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Tuesday, 23 April, 2024
होममत-विमतकोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौर में उत्पन्न संकट से महात्मा गांधी कैसे निपटते, ये हैं नौ सूत्रीय कार्यक्रम

कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौर में उत्पन्न संकट से महात्मा गांधी कैसे निपटते, ये हैं नौ सूत्रीय कार्यक्रम

कोई भी केंद्रीय सत्ता हमें नहीं बचा सकती. वह सिर्फ़ झूठे दावे करती है, इसका अहसास हम सभी को हो ही गया है. गांधी हमें अहिंसक ढंग से, धीमे-धीमे इस महाकाय राक्षसी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था से छोटे-छोटे स्थानीय समूहों की मानवीय व्यवस्था की ओर ले जाते.

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आज का वैश्विक संकट तिहरा है. कोविड महामारी, गहन व्यापक आर्थिक मंदी तथा मानव अस्तित्व को खतरे में डालने वाला पर्यावरणीय परिवर्तन. इन सबके अलावा, ऐसी परिस्थिति में राह दिखाने वाले राजनीतिक व नैतिक नेतृत्व का दुनियाभर में अभाव है. इसलिए उत्तर तो कहीं और ही ढूंढ़ना पड़ेगा. महात्मा गांधी के सामने यह चुनौती खड़ी होती तो उन्होंने क्या किया होता? इस का जवाब कहां खोजा जाए? यह तो वे खुद कह ही गए हैं– ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’. अत: उनके जीवन में ही ये उत्तर खोजना पड़ेगा.

उनके उत्तर में कुछ विशेषताएं तो समान होंगी. पहली तो यह कि दूसरों को उपदेश देने की बजाए सबसे पहले वे स्वयं उसका आचरण करते. तभी तो आत्मश्लाघा प्रतीत हो ऐसा वाक्य– ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’ वे बोल पाए. हम बोल सकते हैं क्या? बोलकर तो देखिए. ज़बान लड़खड़ाएगी.

दूसरे, वे कोई भी कार्य सबसे पहले स्थानीय स्तर पर ही करते. दुनिया बदलने के लिए दुनिया के पीछे नहीं भागते. मिट्टी के एक कण में पृथ्वी देख सकने वाली दृष्टि थी उनके पास. मैं जहां हूं वहीं मेरा ‘स्व-देश’ है. मेरा कार्य यहीं आरंभ होगा. क्योंकि मैं सिर्फ यहीं कार्य कर सकता हूं. तीसरे, आरंभ में उनका कार्य मामूली या बचकाना लग सकता है, जैसे मुट्ठीभर नमक उठाना या सूत कातना लेकिन ज़रा रुकिए- इससे इतिहास बदल जाएगा.


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‘आज आप क्या करते?’ ऐसा प्रश्न महात्मा गांधी के समक्ष रखने का ‘विचार प्रयोग’ मैंने कर देखा और मुझे जो नौ सूत्रीय कार्यक्रम मिला, वह ऐसा है:

1. भय मुक्ति: आज विषाणु की अपेक्षा विषाणु का भय अधिक पैमाने पर फैला हुआ है. गांधी सबसे पहले हमसे कहते– ‘निर्भय होओ’! एक तो डर मनुष्य को शक्तिहीन बनाने वाला घातक भाव है. दूसरे, विषाणु की वजह से होने वाली मृत्यु की संभावना हमारी आबादी में बेहद कम है. इसका हौआ खड़ा करने की ज़रूरत नहीं. उनका आखिरी तर्क होता– मृत्यु का कैसा भय? किसे? शरीर मरा भी तो आत्मा अमर है. तुम शरीर नहीं, आत्मा हो. तुम थोड़े ही मरोगे? भय काल्पनिक असत्य होने के कारण अपने आप पिघलकर लुप्त होने लगेगा.

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2. रुग्ण सेवा: रोगियों की सेवा, गांधीजी की सहज प्रवृत्ति थी. बोअर युद्ध, प्रथम विश्व युद्ध, भारत में महामारियों के दौरान कुष्ठरोग के शिकार विकलांग परचुरे शास्त्री को अपनी कुटिया के करीब रखकर स्वयं उनकी सुश्रूषा, इसी के उदाहरण हैं. कोरोनाग्रस्त रोगियों की देखभाल वे स्वयं करते, यह करते हुए स्वच्छता रखना, हाथ धोना, मुंह पर मास्क जैसे सभी वैज्ञानिक निर्देशों का सटीक पालन करते हुए वे रोगियों की प्रत्यक्ष सेवा करते.

स्वतंत्र होने ही वाले भारत के लिए उचित चिकित्सा पद्धति तथा स्वास्थ्य व्यवस्था की खोज में गांधीजी पुणे के करीब उरली कांचन गांव में रहते हुए 1946 में प्रयोग करने लगे. डॉक्टर और दवाइयों के खर्च पर निर्भर रहने की अपेक्षा लोगों के लिए आत्मनिर्भर एवं स्वास्थ्य-स्वातंत्र्य प्रदान करने वाली सस्ती और सहज पद्धति की तलाश में वे थे. आज भी वे वैसी ही पद्धति का प्रयोग करते. शरीर की रोग प्रतिरोधक नैसर्गिक क्षमता पर गांधीजी भरोसा रखते थे. उसे वे प्राकृतिक चिकित्सा कहते थे.

वे कह रहे होते– ‘प्रकृति को अवकाश दो.’ वैसे भी कोरोना संसर्ग की चपेट में आए अधिकांश मरीज़ अपने आप ठीक होते हैं, अत: यह पद्धति उचित ही सिद्ध होती. गंभीर मरीज़ों को छोड़ें तो आज भी कोविड बीमारी के लिए यही पद्धति योग्य है. कोविड काल में आज की चिकित्सा व्यवस्था आवश्यक सेवा आपूर्ति में असमर्थ साबित हो रही है. इन हालात में निरोगी जीवनशैली का गांधीजी का आग्रह, अपना स्वास्थ्य स्वयं संभालने की क्षमता और यथासंभव अपने ग्राम समूह में ही उपचार की सुविधा– ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था को हम ‘आरोग्य-स्वराज्य’ कह सकते हैं.

कोविड महामारी का उत्कृष्ट उत्तर है– ‘आरोग्य-स्वराज्य’. इसके बावजूद चुने हुए अत्यंत गंभीर मरीज़ों को उन्होंने अस्पताल भेजा ही होता. व्यसनों के प्रति उनका विरोध तो जगजाहिर है. उनकी व्यसनमुक्त जीवनशैली कोरोना के खिलाफ प्रभावी तदबीर तो होती ही, साथ ही अन्य बीमारियों और मृत्यु दर में भी कमी कर सकती.


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3. दूसरी दांडी यात्रा: कर्तव्यबोध के लिए गांधीजी का दिया ‘जादू का जंतर’ जगप्रसिद्ध है– ‘आज तक तुमने सबसे दुखी, सबसे निर्बल जिस आदमी को देखा है, उसे याद करो. वह तुम्हारा कर्तव्य है.’ गांधी होते तो किसका चुनाव करते? बहुत खोजने की ज़रूरत नहीं. कोरोना के चलते लादी गई संपूर्ण तालाबंदी की वजह से शहरों के बेरोज़गार और बेकार जो अपने गांवों को लौटने को बाध्य हो गए, जिनके लौटने के साधन तक शासन ने बंद कर दिए, जिसकी वजह से इंसानों के झुंड के झुंड हज़ारों किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर हो गए. भूखे-प्यासे, थके, पैदल चलते मज़दूर ये होते गांधीजी के जंतर. गांधीजी होते तो दिल्ली छोड़ इन विस्थापितों के बीच जाते. इन्हें भोजन, दवाई आसरा देने की व्यवस्था की होती. और इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण, उनका आत्मसम्मान और उम्मीद जीवित रखते. मुझे यकीन है कि विस्थापितों, मज़दूरों के प्रति एकरूपता जताने और सरकार की क्रूर ग़ैर-ज़िम्मेदारी के विरोध में वे आज विस्थापितों के साथ करते होते- दूसरी दांडी यात्रा.

4. धार्मिक और सामाजिक एकत: गांधीजी के जीवन का यह अंतिम किंतु अधूरा रह गया कार्य है. भारत के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच द्वेष व हिंसा की वजह से उन्हें मर्मांतक पीड़ा हुई. इस वक्त भी जब कोरोना विषाणु हमारी दहलीज़ में दाखिल हो चुका था, हमारे कई नेता सांप्रदायिकता की आग लगाने में लगे हुए थे. दिल्ली के हिंदू-मुस्लिम दंगों से विभाजन पूर्व भारत के हालात बनते दीख पड़ते हैं. यह द्वेष इतना अंधा हो चुका है कि भारत में कोरोना प्रसार का ठीकरा एक विशिष्ट धार्मिक पंथ की गलतियों पर फोड़ने का प्रयत्न किया गया. गलती तो सभी ने की. 31 जनवरी को कोरोना भारत में आ चुका था. उसके लगभग एक महीने बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भव्य स्वागत के लिए अहमदाबाद में लाखों लोगों की भीड़ जुटाई गई. पर गलतियां निकालते समय धार्मिक भेदभाव किया गया. भारतीय समाज को खंडित करने में ही प्रतिष्ठा माना जा रहा है. ऐसी स्थिति में गांधी ने क्या किया होता?

गांधी ने इस समस्या को भी विषाणु जितना ही महत्व दिया होता. सर्वधर्म समभाव तथा उपनिषद की ‘ईशावास्यमिदंसर्वम…’ ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, यह सच्ची भारतीय निष्ठा उन्होंने अपने प्रत्यक्ष आचरण से व्यक्त की होती. बिना किसी भेदभाव के लोगों की सेवा की होती. एक दूसरे के मोहल्ले में सेवा करने के लिए लोगों को भेजा होता. प्रार्थना के लिए लोगों को एकजुट किया होता. सैंकड़ों टुकड़ों में बिखरे भारतीय समाज में से एक समाज के निर्माण का प्रयत्न किया होता, भले हि इसके फलस्वरूप उनकी दूसरी बार हत्या का खतरा उन्हें मोल लेना पड़ता.

5. मेरा पड़ोसी मेरी ज़िम्मेदारी: कोरोना ने आज सभी को अकेला कर दिया है. एक दूसरे के संपर्क से लोग बच रहे हैं, टाल रहे हैं. संपर्क ही नहीं तो पड़ोस कैसा? और पड़ोस ही न रहा तो कैसी सामूहिकता, कैसा समाज? मुझे तो ऐसा लग रहा है कि गांधी ने मौजूदा शासकीय और मानसिक पाबंदियों को सर्वथा नकार ही दिया होता. पड़ोसी की सेवा करना यह मेरा धर्म है, ऐसा सत्याग्रह किया होता. उन्होंने कहा होता कि मजबूत स्थानीय संबंधों के अभाव में राष्ट्र निर्माण संभव नहीं. इस तरह की नैतिक भूमिका के लिए किसी गांधी की ही आवश्यकता होती है. रोग प्रसार रोकने का पूरा खयाल रखते हुए उन्होंने पड़ोसियों के देखभाल की शुरुआत की होती. तब अनायास भ्रम की चादर हटने लगती. हमें स्पष्ट दिखाई पड़ रहा होता कि महामारी का डर और सरकार की नीतियों से इंसान को इंसान से दूर हटाकर कोरोना का प्रसार तो नहीं थमा. बल्कि प्रत्येक व्यक्ति अस्पृश्य हो गया.

6. गलतियों का स्वीकार: कोरोना महामारी का सामना करते हुए सरकार ने अनेक गलतियां कीं. जनवरी-फरवरी में 40 लाख प्रवासियों को हवाई मार्ग से भारत में आने दिया गया जिनमें से सिर्फ 38000 लोगों का ही कोरोना परीक्षण किया गया. इस वजह से कोरोना भारत में घुसा. इन 40 लाख लोगों के सुव्यवस्थित विलगीकरण की बजाय 134 करोड़ लोगों को तालाबंदी की सज़ा दी गई. कोरोना के विरुद्ध इस युद्ध में जागतिक और राष्ट्रीय नेतृत्व ने अपने घोषित उद्देश्य बार-बार बदल– विषाणु का प्रवेश निषिद्ध, फिर कंटेन्मेंट, फिर मरीज़ों की संख्या दुगुनी होने का समय बढ़ाना (डबलिंग टाइम), फिर मृतकों की संख्या सीमित रखना और अब ‘कोरोना के साथ जीना सीखें’….हार गए तो उद्देश्य ही बदल कर जीतने का दावा जारी.

एक नई बीमारी के बारे में समुचित ज्ञान और उपचार न होने से निर्णय लेने में गलतियां होना स्वाभाविक है. किंतु ‘हमारी पद्धति असफल हुई’ यह प्रामाणिक स्वीकारोक्ति कहां है? गांधी ने यह सत्य जाहिर किया होता. जनता से सच बोला होता. चौरी-चौरा की घटना की तरह ‘हिमालय जैसी गलती मुझसे हुई है’, ऐसी जवाबदेही स्वीकारी होती. और आश्चर्य यह कि इस वजह से लोगों का उन पर विश्वास बढ़ा ही होता.


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7. स्थानीय स्वराज: वुहान में एक विषाणु पैदा हुआ और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर फिर से संकट आ गया. महाकाय अर्थव्यवस्था ने दगा दे दिया. गांधी याद दिलाएंगे कि स्थानीय उत्पादन, स्थानीय उपयोग तथा परस्पर संबद्ध स्थानीय लघु समूह, अधिक स्थायी एवं मानवीय प्रारूप हैं. इसे वे ‘ग्राम स्वराज’ कहते थे. परावलंब आते ही आज़ादी खतरे में पड़ जाती है. इस वजह से गांधी स्थानीय, यथासंभव स्वयंपूर्ण अर्थव्यवस्था सुझाते.

अर्थव्यवस्था में ‘महाकाय’ की जगह पर ‘स्थानीय’ यह परिवर्तन होता तो साथ ही राजनीतिक व प्रशासनिक सत्ता में भी विकेंद्रीकरण हो जाता. ‘ग्लोबलाइजेशन’ के युग में सर्वत्र तानाशाही प्रवृत्ति के राजनेताओं का उदय हुआ है. पूंजीवाद और उदारवाद द्वारा स्वतंत्रता के आश्वासनों के बावजूद इन नेताओं ने जन सामान्य तथा संचार माध्यमों की स्वतंत्रता का हनन करते हुए लोगों को भयग्रस्त कर रखा है. किंतु कोविड महामारी ने जागतिक सत्ता व्यवस्था और अर्थव्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है. कोई भी केंद्रीय सत्ता हमें नहीं बचा सकती. वह सिर्फ झूठे दावे करती है, इसका अहसास हम सभी को हो ही गया है. गांधी हमें अहिंसक ढंग से, धीमे-धीमे इस महाकाय राक्षसी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था से छोटे-छोटे स्थानीय समूहों की मानवीय व्यवस्था की ओर ले जाते. इस बिना चेहरे वाली वैश्विक अर्थव्यवस्था की बजाय सच्चे रिश्ते व खरा लोकतंत्र एक दूसरे को जानने-पहचानने वाले स्थानीय मानव समुदायों के बीच ही फल-फूल सकती है.

8. आवश्यकता का विवेक: ‘किंतु हमारी ज़रूरतों का क्या?’ आधुनिक समाज के महोत्पादन के कुछ उपभोक्ता ज़रूर पूछेंगे. गांधी उन्हें समझाते…कभी भी संतुष्ट न होने वाली उपभोग की कामना, आठों पहर ऐंद्रिक उत्तेजना के माध्यम से सुख का छलावा देने वाली भोगेच्छा, यह तुम्हारी स्वाभाविक ज़रूरत न होकर कृत्रिम ढंग से रोपी गई अप्राकृत्रिम आदत है. महाकाय उत्पादन व्यवस्था चलाने और बाज़ार के विस्तार के लिए तुम्हारा अनिवार उपभोग करना ज़रूरी है. दरअसल, तुम उपभोग नहीं कर रहे, तुम्हारा उपभोग किया जा रहा है. पलभर रूक कर शांति से अपने भीतर झांको! इनमें से कितने उपभोग तुम्हारे तन, मन, बुद्धि को निरोगी व सक्रिय रखने के लिए ज़रूरी हैं? और कितनी आदतें नकली हैं? लोभ?

गांधी कहते थे, ‘यह धरती सभी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए काफी है लेकिन लालच के लिए बहुत छोटी है.’ ज़रूरत और लालच के बीच विवेक का सामर्थ्य, सबकी ज़रूरतें पूरी करने वाली किंतु लालच पर नियंत्रण रखने वाली समाज व्यवस्था व नैतिकता की ओर हमें गांधी ही लेकर जाएंगे. स्वराज की व्याख्या ही उन्होंने ऐसे की थी– ‘स्वत: का राज्य नहीं, स्वत: पर राज्य’.

जब हम विवेक से अपनी ज़रूरतों पर नियंत्रण करेंगे, तब हमें अहसास होगा कि आधुनिक समाज की अनेक अतियों के बावजूद जीवन आनंदमय हो सकता है. अनावश्यक महोत्पादन और उपभोग, उनको पूरा करने हेतु कारखानों के महाचक्र, पागल प्रवास और वाहन ये सब थमने लगेंगे. धूल और धुआं कम होने लगेगा. आकाश और जलाशय फिर से साफ और नीले होने लगेंगे. कोविड काल की तालाबंदी के दौरान इसकी एक झलक हमने देखी ही है. और आश्चर्य इसी के साथ ग्लोबल वार्मिंग में भी कमी आने लगेगी.

9. प्रार्थना: और अंतत:, गांधी जो खुद करते और हमें भी सुझाते वह होती– प्रार्थना. प्रत्येक दिन के अंत में, अपना सर्वोत्कृष्ट प्रयास करने के पश्चात थोड़ी देर शांत बैठिए. अंतर्मुख होइए, विनम्र बनिए और शरण जाइए. किसकी शरण? यह आप की इच्छा पर निर्भर है– ईश्वर, प्रकृति, जीवन, सत्य, काल, जो आप को रुचे उसकी शरण जाओ. कम से कम गांधी तो ऐसा ही करते. जो-जो तुमसे संभव था वह सारा प्रयास तुमने किया. अब इसके आगे यह बोझ गधे के भांति ढोने की ज़रूरत नहीं है. मनुष्य को अपने कर्तृत्व और अपेक्षाओं का निरर्थक व घातक बोझ अपनी पीठ पर से उतारकर स्वतंत्र होना आना चाहिए. गांधी इसे ही शरणागति या प्रार्थना कहते हैं. विश्व के अनंत विस्तार के समक्ष अपने अहंकार और प्रयास की क्षुद्रता को पहचानें. अब उसकी मर्ज़ी चलने दें– यानी अंतत: जो हो उसे स्वीकारें!

गांधी के लौटने की प्रतीक्षा के बजाए, वे आकर जो करते उसकी शुरुआत हमें कर देनी चाहिए.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और जाने-माने चिकित्सक हैं. उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री से भी नवाजा है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(यह लेख पहले अंग्रेज़ी में 18 जून 2020 को लांसेट में प्रकाशित हो चुका है)


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