त्रिपुरा के मुख्यमंत्री के रूप में अपने इस्तीफे के दस दिन बाद, बिप्लब कुमार देब अभी भी अपना सिर खुजा रहे होंगे. पहले उन्होंने एक उभरते सितारे के तौर पर अपने धुरंधर साथियों को धराशायी किया है, लेकिन आज उनके पास अमेरिकी गायक जॉन एंडरसन को सुनने की सही वजह है: ‘Would you catch a fallen star before he crashes to the ground/ Don’t you know how people are/ nobody loves you when you are down.'(क्या आप एक टूटते हुए तारे को जमीन पर गिरने से पहले बचाना चाहेंगे / क्या आप नहीं जानते कि लोग कैसे हैं / जब आपके सितारे गर्दिश में होते हैं तो कोई भी आपको नहीं चाहता है.)
देब निश्चित रूप से जानते हैं कि कोई भी टूटे हुए तारे को नहीं बचाना चाहता और ऐसे टूटे हुए तारे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में कई हैं. आनंदीबेन पटेल को छोड़कर, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक करीबी सहयोगी है, उन्हें राजभवन में पुननिर्वाचित किया गया. अन्य बर्खास्त सीएम- गुजरात के विजय रूपानी, कर्नाटक के बी.एस. येदियुरप्पा, उत्तराखंड के त्रिवेंद्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत – आज राजनीतिक हाशिए पर हैं. ऐसे ही कई मंत्री भी हैं जो कभी मोदी कैबिनेट की उनके चमचमाते सितारे हुआ करते थे.
देब का सपना धराशायी हो गया
बिप्लब देब के लिए यह एक सपनो की दौड़ थी. जनवरी 2016 में जब उन्हें त्रिपुरा भाजपा अध्यक्ष नियुक्त किया गया, तब वह बमुश्किल 44 साल के थे. वह सभी भूमिकाओं पर खरे उतरते चले गए. जनसंघ के एक नेता के बेटे, जिन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के के.एन. गोविंदाचार्य और कृष्ण गोपाल जैसे नेताओं ने तैयार किया था. वह गोपाल ही थे जिन्होंने देब को 2015 में त्रिपुरा में पार्टी के लिए काम करने के लिए दिल्ली छोड़ने के लिए कहा था और बाद में उन्होंने अपनी योग्यता साबित की. जब उन्होंने एक साल बाद भाजपा अध्यक्ष के रूप में पदभार संभाला, तो पार्टी राज्य में लगभग न के बराबर थी. 2013 के विधानसभा चुनाव में लगभग 1.5 प्रतिशत वोट तो हासिल किए लेकिन कोई सीट नहीं जीती थी. उन्होंने 2018 में 25 साल पुरानी वामपंथी नेतृत्व वाली सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए भाजपा का नेतृत्व किया. इसके लिए मोदी-शाह की जोड़ी को अगली पीढ़ी के एक और नेता को तैयार करने और बढ़ावा देने का श्रेय मिला.
आज 50 साल की उम्र में बिप्लब देब सोच रह होंगे कि उन्होंने आखिर ऐसा क्या किया जिस वजह से उन्हें अगले विधानसभा चुनाव से महज नौ महीने पहले बर्खास्त कर दिया गया. अगर यह उनकी विवादास्पद बयान देने और गलतियां करने की आदत थी, तो भाजपा के अधिकांश मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री अब तक बाहर हो चुके होते. राजनीतिक विरोधियों और मीडिया से निपटने के मामले में भी यही बात सच होती है.
अगर त्रिपुरा में भाजपा की चुनावी गणना की बात करें, तो देब प्रशासन निश्चित रूप से काम कर रहा था. या इसे पिछले नवंबर में त्रिपुरा निकाय चुनावों के परिणामों से जाना जा सकता है. भाजपा ने सभी 14 नगरीय निकायों में जीत हासिल की और 222 सीटों में से 217 पर अपना कब्जा जमाया.
जब देब ने 14 मई को इस्तीफा दिया, तो केंद्रीय भाजपा नेताओं की ओर से स्पष्टीकरण दिया गया कि वह पार्टी और सरकार में गुटबाजी को रोकने में विफल रहे. बीजेपी से कांग्रेस में शामिल हुए दो विधायक सुदीप रॉय बर्मन और आशीष कुमार साहा ने फरवरी में पार्टी छोड़ दी थी.
वैसे लगता है कि बिप्लब देब के पद से हटने के बाद भी त्रिपुरा भाजपा एकजुट नहीं हुई है. शुक्रवार को त्रिपुरा के कानून मंत्री रतन लाल नाथ ने पूर्व सीएम को एक नए मुकाम पर पहुंचा दिया. इंडियन एक्सप्रेस ने नाथ के हवाले से कहा, ‘जहां लोग पैदा होते हैं, वहां पैदा होने का एक उद्देश्य होता है … उदाहरण के लिए, हमारे देश में नेताजी सुभाष चंद्र बोस, रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, विवेकानंद या आइंस्टीन … हर कोई हर जगह पैदा नहीं होता है. त्रिपुरा के लिए यह अच्छा है कि बिप्लब कुमार देब का जन्म यहां हुआ’ कानून मंत्री ने पूर्व सीएम को ‘जनता का नेता’ कहा, जिन्होंने राज्य को एक नई दिशा ‘एक नया सपना’ दिया.
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साहा की चुनौतियां
त्रिपुरा के नए मुख्यमंत्री माणिक साहा, देब की जगह आए हैं, लेकिन उन्हें अपने कैबिनेट सहयोगियों पर अपने पूर्ववर्ती के प्रभाव से ईर्ष्या होगी. रतन लाल नाथ का संदेश प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर असर डाल सकता है. साहा अन्य कैबिनेट सहयोगियों के कंधे पर हाथ रखने पर भी सतर्क रहेंगे. विधायक राम प्रसाद पॉल, जिन्होंने पार्टी की उस बैठक में शोर मचाया और कुर्सी तोड़ दी थी, जहां साहा को देब के उत्तराधिकारी के रूप में घोषित किया गया था, कैबिनेट में अपनी जगह पर बरकरार बने हुए हैं. पिछले फरवरी में वह भाजपा नेताओं के उस 15-सदस्यीय समूह का हिस्सा थे, जिसने उस समय पार्टी अध्यक्ष साहा को पत्र लिखा था और उनसे 26 महीने के लंबे कार्यकाल में भाजपा को ‘बर्बाद’ करने के लिए उनका इस्तीफा मांगा था.
जाहिर है, साहा ने 2016 में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने की अपनी ‘वजह’ को साकार कर लिया है. भाजपा 50 वर्षीय मुख्यमंत्री की जगह 69 साल के मुख्यमंत्री को लेकर आई है. जिसने पंचायत, विधानसभा या लोकसभा स्तर पर कभी भी कोई सीधा चुनाव नहीं लड़ा है. अगला विधानसभा चुनाव नौ महीने दूर है, लेकिन उन्हें अगले छह महीनों के भीतर विधायक के रूप में निर्वाचित होना है.
हालांकि, बीजेपी आलाकमान के लिए यह कोई चिंता की बात नहीं है. वे मुख्यमंत्री बनने के बाद तीरथ सिंह रावत के विधायक के रूप में चुने जाने के बारे में भी निश्चित नहीं थे. लेकिन वे इसी तरह पुष्कर धामी की जगह पर उन्हें ले आए थे. यह उत्तराखंड के मतदाताओं के लिए मायने नहीं रखता था, है ना?
गुटबाजी भाजपा के लिए एक मुद्दा- क्या सच में ऐसा है
वैसे भी त्रिपुरा बीजेपी की बात करें तो गुटबाजी अगर मुद्दा होता तो आज बीजेपी शासित राज्यों के कई सीएम को भी अपना सिर खुजाना पड़ जाता. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से पूछें कि कैलाश विजयवर्गीय और गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा- दोनों पार्टी आलाकमान के करीबी हैं -उनके साथ क्या कर रहे हैं. चौहान हालांकि अपना मुंह बंद रखना चाहते हैं. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से पता करें कि वे राज्य के गृह मंत्री अनिल विज के बारे में क्या सोचते हैं, जो उनके सार्वजनिक दावों के विपरीत हर समय उन्हें सार्वजनिक रूप से कम आंकते हैं.
उन विधायकों और सांसदों की संख्या याद है जिन्होंने उत्तर प्रदेश में सीएम योगी आदित्यनाथ द्वारा महामारी को संभालने के तरीके पर सार्वजनिक रूप से असंतोष व्यक्त किया था?
अगर विधायकों के इस्तीफे और एक सहयोगी- इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) की नाखुशी के कारण मुख्यमंत्री को बदलने की जरूरत महसूस हुई है तो बिप्लब देब को यह याद भी रखना चाहिए कि कैसे भाजपा आलाकमान ने 2020 में बीरेन सिंह सरकार को बचाया था. सहयोगी दल -नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) के एक मंत्री ने सीएम बीरेन सिंह के खिलाफ विद्रोह किया और इस्तीफा दे दिया था और क्या झारखंड में रघुबर दास के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर के बारे में हाईकमान को पता नहीं था? 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद मोदी-शाह द्वारा मुख्यमंत्री बनाए गए दास को 2019 में उनके पूर्व कैबिनेट सहयोगी सरयू रॉय ने हराया था.
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कोई तुक या कारण नहीं
कहानी का सार यही है- जब भाजपा आलाकमान द्वारा मुख्यमंत्री बनाने या पद से हटाने की बात आती है तो तुक और कारण की तलाश न करें. बिप्लब देब अपनी सभी नासमझियों के लिए पूछ सकते हैं: ‘अगर मुझे इस या उस कारण से बर्खास्त करना पड़ा, तो यहां और वहां के मेरे समकक्षों के साथ क्या किया जा रहा है?’ लेकिन अगर वह सीएम को हटाने के लिए आलाकमान के कारणों या मापदंड की तलाश करते हैं, तो ऐसा कोई कारण नहीं है.
पीएम मोदी और अमित शाह को हमेशा साहसिक निर्णय लेने के लिए सम्मानित किया जाता रहा है- आनंदीबेन पटेल और येदियुरप्पा को उनकी बढ़ती उम्र के कारण, रावत को उनके गैर-प्रदर्शन के कारण और रूपानी को गुजरात सरकार को एक नया रूप देने और सत्ता-विरोधी रूख से बचने के लिए इन सभी को मुख्यमंत्री के पद से हटाया गया था. कम से कम भाजपा आलाकमान को तो लोगों को यही विश्वास दिलाना होगा. कोई भी इनके राजनीतिक ज्ञान पर सवाल नहीं उठा सकता है क्योंकि इनके तथाकथित साहसिक फैसलों ने 2017 में गुजरात में विधानसभा चुनाव और 2022 में उत्तराखंड में पार्टी के लिए काम किया. खाना कैसा बना है ये तो उसका स्वाद ही बताता है, सही है न ?
कोई आश्चर्य नहीं कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने येदियुरप्पा की जगह लेने के बाद से पिछले 10 महीनों में आठ बार दिल्ली का दौरा किया है. पिछले दो महीनों में जब से प्रमोद सावंत ने दूसरी बार गोवा के सीएम के रूप में शपथ ली है, उन्होंने दिल्ली के तीन दौरे किए हैं. भाजपा के अन्य मुख्यमंत्रियों के दिल्ली दौरे पर नजर दौड़ाएं. रविवार को दिल्ली में आरएसएस से जुड़ी मैगजीन ऑर्गनाइजर और पांचजन्य की ओर से आयोजित मीडिया कॉन्क्लेव में बीजेपी के आठ सीएम मौजूद थे. हालांकि कोई उन्हें दोष नहीं दे सकता. वे अपने लोगों को घर वापस तभी बुला सकते हैं जब वे जीवित रहने की कला सीखें और दिल्ली दरबार इसकी चाबी है.
जहां तक बिप्लब देब का सवाल है, तो वे जॉन एंडरसन के इस गीत को सुनें: ‘Sing a golden country song if you’ll catch a fallen star.’ जिसमें संकेत छिपा है कि अगर आप विपरीत परिस्थितियों में बच कर उठकर खड़े हो जाते है तो आपको खुश होना चाहिए.
(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. वह @dksingh73 पर ट्वीट करते हैं. ये विचार निजी हैं.)
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