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Thursday, 25 April, 2024
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सपा मैनपुरी उपचुनाव में विरासत बचाने तो भाजपा किला ढहाने की तैयारी में लगी

यों, पिछले दिनों अतिआत्मविश्वास में अखिलेश यादव द्वारा खाली की गई आजमगढ़ लोकसभा सीट सस्ते में गंवा चुकी सपा मैनपुरी में अपने संस्थापक मुलायम सिंह यादव की विरासत बचाने की लड़ाई में किसी भी तरह से पिछड़ने को तैयार नहीं है.

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अस्तित्व में आने के बाद से ही सपा का अभेद्य गढ़ रही उत्तर प्रदेश की मैनपुरी लोकसभा सीट के हाईप्रोफाइल उपचुनाव में चुनावी सेनाओं के मैदान में उतरकर दो-दो हाथ शुरू करने से पहले प्रतिद्वंद्वी पार्टियां भीषण मनोवैज्ञानिक युद्ध में उलझी हुई हैं और खुद को सुभीते की स्थिति में पा रही भाजपा इसे जीतने के लिए कुछ भी उठा नहीं रख रही. उसके सेनापति कहें कुछ भी, यह तथ्य छिपा नहीं पा रहे कि वे इस युद्ध को ‘वेल बिगन इज हाफ डन’ के तौर पर ले रहे हैं. क्योंकि उन्हें मालूम है कि इसे जीते बगैर वे मैदानी युद्ध में शायद ही कोई पराक्रम प्रदर्शित कर सके.

यों, पिछले दिनों अतिआत्मविश्वास के चलते अपने सुप्रीमो अखिलेश यादव द्वारा खाली की गई आजमगढ़ लोकसभा सीट सस्ते में गंवा चुकी समाजवादी पार्टी भी मैनपुरी में अपने संस्थापक मुलायम सिंह यादव की विरासत बचाने की लड़ाई में किसी भी तरह उससे पिछड़ने को तैयार नहीं है. इसलिए कभी ‘दूध की जली’ वह मट्ठा भी फूंक-फूंक कर पीती दिखाई देती है और कभी नहले पर दहला मारने के फेर में. इस भुलावे में भी वह नहीं ही रहना चाहती कि इस उपचुनाव में तो मुलायम (जो 2019 के लोकसभा चुनाव में इसी सीट से चुने गये थे) के निधन से उसके प्रति उमड़ी सहानुभूति लहर ही उसकी नैया पार लगा देगी.

चूंकि भाजपा व सपा दोनों में कोई किसी सो कम नहीं है, इसलिए जाड़े की अगवानी कर रहे उत्तर प्रदेश में दोनों के बीच छिड़े इस युद्ध ने न सिर्फ मैनपुरी बल्कि समूचे प्रदेश के राजनीतिक माहौल को चुटीला और मजेदार बना रखा है. मिसाल के तौर पर: इस उपचुनाव की घोषणा हुई नहीं कि भाजपा की ओर से कहा जाने लगा कि इस बार वह पूरी ताकत से लड़ेगी और सपा से यह सीट छीनकर ही दम लेगी, तो प्रदेश की राजनीति के जानकारों ने इसका भरपूर मजा लिया.


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यह पूछकर कि क्या 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने बिना पूरी ताकत लगाये ही मुलायम के वोट बैंक में सेंध लगाते हुए उनकी जीत का अंतर एक लाख वोटों से भी कम कर डाला था? वह भी जब उनकी पार्टी का बसपा से गठबंधन था और वे उसे अपना आखिरी चुनाव बताकर इमोशनल कार्ड भी चल रहे थे. क्या पूरी ताकत लगाये बिना ही उस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी प्रेम सिंह शाक्य ने मुलायम को 10.71 प्रतिशत कम मतों पर समेटकर खुद 11.30 प्रतिशत ज्यादा मत प्राप्त कर लिये थे? अगर हां तो क्या तब भाजपा ने अपनी ताकत उनके निधन के बाद उपचुनाव में इस्तेमाल के लिए बचा ली थी?

इस पर भाजपा का ‘जवाब’ यह था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत उसके सारे दिग्गज नेता मुलायम का बहुत सम्मान करते रहे हैं, इसलिए वे कभी उनके खिलाफ प्रचार में इस हद तक नहीं गये कि वे लोकसभा ही न पहुंच सकें. इस ‘जवाब’ को लेकर फिलहाल, किसी ने नहीं पूछा कि तब वे ‘मुलायम की बहू’ का सम्मान ही कम क्यों करना चाहते हैं?

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लेकिन तथ्य यही है कि भाजपा डिंपल को हरा भी दे (गो कि इस देश में वोटरों के सहानुभूति की लहर में बह जाने की पुरानी परम्परा उसे शायद ही ऐसा करने दे) तो भी कोई रेकार्ड नहीं ही बनायेगी. क्योंकि न सिर्फ डिंपल बल्कि उनकी देवरानी अर्थात मुलायम की छोटी बहू अपर्णा ने भी (जो अब भाजपा के ही पाले में हैं) अपनी चुनावी राजनीति का हार से ही आगाज किया है.

साफ है कि मुलायम की बहुओं की अजेयता का कोई मिथक नहीं है. उनमें डिंपल अब तक दो लोकसभा चुनाव हार चुकी हैं और दो ही जीत चुकी हैं. वे एक बार कांग्रेस के तो दूसरी बार भाजपा के उम्मीदवार से हारी हैं. इसलिए इस बार मैनपुरी के मतदाता उन्हें जितायेंगे तो वे तीसरी जीत हासिल करेंगी और हरा देंगे तो तीसरी हार यानी अभूतपूर्व या पहली बार जैसा कुछ नहीं होने वाला.

प्रसंगवश, 2009 में उन्होंने सुहागनगरी कहे जाने वाले फिरोजाबाद की लोकसभा सीट के उपचुनाव से चुनावी राजनीति में पहला कदम रखा तो उनका मुकाबला सपा से बगावत कर कांग्रेस में चले गये फिल्म अभिनेता राज बब्बर से हुआ और वे लोकसभा का मुंह नहीं देख पाईं. उन्हें दूसरी शिकस्त 2019 के लोकसभा चुनाव में इत्रनगरी कन्नौज सीट पर मिली, जहां वे मोदी लहर की शिकार हो गईं और भाजपा के सुब्रत पाठक के हाथों बाजी गंवा बैठीं- उनका एक रैली में बुआ मायावती का पैर छूना भी कुछ काम नहीं आ पाया.

मुलायम परिवार को उनकी इस हार की कसक अभी भी सालती रहती है. पिछले दिनों अखिलेश यादव ने तो यह तक कह दिया था कि अब डिंपल कोई चुनाव नहीं लड़ेंगी. लेकिन क्या पता, अब उन्हें यह बात याद है या नहीं कि उन्होंने 2009 का आम चुनाव कन्नौज के साथ फिरोजाबाद सीट से भी जीता था. बाद में फिरोजाबाद सीट छोड़ी तो उपचुनाव में डिंपल यादव को प्रत्याशी बनाया था. लेकिन ‘मुलायम की बहू’ पर ‘कांग्रेस का फिल्मी राज बब्बर’ भारी पड़ा था और राज बब्बर के 3,12728 के मुकाबले डिंपल को 227781 वोट ही मिले थे.

हालांकि 2012 में अखिलेश मुख्यमंत्री बन गये और कन्नौज लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ तो डिंपल निर्विरोध सांसद चुन ली गईं और 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के सुब्रत पाठक को 19 हजार वोटों से हराकर सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखा. लेकिन 2019 में सुब्रत पाठक के ही हाथों उसे गंवा भी दिया. उनकी यह हार इतनी अप्रत्याशित थी कि उससे प्रायः सभी सपा नेता अवाक रह गये थे. मुलायम की छोटी बहू अपर्णा यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव में लखनऊ कैंट सीट से चुनावी राजनीति में डेब्यू किया तो डिंपल की ही तरह भाजपा की रीता बहुगुणा से हार गई थीं.

लेकिन कोई रेकार्ड बने या नहीं, भाजपा के मनोवैज्ञानिक युद्ध के महारथी बहुत जोश में हैं. वे कह रहे हैं कि अब तो बहन जी (बसपा सुप्रीमो मायावती) ने भी कह दिया है कि सपा में भाजपा को हराने का बूता नहीं बचा है. वे बहन जी को ही नहीं, मुलायम के छोटे भाई शिवपाल व छोटी बहू अपर्णा को भी इस युद्ध में अपने सैनिक बना ले रहे और दावा कर रहे हैं कि युद्ध आंकड़ों से नहीं हौंसले से जीते जाते हैं और सपा को लगातार चार चुनाव हराने के बाद भाजपा हौंसले से भरी हुई है.

आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीटों पर सपा के किले ढहाने के बाद उसका आत्मविश्वास चरम पर है, जिसके बूते वह बिना मौका चूके उसका मैनपुरी का किला भी ढहा देगी. इन महारथियों को लगता है कि मुलायम की गैरहाजिरी में उनके मैनपुरी के किले को ढहाना आसान हो गया है- भले ही ज्यादातर लोग अब भी यही कहते हैं कि इस बार वहां सपा के पक्ष में प्रचंड सहानुभूति की लहर चलेगी.

आंकड़ों पर जायें तो मुलायम को मैनपुरी से 60-62 फीसदी तक वोट मिलते रहे हैं- भाजपा वहां उनके धुर विरोधी अशोक यादव को उनके खिलाफ उतारकर भी हार जाती रही है और मशहूर भजन गायिका तृप्ति शाक्य को उतारकर भी. 2019 में उसने अपने प्रत्याशी प्रेम सिंह शाक्य के पक्ष में पूरी ताकत झोंक दी थी, फिर भी मुलायम की जीत का अंतर कम होने के अलावा कुछ नहीं कर पाई. हां, बसपा से गठबंधन के बावजूद सपा के दबंग यादववाद से पीड़ित दलितों के सपा को वोट न देने और अति पिछड़ों के भाजपा की और चले जाने को भाजपा की बड़ी सफलता माना जाता है. इस बार भी वह इन्हीं के बूते बड़ा चमत्कार करने के फेर में है.

सपा की बात करें तो उसके द्वारा डिंपल से पहले तेज प्रताप यादव को प्रत्याशी बनाने की चर्चा थी. यह भी कहा जा रहा था कि वह अपने किसी अति पिछड़े नेता पर भी दांव लगा सकती है. इसके बजाय उसने डिंपल को मैदान में उतारा तो अति पिछड़ों की खुशी के लिए पार्टी की मैनपुरी इकाई का उनकी जाति का अध्यक्ष बनाया.

दूसरी ओर उसके मनोवैज्ञानिक युद्ध का एक बिहार कनेक्शन भी है. वह खुद को आश्वस्त दिखा रही है कि राजद नेता लालू यादव इतनी रिश्तेदारी तो निभा ही देंगे कि शिवपाल यादव को मैनपुरी में ऐसा कोई खेल न खेलने दें, जिसका भाजपा लाभ उठा सके. तब शिवपाल अपर्णा को डिम्पल से सीधे भिड़ाने की भाजपाई चाल में न फंसने को भी कह सकते हैं. इस बीच जदयू ने सभी दलों से अपील की है कि वे मैनपुरी में सपा के खिलाफ प्रत्याशी न उतारें, जबकि कांग्रेस पहले ही प्रत्याशी न उतारने का ऐलान कर चुकी है.

बहरहाल, आगे-आगे देखिये होता है क्या.

(संपादन: इन्द्रजीत)

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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