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Sunday, 22 December, 2024
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अटल की राह तो कब की छोड़ आई बीजेपी! अब यह वह भाजपा नहीं रही जो पहले थी

एक बार पंडित नेहरू द्वारा जनसंघ की धुंआंधार आलोचना के बाद उन्होंने कहा कि पंडित जी खूब शीर्षासन करें, लेकिन करते हुए मेरी पार्टी की उलटी छवि न देखें, तो नेहरू हंसने लगे थे.

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‘भारतरत्न’ व ‘पद्मविभूषण’ से विभूषित पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी (जो अपनी कुशल वक्तृत्व क्षमता, कवि कर्म और पत्रकारिता के लिए भी कुछ कम नहीं जाने जाते) को हमारे बीच से गये अभी महज चार साल ही हुए हैं, लेकिन भारतीय जनता पार्टी (जो उनके द्वारा संस्थापित की गई और अब नरेन्द्र मोदी के कब्जे में है) द्वारा उनके विचारों, नसीहतों व नीतियों के प्रति बरती जा रही बेगानगी से लगता है कि वह उनके रास्ते को चार युग पीछे छोड़ आयी है! इसलिए उनकी जयंतियों व पुण्यतिथियों पर उसके नेताओं द्वारा उन्हें दी जाने वाली ‘भावभीनी श्रद्धांजलियां’ भी श्रद्धांजलियां कम, तिलांजलियां ज्यादा लगती हैं.

यों सच्चाई यह है कि न सिर्फ भाजपा बल्कि समूचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार ने अटल के इस संसार में रहते ही उनके युग को समाप्त मान लिया था. उनके उपेक्षा भरे अंतिम दिन तो इसके गवाह हैं ही, यह तथ्य भी है कि उनके प्रधानमंत्रित्व काल में उन पर जितने भी निर्मम या निजी हमले हुए, इस परिवार की पंक्तियों से ही हुए, जबकि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने खुद को उनकी रीति-नीति की आलोचनाओं तक ही सीमित रखा. निस्संदेह, इसके पीछे अटल की क्रॉसपार्टी स्वीकार्यता थी, जो उन्हें दलीय सीमाओं के पार आदरणीय बनाती थी.

PM मोदी के खिलाफ असहमति दर्ज करना भी मुश्किल होता है

इसके विपरीत वर्तमान ‘मोदी युग’ में, कुछ बेहिस फुसफुसाहटों (जैसे कभी नितिन गडकरी का रुख मोदी विरोधी हो जाता है और कभी कहा जाता है कि योगी उनके लिए संकट बन सकते हैं) को अपवाद मान लें तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध भाजपा या संघ परिवार के भीतर से कोई हमला तो खैर क्या होगा, असहमति भी नहीं ही दर्ज कराई जाती क्योंकि अटल के सर्वथा विपरीत ध्रुव पर खड़े होकर उन्होंने ऐसे हमलों के जोखिम बहुत बड़े कर दिये हैं. जानकार इसे यों समझाते हैं कि अटल अपना ‘राइट मैन इन रॉन्ग पार्टी’ होना एन्ज्वाय तो करते ही थे, उसके लिए पार्टीलाइन तोड़ने से भी परहेज नहीं करते थे. फिर भी वे उसकी मजबूरी थे, क्योंकि उन दिनों एकमात्र उनका नेतृत्व ही उसे ‘राजनीतिक अस्पृश्यता’ से उबार सकता था. उन दिनों अटल न होते तो भाजपा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाकर देश की सत्ता में आने का सपना ही नहीं देख पाती.

इसलिए वह उनके रास्ते पर चलती तो थी उन्हें लेकर वैसी निहाल नहीं होती थी (खासकर जो लोग अटल जी के बजाय आडवाणी की लाइन लेते थे) जैसी मोदी को लेकर होती है. होना भी चाहतीं तो विपक्ष की ‘रॉन्ग पार्टी’ की तोहमत से शर्मिंदगी महसूस करती थी.

याद कीजिए, 27 मई, 1996 को अपनी तेरह दिन पुरानी सरकार के विश्वासमत प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए अटल ने लोकसभा में कहा था, ‘इस चर्चा में एक स्वर बार-बार सुनाई दिया है कि बाजपेयी तो अच्छा है मगर पार्टी….!’ उन्होंने जान-बूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया तो विपक्षी पांतों से आवाजें आई थीं, ‘सही है, सही है.’ तब उन्होंने अपने ही अंदाज में यह पूछकर महफिल लूट ली थी कि ‘इस अच्छे वाजपेयी का आप क्या करने का इरादा रखते हैं?’ स्वाभाविक ही, शो उनके नाम हो गया था और पार्टी पीछे छूट गई थी.

उन्होंने यह भी कहा था कि ‘सरकारें आयेंगी, जायेंगी. पार्टियां बनेगी, बिगड़ेंगी. मगर ये देश रहना चाहिए. इस देश का लोकतंत्र रहना चाहिए.’

लेकिन आज भाजपा लगभग सारे मामलों में वही दृष्टिकोण अपनाती है, जिससे उसके निहित स्वार्थ सधें और सत्ता दीर्घजीवी हो. इसीलिए अटल से ज्यादा वक्त तक प्रधानमंत्री रह लेने के बाद भी, कोई मोदी को विपक्ष से इस भाषा में संवाद में सक्षम नहीं मानता. अलबत्ता, वे उसका जैसा मानमर्दन करते हैं, अटल नहीं ही कर सकते थे. वे तो करारे से करारा प्रहार करते हुए भी चोट खाने वाले के आत्मीय बने रहते थे- हां, सदाशयी भी.


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अटल जी की आलोचना पर नेहरू भी मुस्कुराते थे

एक बार पंडित नेहरू द्वारा जनसंघ की धुंआंधार आलोचना के बाद उन्होंने कहा कि पंडित जी खूब शीर्षासन करें, लेकिन करते हुए मेरी पार्टी की उलटी छवि न देखें, तो नेहरू हंसने लगे थे. इसके बरक्स मोदी राहुल को इंगित कर कहते हैं कि कुछ लोगों की उम्र तो बढ़ती जाती है लेकिन अक्ल नहीं बढ़ती तो क्या अपनी कदाशयता ही नहीं जाहिर करते?

अटल ‘अजातशत्रु’ थे तो इसलिए कि वे विरोधियों के अंध-आलोचक नहीं थे. ज़रूरी लगा तो उन्होंने श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और पीवी नरसिंहराव की तारीफें भी कीं. कभी किसी विपक्षी नेता को खलनायक या देशद्रोही वगैरह नहीं ठहराया. फिर भी भाजपा ने उन्हें भुलाकर उनकी विरोधी प्रवृत्तियों के पोषक मोदी को ‘स्वाभाविक महानायक’ बना लिया है, तो कोई उन्हें ‘रॉन्ग मैन इन रॉन्ग पार्टी’ कहे या ‘राइट मैन इन राइट पार्टी’, भाजपा को भी मालूम है और मोदी को भी कि वे अटल जैसी क्रॉसपार्टी स्वीकार्यता की कल्पना तक नहीं कर सकते. उनके प्रधानमंत्रित्वकाल में उनकी सारी ‘चुनावी दिग्विजयों’ के बावजूद उन पर ‘बाहर’ से वैसे हमले बढ़ते ही गये हैं, जैसे अटल पर ‘भीतर’ से हुआ करते थे.

अटल के वक्त तक भाजपा, ‘महानायकों की तानाशाही’ (जब कोई नेता किसी भी तरह अपना कद इतना बड़ा कर लेता है कि  उसके आगे पार्टी की लोकतांत्रिकता बौनी पड़ जाती है) को लेकर कांग्रेस की कट्टर आलोचक थी और अपने सामूहिक नेतृत्व पर गर्व करती थी. लेकिन अब इस मामले में भी बीजेपी अपनी धुरी पर पूरे तीन सौ साठ अंश घूम गई है. ‘तानाशाही’ प्रवृत्ति ने उसके भीतर इतनी जड़ जमा ली है कि और तो और केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बैठकों में नितिन गडकरी के अपवाद को छोड़कर कोई मंत्री ‘महानायक’ के किसी फैसले का विनम्र विरोध भी नहीं कर पाता.

अटल के समय सामूहिकता के नाम पर कम से कम उनकी, लालकृष्ण आडवाणी व मुरलीमनोहर जोशी की तिकड़ी हुआ करती थी. जोशी दौड़ में पिछड़ गये तो भी अटल व आडवाणी तो होते ही थे. लेकिन मोदी की पहली पारी के नम्बर दो राजनाथ और दूसरी पारी के अमित शाह दोनों में किसी की वह हैसियत नहीं, जो अटल के दौर में आडवाणी की थी. क्योंकि पहले व दूसरे नम्बर के बीच की दूरी अप्रत्याशित रूप से बहुत बढ़ा दी गई है.

गौरतलब है कि अटल व आडवाणी के मतभेद कई बार ‘टायर्ड’ और ‘रिटायर्ड’ जैसी बहुचर्चित कड़वाहटों तक चले जाते थे. मगर अब उस स्थिति की कल्पना तक नहीं की जाती क्योंकि मत रखने का हक सिर्फ महानायक के पास रह गया है.
अटल के वक्त तक देश में वामदलों की तरह भाजपा कार्यकर्ता आधारित ज्यादा हुआ करती थी, नायक आधारित कम. लेकिन अब चुनाव जीतने के बाद मोदी कार्यकर्ताओं की मेहनत की बलैया लेते नहीं थकते, तो भी छिपता नहीं कि महानायक का करिश्मा कार्यकर्ताओं की मेहनत पर भारी हो चला है. यही कारण है कि शक्तियों के विकेन्द्रीकरण को धता बताकर प्रायः सारे फैसले ऊपर ही ऊपर लिए जाते हैं.

अब कोई भी सहयोगी दल भाजपा से दूर जाता है तो सबसे पहले यही ताना मारता है कि वह अटल आडवाणी की भाजपा नहीं रही. चाहे 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा छोड़ने वाले अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री गेगांग अपांग हों या गत अगस्त में फिर से राजग छोड़ने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश. 2019 में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह को भेजे इस्तीफे में गेगांग अपांग ने लिखा था: भाजपा अब एक नेता की मुट्ठी में है, जो लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया से नफरत करता है और उन मूल्यों को नहीं मानता, जिनके लिए पार्टी की स्थापना हुई थी. ज्ञातव्य है कि अटल पार्टी के संस्थापकों में थे और उन्होंने उसमें मुसलमानों के प्रवेश का दरवाजा खोला था.


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अटल डॉक्ट्रिन के खिलाफ हैं मोदी के फैसले

गौरतलब है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा द्वारा ‘अजय भारत, अटल भाजपा’ का नारा देने के बाद भी यह कहने वाले कम नहीं ही हुए हैं कि 2014 के पहले की भाजपा और थी और उसके बाद की और है. नई भाजपा में ऐसे ज्यादातर नेता हाशिये पर डाल दिये गये हैं, जिन्हें अभी भी ‘अटल की भाजपा’ की खुमारी है या जिन्हें लगता है कि जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में मोदी सरकार के प्रायः सारे फैसले अटल के ‘कश्मीरियत, जम्हूरियत और इन्सानियत’ के आह्वान के (जिसे ‘अटल डाक्ट्रिन’ कहा जाता है) विलोम हैं.

फिर भी कहने वाले कहते ही हैं कि 2014 के बाद की भाजपा व उसकी सरकारों ने देश के अन्दर दरारों पर दरारें पैदाकर उसके लोकतंत्र को जिस तरह बहुसंख्यकवाद के हवाले कर दिया है, अटल के रहते नहीं कर सकती थीं. इन सरकारों ने अपनी कुछ योजनाओं को अटल का नाम जरूर दिया है लेकिन उस राजधर्म को तो अपने एजेंडे से ही बाहर कर दिया है, जिसके पालन की नसीहत अटल ने 2002 के गुजरात दंगों के बाद वहां के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को दी थी. कई भाजपाई मुख्यमंत्री व मंत्री अब अल्पसंख्यकों के खिलाफ आक्रामक रवैये व हिंसा का औचित्य सिद्ध करते नहीं लजाते.

अटल अपने पूरे जीवन में किसी बात को संख्या के बल पर गले के नीचे उतरवाने की कोशिशों के आलोचक रहे, लेकिन आज प्रबल बहुमत के गुरूर में भाजपा आमतौर पर विपक्ष की बोलती बंद कराने पर उतारू रहती है. ऐसे में आश्चर्य तो तब होना चाहिए जब अटल को दी गई उसकी श्रद्धांजलियां तिलांजलियां न लगें.

(संपादनः शिव पाण्डेय)


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