, जो राष्ट्र की महान यात्रा का स्वाद खराब कर सकते थे. इस क्रम में आदिवासियों और दलितों के सवाल अनछुए रह गए. जाति का सवाल सतह के नीचे दबा रहा. फिल्मों में ज्यादातर नायक और नायिकाओं का किरदार सवर्ण बनाया गया और इनकी कहानी को भारत की कहानी बनाकर पेश कर दिया गया. आदिवासी पर्दे पर या तो हंसी का पात्र बन कर आए या झुंड में नाचने के लिए. दलित कभी नजर आ भी गए तो दया का पात्र बन कर.

ऐसा भी नहीं है कि सभी फिल्में ऐसी ही थीं. अपवाद के तौर पर 1984 में आई टी. एस. रंगा की फिल्म गिद्ध में देवदासियों की मुक्ति की लड़ाई दिखाई गई हैं, वहीं, जब्बार पटेल की मराठी फिल्म उम्बरथा में जाति का प्रश्न प्रमुखता से आया है. लेकिन नया सिनेमा तो मुख्यधारा का हाशिया होता है, तो हाशिए के हाशिए पर बनने वाली गिद्ध जैसी फिल्मों को विरल अपवाद के रूप में ही देखा जाना चाहिए. हिंदी और बांग्ला नया सिनेमा का दौर भी लंबा नहीं चला.

जब नया सिनेमा की चर्चा मीडिया में चल रही थी और ये फिल्में झोली भर-भर कर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीत रही थीं, तब आम दर्शक थिएटर में अमिताभ बच्चन की फिल्में देखकर मुग्ध हो रहा था. लेकिन यहां भी एंग्री यंग मैन जातिमुक्त ही था. वह गरीब था, अनाथ (मुकद्दर का सिकंदर) था, लेकिन उसकी कोई जाति नहीं थी और उसके जीवन के कष्ट में जाति की कोई भूमिका थी, ऐसा फिल्म देखकर पता नहीं चलता. इससे पहले राजकपूर भी आवारा और श्री420 बना चुके थे लेकिन वे भी जातिमुक्त थे. दरअसल जिस नेहरूवादी फ्रेम में ये सारी फिल्में बन रही थीं, उसमें वर्ग यानी अमीर-गरीब, ग्रामीण-शहरी, शिक्षित और अनपढ़ जैसा भेद तो हो सकता था, लेकिन सछूत और अछूत या दलित-पिछड़ा-सवर्ण जैसा विभाजन स्वीकार्य नहीं था.

हिंदी फिल्मों का ये खूंटा अब भी वहीं गड़ा हुआ है. सवाल उठता है कि उसी भारत में तमिलनाडु के कुछ फिल्मकार इस खांचे से बाहर कैसे निकल पाए हैं और बाकी भाषाओं के फिल्मकार तमिल नया सिनेमा की नकल क्यों नहीं कर पा रहे हैं?


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तमिल फिल्मों की सामाजिकता और यथार्थ-बोध

इसकी कुछ संभावित वजहें मैं लिस्ट करने की कोशिश कर रहा हूं. लेकिन ये नया विषय है, इसलिए जाहिर है कि इस दिशा में और काम होगा और नए पहलू सामने आएंगे. इस लिस्ट को संपूर्ण न माना जाए बल्कि इन्हें तथ्य की जगह विचार के तौर पर देखा जाए.

1. तमिलनाडु सामाजिक आंदोलनों की भूमि है जिसमें केंद्र में जाति का पहलू है. ये आंदोलन आजादी से आधा दशक पहले का है और पेरियार के रंगमंच पर आने से पहले वहां वंचित जातियों और महिलाओं के लिए आरक्षण लागू हो चुका था. जब कोई विचार समाज में गहराई तक धंसा हो तो फिल्मकार उसे कथानक में शामिल करने से घबराते नहीं है. जाति विरोधी फिल्मों की नई लहर आने से पहले भी तमिल फिल्मों में हीरो आम तौर पर गैर-ब्राह्मण ही होते थे. जाति विरोधी फिल्में बनाना तमिलनाडु में मुश्किल नहीं है.

2. मद्रास प्रेसिडेंसी में चूंकि आरक्षण सबसे पहले लागू हुआ, इसलिए ओबीसी और दलित मध्य वर्ग यहां बाकी राज्यों से ज्यादा है. ये वर्ग इतना बड़ा है कि इनके मुद्दे पर बनने वाली फिल्मों को दर्शक की कमी नहीं होती. उत्तर भारतीय राज्यों में दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों का मध्य वर्ग अपेक्षाकृत छोटा है. खासकर प्रवासी भारतीयों में ये वर्ग कम हैं. इसका असर ये हुआ है कि भारतीय जीवन की कठिनाइयों से मुक्त खुशनुमा डायस्पोरा की फिल्में इस बीच में खूब आई हैं.

3. तमिलनाडु में नए उभरे दलित-पिछड़ा मध्य वर्ग से ही रंजीत, वेट्रिमारन, मारी सेल्वराज, रजनीकांत, धनुष, सूर्या आदि निकलकर आए हैं. उत्तर भारत के राज्यों में दलित और पिछड़ा मध्य वर्ग छोटा और नया है और वहां से निकलने वाली ऐसी प्रतिभाओं की संख्या कम है.

4. तमिल फिल्म उद्योग स्टार केंद्रित है. हर स्टार का अपना बंधा हुआ दर्शक वर्ग होता है और फैन क्लबों के जरिए संगठित रहता है. बड़े स्टार खुद तय करते हैं वे कैसी स्टोरी पर काम करेंगे और उनका डायरेक्टर कौन होगा. ये अच्छा हुआ कि रजनीकांत की नजर रंजीत की फिल्म मद्रास पर पड़ी और उन्होंने रंजीत के साथ कबाली बनाने पर सहमति जताई. हालांकि इसके पीछे रजनीकांत की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और दलितों के साथ संवाद बनाने की उनकी इच्छा भी एक वजह हो सकती है. इसी तरह धनुष की पहल की वजह से असुरन और कर्णन जैसी फिल्में बन पाईं.

बॉलीवुड में स्टार सिस्टम अपेक्षाकृत कमजोर है. और जो यहां के सुपरस्टार है, वे फॉर्मूला फिल्मों से खुश हैं. इसलिए यहां कोई अमिताभ बच्चन या कोई खान या कोई कपूर किसी पा. रंजीत को खोजकर ये नहीं कहता कि क्या आप मेरे साथ फिल्म बनाएंगे?

ऐसी स्थिति में अभी वो दिन दूर ही है, जब बॉलीवुड काला, असुरन, कर्णन या अपेक्षाकृत कम तीखी फिल्म जय भीम बना पाएगा.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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