वीडियो कंटेट निर्माता और यूट्यूबर ध्रुव राठी ने हाल ही में एक वीडियो अपलोड किया है जिसका शीर्षक है द डिक्टेटर? ध्रुव राठी पूछते हैं कि क्या भारत में डेमोक्रेसी खत्म हो चुकी है? इसके बाद वे, मुख्य रूप से किसान आंदोलन और चंडीगढ़ मेयर चुनाव के हवाले से बताते हैं कि भारत तानाशाही के रास्ते पर चल पड़ा है. इस लेख को लिखे जाने तक, इस वीडियो को 1.5 करोड़ से ज्यादा लोग देख चुके हैं.
ये वीडियो भारत को “एक पार्टी, एक राष्ट्र” की ओर बढ़ता देश बताता है, जिसमें मीडिया की स्वतंत्रता खतरे में है, विधायकों की खरीद-बिक्री हो रही है, गवर्नर राज्यों में मनमानी कर रहे हैं, चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं रहा और जांच एजेंसियां विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर रही है. इन सब और ऐसी ही अन्य बातों के आधार पर कहा गया है कि नरेंद्र मोदी के शासन में भारत तानाशाही की ओर बढ़ रहा है.
मैं इस लेख में ये तर्क प्रस्तुत करूंगा कि अपने दोनों शासन काल में नरेंद्र मोदी मनमानी करने की जगह, बेहद संभलकर चल रहे हैं और अक्सर आम सहमति के बनने के इंतजार में वे अपने बड़े फैसलों को स्थगित कर देते हैं. इस मामले में वे रूस के तानाशाह व्लादिमीर पुतिन या दिवंगत इंदिरा गांधी की निरंकुशता से अलग हैं.
मैं नरेंद्र मोदी शासनकाल की कुछ घटनाओं का जिक्र कर रहा हूं, जब उन्होंने आम सहमति बनाने की कोशिश सफल न होने पर, अपने एजेंडे को स्थगित कर दिया या कदम वापस खींच लिए. ऐसा तब हुआ जबकि उन्होंने दोनों बार लोकसभा चुनाव खासे बहुमत से जीता है और पार्टी के अंदर उनके नेतृत्व को कोई चुनौती नहीं है. यानी वे मनमानी करने के लिए, तकनीकी तौर पर जैसा कि आरोप लगाया जा रहा है, बिल्कुल सक्षम हैं! आप यह कह सकते हैं कि भारत में किसी भी नेता को ऐसा ही होना चाहिए जो अधिकतम सहमति बनाकर चले या आप यह भी कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी टालमटोल करने वाले नेता हैं जो अक्सर फैसले लेने से कतरा जाते हैं. ये रहीं कुछ मिसालें.
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1. न्यायिक सुधार का अधूरा सपना और कोलिजियम सिस्टम की निरंतरता: 2014 के चुनावी घोषणापत्र में बीजेपी ने न्याय प्रक्रिया को तेज और असरदार बनाने का वादा किया था. न्यायिक नियुक्तियों के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग यानी नेशनल ज्यूडिशियल कमीशन बनाने की बात घोषणापत्र में शामिल की गई थी. नरेंद्र मोदी की प्राथमिकता में ये बात कितनी ऊपर थी, इसे इसी से समझा जा सकता है कि सरकार बनने के बाद उन्होंने सबसे पहले इस पर काम शुरू किया और संसद के दोनों सदनों से लगभग आम सहमति से नेशनल ज्यूडिशियल एप्वायंटमेंट कमीशन बिल, 2014 पारित कराया और 20 राज्यों की विधानसभाओं से इसका अनुमोदन भी हासिल किया. पर सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने इस कानून को निरस्त कर दिया और उसके बाद नरेंद्र मोदी ने कभी इस दिशा में कोई पहल नहीं की. न ही न्यायपालिका के इस आदेश को बेअसर करने के लिए कोई संविधान संशोधन ही लाया.
भारत में जनता की इच्छा सर्वोपरि है और ये इच्छा संसद और विधानसभाओं के जरिए अभिव्यक्त होती है. इसके बावजूद, संसद और विधानसभाओं की सहमति से बना कानून न्यायपालिका निरस्त कर देती है और जज अपनी नियुक्ति का अधिकार अपने हाथों में बनाए रखते हैं. कोई तानाशाह ऐसी स्थिति में जो कुछ करता या कर सकता था, वैसा कुछ भी नरेंद्र मोदी ने नहीं किया. इंदिरा गांधी ने कोर्ट के आदेश की कैसे धज्जियां उड़ाई थीं, वह ताज़ा इतिहास है. लेकिन मोदी ने शक्तियों के विभाजन के संवैधानिक सिद्धांत का आदर किया.
2. किसान कानून बने, पर लागू नहीं किए गए: 2020 में नरेंद्र मोदी की सरकार ने कृषि क्षेत्र में सुधार के अपने वादों के मुताबिक तीन कृषि कानून संसद में पास किए. कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम, कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम और आवश्यक वस्तुएं संशोधन अधिनियम के जरिए कृषि क्षेत्र की जड़ता को दूर करने का इरादा था. इसके जरिए किसानों को एपीएमसी सिस्टम के बाहर उपज बेचने के लिए स्वतंत्र करने और कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग की इजाज़त देने का मकसद था. लेकिन बड़े किसानों, खासकर पंजाब और हरियाणा के एमएसपी निर्भर किसानों को लगा कि एपीएमसी मंडियों का सिस्टम टूटा तो देर सबेर एमएसपी भी जाएगा और उनको इससे मिलने वाला फायदा खत्म हो जाएगा. इस आधार पर उन्होंने आंदोलन शुरु किया और ट्रैक्टर लाकर दिल्ली आने के तीन प्रमुख रास्तों को जाम कर दिया. नरेंद्र मोदी की सरकार ने उनके साथ कई दौर की बातचीत की, पर आंदोलनकारी किसान मानने को तैयार नहीं हुए. इसे देखते हुए सरकार ने किसान कानूनों का अमल रोक दिया. इस तरह खेती में सुधार का अपना एजेंडा नरेंद्र मोदी ने छोड़ दिया. क्या ये तानाशाह के काम करने का तरीका है?
3. जमीन अधिग्रहण में सुधार को लगा ग्रहण: अपने कार्यकाल के शुरुआती दिनों में ही नरेंद्र मोदी ने उद्योगों के लिए भूमि अधिग्रहण को आसान बनाने की कोशिश की. इस क्रम में सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार (संशोधन) बिल, 2015 पेश किया. इस बिल का मकसद 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून की कमियों को दूर करना था, क्योंकि 2013 के कानून ने उद्योगों के लिए भूमि अधिग्रहण को काफी जटिल बना दिया था. खासकर, 70 से 80 प्रतिशत आबादी की सहमति वाली धारा से काफी दिक्कतें आ रही थीं. भूमि अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव के मूल्यांकन की विधि भी एक प्रमुख अड़चन थी, जिसे नए बिल में दूर किया गया. पर इस बिल को लेकर विरोध बढ़ गया और विपक्ष और सिविल सोसायटी के संगठनों ने आंदोलन शुरू कर दिया. आखिरकार सरकार ने नौ सुधारों के साथ इस बिल को पास कराया. नरेंद्र मोदी के लिए ये बड़ा झटका था, पर आम सहमति के लिए उन्होंने अपने ही कानून को कमजोर कर दिया.
4. नागरिकता संशोधन बिल, सीएए कानून बना पर लगा न हो सका: पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न के कारण, 31 जनवरी, 2014 तक वहां से भारत आने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों यानी हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाइयों को भारतीय नागरिकता देने के लिए सरकार ने सीएए, 2019 कानून पास किया. इसे गजट में प्रकाशित भी कर दिया गया. इसके सबसे बड़े लाभार्थी बांग्लादेश से आए दलित हिंदू शरणार्थी होते, जिनकी संख्या एक से दो करोड़ के बीच हो सकती है. इस कानून के बनने से पहले इसे लेकर काफी विवाद हुआ और अब फिर से विवाद न हो जाए, इसके लिए सरकार ने बने हुए कानून को लागू नहीं किया. अब तक संबंधित नियम नोटिफाई नहीं किए गए हैं और इस तरह नए कानून से एक भी व्यक्ति को नागरिकता नहीं दी जा सकी. आम सहमति न होने पर नरेंद्र मोदी इसी तरह कानूनों को ठंडे बस्ते में डाल देते हैं. इसे तानाशाही प्रवृत्ति तो नहीं ही कहा जा सकता है.
5. यूनिफॉर्म सिविल कोड पर सुस्त चाल: सभी धर्मों के लिए समान नागरिकता बीजेपी का एक प्रमुख मुद्दा रहा है जिसे चुनाव घोषणापत्र में भी जगह मिलती रही है. पर दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद भी बीजेपी और नरेंद्र मोदी सरकार इसे लागू करने की जल्दी में नहीं है. सरकार जानती है कि ये एक विवादित मुद्दा है और इसे लागू करने की कोशिश की गई तो समाज का एक वर्ग विरोध करेगा. केंद्र सरकार ने अब तक इसे छुआ नहीं है. हालांकि हाल ही में उत्तराखंड सरकार ने यूनिफॉर्म सिविल कोड का कानून पारित किया है. मोदी सरकार शायद इसे राज्य सरकारों के जरिए क्रमिक रूप से लाएगी और प्रतिक्रिया का लगातार अध्ययन करती रहेगी. मोदी सरकार पर ये आरोप नहीं लग सकता कि उसे जन भावनाओं की परवाह नहीं है, बेशक वे समाज के एक हिस्से या अल्पसंख्यक हिस्से की भावनाएं ही क्यों न है.
6. ओबीसी की बंटवारा और रोहिणी कमीशन रिपोर्ट: अति पिछड़ों को लाभ देने के घोषित उद्देश्य से मोदी सरकार ने अक्टूबर 2017 में, अनुच्छेद 340 के तहत, अन्य पिछड़े वर्गों के लिए एक आयोग बनाया जिसकी अध्यक्षता दिल्ली हाई कोर्ट की रिटायर्ड चीफ जस्टिस जी. रोहिणी को सौंपी गई. इस आयोग ने संभलकर काम शुरू किया और इसे 13 बार कार्य विस्तार दिया गया. आखिरकार पिछले साल अगस्त महीने में आयोग ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दी. तब से ये रिपोर्ट सरकार के पास है, पर ओबीसी का एक हिस्सा विरोध न कर दे, इस आशंका से सरकार इस मामले में जल्दबाजी नहीं कर रही है. ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी इसे अधिकतम सहमति से ही लागू करेंगे.
7. महिला आरक्षण कानून, अभी और इंतजार: लंबे इंतजार के बाद कानून तो बन गया कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा. पर साथ में ये व्यवस्था की गई है कि 2029 के बाद ही कानून लागू होगा. इससे पहले जनगणना की रिपोर्ट चाहिए, जिसके आधार पर सीटों का डिलिमिटेशन होगा. यानी इस कानून को भी जल्दबाजी में लागू करने से परहेज किया जा रहा है. सरकार को मालूम है कि जिन सांसदों ने इस कानून के पक्ष में वोट डाला है, वे भी इसे लेकर सशंकित हैं और साथ ही इस आरक्षण में ओबीसी के लिए अलग से आरक्षण की मांग भी हो रही है.
8. मंदिर वहीं बनेगा, लेकिन जब कोर्ट का आदेश होगा तब: बीजेपी का राममंदिर आंदोलन हिंसा, ज़ोर-जबर्दस्ती तथा भीड़तंत्र की मिसाल है. वाजपेयी-आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी युग में बीजेपी और विश्व हिंदू परिषद के आह्वान पर अयोध्या में जुटी भारी भीड़ ने 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी थी. पर नरेंद्र मोदी ने भीड़ जुटाकर मंदिर निर्माण नहीं किया. बल्कि उन्होंने सात साल तक कोर्ट के फैसले का इंतजार किया और फैसला आने के बाद ही निर्माण कार्य शुरू हुआ. काशी और मथुरा बीजेपी के एजेंडे पर हैं, लेकिन सरकार यहां भी अदालत के आदेशों से ही आगे बढ़ रही है. कुल मिलाकर इस मामले में न्यायपालिका का सम्मान हुआ है. नरेंद्र मोदी की बीजेपी को वाजपेयी और आडवाणी की बीजेपी की तुलना में कानून और कोर्ट की ज्यादा परवाह है!
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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