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Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमतकहां हैं भारत के समलैंगिक पैरेंट्स? बहुत से भारतीयों के लिए परिवार रखना कोई विकल्प ही नहीं है

कहां हैं भारत के समलैंगिक पैरेंट्स? बहुत से भारतीयों के लिए परिवार रखना कोई विकल्प ही नहीं है

भारतीयों से पूछिए कि उनके लिए सबसे ज़्यादा अहम क्या है, और संभावना है कि अधिकांश लोग कहेंगे मेरा परिवार. लेकिन बहुत अजीब बात है कि भारत जैसे देश में, जो परिवार को ब्रह्माण्ड के केंद्र में रखता है, कुछ भारतीयों को परिवार नसीब ही नहीं होता.

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आपने कितने समलैंगिक पैरेंट्स देखे होंगे दत्तक केंद्रों पर, पैरेंट टीचर्स मीटिंग में या आईसक्रीम खाते हुए भी, जिनके बच्चे मॉल में होते हैं? धारा 377 को क़ानूनी रूप देने के साथ जो लड़ाई शुरू हुई थी, उसे वहीं ख़त्म नहीं होना चाहिए- ये लड़ाई आधी जीती गई है. और जो शुरुआत एक पाबंदी को रद्द करने के साथ हुई थी, उसमें विस्तार करके नागरिक अधिकारों को पूरी तरह हासिल किया जाना चाहिए. वरना, फिसलाव का ख़तरा हमेशा बना रहेगा.

एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के पास, भारत में अभी भी शादी करने का अधिकार नहीं है और ज़्यादातर के लिए तो पैरेंटहुड का सवाल ही पैदा नहीं होता. और, पैरेंट्स बनने के लिए क्या आपका शादी करना ज़रूरी है?

क्या है परिवार?

एक एडवर्टाइज़िंग प्रोफेशनल, लेखिका और उद्यमी, रागा ओल्गा डिसिल्वा 23 वर्षीय जुड़वों की मां हैं. मुम्बई में जन्मी और फिलहाल लंदन में रह रहीं डिसिल्वा ने अपने बेटे और बेटी को अपनी पार्टनर निकोला फेंटन के साथ मिलकर पाला है. डिसिल्वा कहती हैं कि उनके बच्चों की तो जैसे लॉटरी निकल आई है- उन्हें तीन पैरेंट्स का प्यार मिलता है, दो मांएं और एक पिता.

लेकिन परिवार के लिए चीज़ें आसान नहीं थीं, जब वो भारत आए. निकोला को बच्चों का क़ानूनी पैरेंट नहीं माना गया. डिसिल्वा ने विस्तार से समझाया, ‘बहुत चुनौती भरा था जब हम स्कूल एडमिशन के लिए गए. हम निकोला को फॉर्म में सिर्फ बतौर ‘दोस्त’, या ‘इमरजेंसी संपर्क’ रख सकते थे. बच्चों की सेहत से जुड़े फैसलों को लेकर भी यही मसला था. वो क़ानूनी तौर पर उनकी ओर से फैसले नहीं ले सकती थीं. उन्हें कभी एक पैरेंट के तौर पर स्वीकार नहीं किया गया’.

एक ऐसे देश में, जहां सिंगल पैरेंट्स और लिव-इन कपल्स को अभी भी अपने बच्चों से जुड़े अधिकारों के लिए एक कठिन लड़ाई लड़नी पड़ती है, वहां एलजीबीटीक्यू+ पैरेंट्स के साथ भेदभाव पर, सार्वजनिक रूप से बातचीत तक नहीं होती. एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों के लिए, पैरेंटहुड के अधिकार को क़ानून, यहां तक कि समाज भी मान्यता नहीं देता. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फैसलों में, संविधान के अनुच्छेद 21- जीने और निजी स्वतंत्रता के अधिकार- की व्याख्या की है, और उसमें मातृत्व के अधिकार, तथा प्रजनन स्वायत्तता के अधिकार को शामिल किया है, लेकिन ऐसा लगता है कि ये आमतौर पर, समलैंगिक जोड़ों, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय पर समानता के साथ लागू नहीं होता. बल्कि, संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकारों के सार्वजनिक घोषणापत्र के, अनुच्छेद 16 में कहा गया है कि ‘पूरी आयु के पुरुष और महिला को… शादी करने और एक परिवार शुरू करने का अधिकार है’. 72 साल पुराने इस दस्तावेज़ में, सूत्र के रूप में कही गई बात में कई चीज़ों को बाहर रखा गया है; लेकिन 2021 के भारत में भी, परिवार शुरू करने का अधिकार, सिर्फ विषमलैंगिक सिसजेंडर पुरुषों और महिलाओं के लिए है.


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क़ानून का राज

अगर आपके लिए क़ानूनी रास्ते भी बंद हों, तो फिर पैरेंटिंग के मामले में कोई कुछ ख़ास नहीं कर सकता.

ज़्यादातर क़ानून और अधिकार, जो भारत में फैमिली लॉ के दायरे में आते हैं, जिनमें गोद लेने, सरोगेसी, उत्तराधिकार, और अभिभावकता आदि से जुड़े क़ानून भी शामिल हैं, किसी न किसी रूप में शादी से बंधे हैं. और चूंकि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को अभी तक, शादी के अधिकार से बाहर रखा गया है, इसलिए इन तमाम दूसरे क़ानूनों तक पहुंच में भी कटौती हो जाती है.

वरिष्ठ वकील और जाने माने एचआईवी तथा एलजीबीटीक्यू+ अधिकार कार्यकर्ता, आनंद ग्रोवर ने समझाया, ‘चूंकि वो (एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के सदस्य) शादी नहीं कर सकते, इसलिए उन्हें मजबूरन कोई न कोई दूसरे तरीक़े अपनाने पड़ते हैं, जैसे मिसाल के तौर पर, एक साथ की बजाय एक पार्टनर के नाम से गोद लेना. और फिर ऐसे बहुत से लोग हैं, जो शादी करना ही नहीं चाहते. उन्हें करनी ही क्यों चाहिए? मान्यता प्राप्त समझौते के विकल्प को भी खोजा जाना चाहिए. न्यूज़ीलैंड में, जहां डिसिल्वा और उनके परिवार ने काफी साल बिताए हैं, दो लोगों के बीच सिविल यूनियंस और वास्तविक रिश्तों को, क़ानूनी मान्यता प्राप्त है. ये औपचारिक रिश्ते हैं जिनमें जोड़े अपनी मर्ज़ी से जाते हैं; उन्हें तक़रीबन वो सारे अधिकार प्राप्त हैं, जो विवाहित जोड़ों के पास हैं.

भारत के 2017 के गोद लेने के नियमों के अनुसार, जो केंद्रीय दत्तक संसाधन संस्था (कारा) की अधिकारिक वेबसाइट पर छपे हैं, जिन जोड़ों के विवाह को कम से कम दो वर्ष हो गए हैं और अकेली महिला, किसी भी जेंडर के बच्चे को गोद ले सकते हैं, जबकि अकेला पुरुष केवल लड़के को गोद ले सकता है. इस सब में, लिव-इन में रह रहे जोड़ों, समलैंगिक जोड़ों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों का, कोई ज़िक्र ही नहीं है, जैसे कि उनका कोई वजूद ही नहीं है.

कारा हेल्पलाइन कहती है कि समलैंगिक जोड़ों के गोद लेने के लिए, ‘ऐसा कोई प्रावधान नहीं है’. जब मैंने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के बारे में पूछा, तो भी मुझे यही जवाब मिला. ‘उनके लिए गोद लेने का कोई प्रावधान नहीं है. अगर आप इस बारे में और जानकारी चाहते हैं, तो आप हमें ईमेल लिख सकती हैं. चार दिन के भीतर आपको लिखित जवाब मिल जाएगा’. मुझे कोई जवाब नहीं मिला.

ये सिर्फ सरकारी अधिकारी नहीं हैं, जो एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के सदस्यों के, गोद लेने की राह में रोड़ा बनते हैं. 2015 में, उस समय की केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने, जब नियमों में ढील देते हुए अकेले पुरुष और महिला को गोद लेने की अनुमति दे दी, तो कुछ ग़ैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओज़) ने, जो दत्तक एजेंसियों का काम करती हैं, इस फैसले को मंज़ूर नहीं किया. मसलन, मिशनरीज़ ऑफ चैरिटीज़ ने अपने कुछ केंद्रों पर, अस्थाई तौर से काम बंद कर दिया, क्योंकि इससे उनकी ‘अंतरात्मा को ठेस’ पहुंचती थी. उनकी मुख्य चिंता ये थी कि गोद लेने वाला अकेला पैरेंट, ‘गे या लेस्बियन निकल सकता है’.

दत्तक संस्था बाल आस्था ट्रस्ट के एग्ज़िक्यूटिव डायरेक्टर, सुनील अरोड़ा का कहना है: ‘फिलहाल क़ानून में ऐसा कुछ नहीं है, जो खुले तौर पर एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के सदस्यों को गोद लेने से रोकता हो या उसका समर्थन करता हो, इसलिए इस बारे में और अधिक स्पष्टता की ज़रूरत है. हमारी संस्था के मानदंड बहुत सरल हैं- क्या आप भावनात्मक, शारीरिक तथा मानसिक रूप से गोद लेने के लिए तैयार हैं? बस…’

पियु रिसर्च सेंटर के अनुसार, अक्टूबर 2019 तक दुनिया के लगभग 30 देश, समलैंगिक शादियों के लिए क़ानून बना चुके हैं. इनमें अधिकतर, यूरोप, उत्तरी अमेरिका तथा दक्षिणी अमेरिका और केवल एक-ताइवान- एशिया में हैं. जहां तक समलैंगिक लोगों के गोद लेने का मामला है, तो ये अभी तक 40 देशों में वैध है.

सरोगेसी और इन-विट्रो को भी ना

अमेरिका में, सर्वेक्षणों से पता चला है कि तक़रीबन 70 प्रतिशत समलैंगिक पैरेंट्स अपने जैविक बच्चों को पाल रहे हैं, जबकि 20 प्रतिशत ने बच्चों को गोद लिया है. एलजीबीटीक्यू+ जोड़ों के लिए, गोद लेने के जो जैविक रास्ते खुले हैं, वो आमतौर से सहायक प्रजनन तकनीक की व्यापक श्रेणी में आते हैं. भारत में, एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए इन सुविधाओं का लाभ उठाना काफी जटिल है, जो आगे और कठिन हो सकता है.

काफी बहस के बाद, केंद्रीय कैबिनेट ने फरवरी 2020 में, सरोगेसी (विनियमन) विधेयक को मंज़ूरी दे दी, लेकिन इसे अभी पारित किया जाना बाक़ी है. इस बिल के अनुसार, व्यावसायिक सरोगेसी पूरी तरह प्रतिबंधित है और अल्ट्रूइस्टिक सरोगेसी की इजाज़त सिर्फ भारतीय शादीशुदा जोड़ों और अकेली भारतीय महिलाओं के लिए है, जो विधवा या तलाक़शुदा हैं. लिव-इन जोड़ों, अधिकांश सिंगिल पैरेंट्स और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को, इससे पूरी तरह बाहर रखा गया है.

2016 में, तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा था कि सरोगेसी का विकल्प समलैंगिक जोड़ों के लिए नहीं है, चूंकि ये ‘हमारी प्रकृति के साथ मेल नहीं खाता’.

सहायक प्रजनन तकनीक (नियमन) विधेयक, 2020, जिसे पिछले साल अक्टूबर में स्थाई समिति को भेजा गया था, का लक्ष्य सहायक प्रजनन तकनीक (एआरटी) को नियमित करना है. इसमें गेमेट डोनेशन और आईवीएफ शामिल हैं, लेकिन ये सिर्फ उन्हीं तक सीमित नहीं है. सरोगेसी बिल की तरह, इस बिल में भी तय किया गया है कि एआरटी सेवाओं का लाभ कौन उठा सकता है, कौन नहीं उठा सकता. जहां विषमलैंगिक जोड़े और अकेली महिलाएं इनका लाभ उठा सकती हैं, वहीं लिव-इन या समलैंगिक रिश्तों में रह रहे लोग और ट्रांसजेंडर तथा मध्य-लिंगी व्यक्तियों को, यहां भी प्रजनन स्वायत्तता से वंचित कर दिया गया है.

दिल्ली आईवीएफ सेंटर, जो अपने आपको भारत का सबसे पुराना और अग्रणी फर्टिलिटी क्लीनिक बताता है कि अधिकारिक वेबसाइट पर एक पूरा पन्ना, ‘समलैंगिक पैरेंटिंग’ को समर्पित है, हालांकि एआरटी बिल स्पष्ट रूप से इसके समर्थन में नहीं है.

केंद्र के डॉ. मनन गुप्ता ने मुझसे कहा, ‘फिलहाल एलजीबीटीक्यू+ जोड़े और व्यक्ति क़ानूनी रूप से हमारे केंद्र में आ सकते थे. पहले, जब अंतर्राष्ट्रीय मरीज़ों के लिए सरोगेसी वैध थी, तो दूसरे देशों से बहुत से एलजीबीटीक्यू+ जोड़े हमारे पास आते थे. अब कोई नहीं आता. आज हमारे पास कोई एलजीबीटीक्यू+ जोड़े नहीं है, शायद इसलिए कि यहां लोग अभी खुले हुए नहीं हैं. उनका बच्चे के लिए आगे आना, सामान्य नहीं है’.


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फिर खुसर फुसर भी है

एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए पैरेंटहुड और शादी के क़ानून भले ही पास हो जाएं, फिर भी क्या समाज उन्हें स्वीकार करेगा? अनुच्छेद 377 को क़ानूनी रूप दे दिया गया है, लेकिन कलंक और घूमती निगाहें अभी भी उसका पीछा नहीं छोड़तीं. अधिकांश भारतीय परिवारों में सिसजेंडर और विषमलैंगिक के अलावा कुछ भी होना निषेध है.

डिसिल्वा ने मुझे बताया, ‘भारत वापस आने की संभावना, मुझे बिल्कुल भी उत्साहित नहीं करती. कौन उस नाटक और बकवास से गुज़रना चाहेगा? उसकी बजाय मैं ऐसे देश में रहूंगी, जहां मैं जो हूं वैसा रहने के लिए आज़ाद हूं’.

दस साल पहले जब डिसिल्वा और फेंटन अपने बच्चों के साथ भारत में रहते थे, तो उन्हें अपने असल रिश्ते को समाज से छिपाना पड़ा और उसकी बजाय उन्हें ख़ुद को, नंद-भावज या बिज़नेस पार्टनर बताना पड़ता था. उन्होंने कहा, ‘मेरी मां ने मुझसे कहा कि मैं किसी को न बताऊं, वरना परिवार में बवाल खड़ा हो जाएगा. समुदाय की फटकार के डर से, हमें अपने रिश्ते को दूसरे भेस में रखना पड़ा. अगर क़ानून समलैंगिक पार्टनरशिप और पैरेंटहुड को मान्यता देना शुरू कर दे, तो धीरे-धीरे समाज भी उन्हें स्वीकार करने लगेगा’.

ख़ुद को गे बताने वाले, दिल्ली के एक्टर-डायरेक्टर ज़ोरियन क्रॉस का मानना है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग जागरूकता फैलाने और समलैंगिक पैरेंटहुड की धारणा को सामान्य करने में, एक अहम रोल निभा सकते हैं, जैसा कि अमेरिका में मॉडर्न फैमिली जैसे टेलीविज़न शो के ज़रिए किया गया है. उन्होंने इसकी व्याख्या करते हुए कहा, ‘अगर इसे इस तरह से दिखाया जा सके, जो आम लोगों तक पहुंचे और समलैंगिक परिवारों को न सिर्फ सामान्य, बल्कि ख़ूबसूरत रूप में दिखाया जाए, तो उससे लोगों की मानसिकता बदलने में बहुत मदद मिलेगी’.

लेकिन एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के 23 वर्षीय छात्र और मॉडल, एलेग्ज़ेंडर बालकृष्णन का कहना था कि जब तक असली बदलाव सामने आए, तब तक समलैंगिक लोगों के पास कोई चारा नहीं है, सिवाय इसके कि बच्चों को भूल जाएं. उन्होंने कहा, ‘जब मुझसे पूछा गया कि क्या मैं, किसी समलैंगिक जोड़े को जानता हूं जिसके कोई बच्चा हो, तो मेरे दिमाग़ में कोई नहीं आया. और ये बहुत अफसोस की बात है कि वो पैरेंट्स नहीं बन पाते. एक परिवार शुरू करने जैसी क़ुदरती चीज़, समलैंगिक लोगों के लिए क्रांतिकारी बन जाती है और हमें ऐसा अहसास कराया जाता है कि हमें इस अधिकार के लिए आभारी होना चाहिए’.

तो, अब आगे क्या?

2020 में, समलैंगिक शादियों को क़ानूनी मान्यता देने के लिए दिल्ली और केरल उच्च न्यायालयों में, कुछ जनहित याचिकाएं (पीआईएल) दायर की गईं थीं. हालांकि अभी तक इनका कुछ हुआ नहीं है, लेकिन ग्रोवर का मानना है कि आगे चलकर कुछ न कुछ परिणाम आएगा. उन्होंने समझाया, ‘सबसे अच्छा समाधान ये है कि शादी की इजाज़त दे दी जाए. उससे गोद लेने से एआरटी और उत्तराधिकार तक, सब कुछ बदल जाएगा. लेकिन ऐसे लोगों के लिए, कुछ प्रावधान फिर भी करने होंगे, जो शादी नहीं करना चाहते. ऐसा नहीं होना चाहिए कि उन्हें सिर्फ अपने नागरिक अधिकार हासिल करने की ख़ातिर शादी करनी पड़े’.

यही राय रखने वाली, दिल्ली यूनिवर्सिटी में क़ानून की पढ़ाई कर रही 25 वर्षीय कानमनि रे एलआर को लगता है कि इसका समाधान सिर्फ शादी का अधिकार पाने जितना आसान नहीं है. उन्होंने कहा कि शादी एक ऐसी संस्था है, जो जाति और पितृसत्तात्मक उत्पीड़न में, गहरे तक डूबी हुई है और पैरेंटहुड का मतलब आवश्यक रूप से, जन्म देना या क़ानूनी रूप से गोद लेना नहीं है. बहुत सी मिसालों में, ट्रांस समुदाय पहले ही परिवार के पारंपरिक विचार को उलट कर, उसे फिर से परिभाषित करता है.

उन्होंने बहुत सफाई से इस बात को रखा, ‘कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं, जिनमें समलैंगिक और ट्रांसजेंडर लोग एक घर के तौर पर साथ रहते हैं. कभी कभी जो प्यार और समर्थन, हमें अपने परिवारों से नहीं मिलता, वो अपने ट्रांस-मित्रों से मिल जाता है. मैंने अपने से छोटे ट्रांस युवाओं को सहारा दिया है और कुछ अपने से बड़ों का सम्मान करती हूं. और भविष्य में, भले ही मैं किसी बच्चे को गोद न लूं, लेकिन मैं एक छोटा सा घर बनाना चाहूंगी, जो किसी भी ऐसे समलैंगिक का आसरा बन सके, जिसे रहने के लिए किसी जगह की ज़रूरत हो. वो किसी छोटे समलैंगिक परिवार की तरह होगा’.

(तरिणी मेहता एक 23 वर्षीय स्वतंत्र पत्रकार हैं, जो पहले दि हिंदू, दि डिप्लोमैट और स्टोरीज़एशिया में छप चुकी हैं. वो दिल्ली में रहती हैं, और गवर्नेंस तथा कल्चर पर लिखती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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