जून के पहले सप्ताह में मुझे चीन के एक युवा लेफ़्टिनेंट की लिखी किताब का पीडीएफ संस्करण पढ़ने का अवसर मिला, जो भारत के खिलाफ 1962 के युद्ध में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) में शामिल था. वह शिंजियांग सैन्य क्षेत्र में पीएलए के सार्वजनिक राजनीतिक विभाग में तैनात था. उसे युद्ध पर चीनी दृष्टिकोण की जानकारी थी और उसने जवाहरलाल नेहरू, नई दिल्ली की राजनीतिक और सैन्य रणनीतियों, भारतीय सेना और भारत के युद्धबंदियों पर अपनी बेबाक राय पेश की है.
यह भी पढ़ें: अयोध्या का कार्यक्रम विशुद्ध राजनीतिक कर्मकांड है, सेक्युलरिज्म के रक्षक ही इसकी हार के जिम्मेदार
युद्ध जो नहीं होना चाहिए था
भारत-चीन युद्ध की 50वीं वर्षगांठ पर प्रकाशित इस रोचक किताब ‘ए वॉर दैट शुड नॉट हैव हैपंड’ के लेखक झंग गुओझू हैं. हिंदी भाषा में विशेषज्ञता के साथ बीजिंग विश्वविद्यालय के पूर्वी भाषा विभाग से पढ़ाई पूरी करने के बाद गुओझू को एक अधिकारी के रूप में पीएलए में नियुक्त किया गया था. इसके कारण जहां उसका अभावग्रस्त छात्र जीवन समाप्त हो गया, वहीं उसके परिवार की आर्थिक दशा सुधर गई. उसने विस्तार से वर्णन किया है कि ग्रेट लीप फॉरवर्ड की नीति और सांस्कृतिक क्रांति के कारण चीन कैसे गंभीर सूखे और आर्थिक संकट का सामना कर रहा था.
अप्रैल 1962 में गुओझू को शिंजियांग सैन्य क्षेत्र के उरुम्की में सार्वजनिक राजनीतिक विभाग के संपर्क कार्यालय में तैनात किया गया था. पूरे क्षेत्र में हिंदी में विशेषज्ञता वाला एकमात्र दुभाषिया होने के कारण उसकी खूब पूछ होती थी. उसे भारतीय समाचार पत्र सुलभ थे, जिनमें रक्षा विभाग की पाक्षिक पत्रिका ‘सैनिक समाचार’ भी शामिल थी. युवा लेफ्टिनेंट युद्ध की तैयारियों का गवाह था और शिंजियांग से पूर्वी लद्दाख के बीच के दुरूह संचार तंत्र से अवगत था.
गुओझू केंद्रीय सैन्य आयोग (सीएमसी) के फैसलों को अग्रिम सीमा पर तैनात सैनिकों तक पहुंचाने के लिए जिम्मेवार था, इसलिए वह चीनी दृष्टिकोण से युद्ध के कारणों को भलीभांति समझता था. जुलाई 1962 से आगे वह गलवान घाटी में तैनात रहा और युद्ध छिड़ने पर उसने 20 अक्तूबर 1962 को गलवान चौकी पर हमले में भी भाग लिया. बाद में वह शिंजियांग में युद्धबंदियों को संभालने वाली टीम में शामिल रहा. अपनी किताब में गुओझू ने हिरासत में लिए गए भारतीय सैनिकों से अपनी बातचीत के आधार पर दिलचस्प टिप्पणियां की हैं.
यह भी पढ़ें: रेल सेवाओं के विलय को फास्ट ट्रैक करना चाहते हैं पीयूष गोयल, अधिकारियों को समझाने की कोशिश
युद्ध की वजह
1962 के युद्ध के दो बुनियादी कारण थे:
. भारत की अग्रगामी नीति के कारण चीनी इलाके और पीएलए की चौकियों पर बना खतरा क्योंकि भारतीय सेना उन्हें मात देने का प्रयास कर रही थी.
. भारत द्वारा तिब्बत पर चीनी नियंत्रण को कमजोर करने और वहां 1949 से पूर्व की यथास्थिति की बहाली के प्रयास.
गुओझू के दिए विवरणों से लगता है कि चीनी जवाहरलाल नेहरू और दलाई लामा को युद्ध के लिए जिम्मेवार शख्सियत मानते थे. अमेरिका और अन्य पश्चिमी ताकतों और यहां तक कि संशोधनवादी सोवियत संघ को भी भारत समर्थकों को रूप में देखा जा रहा था. किताब में इस ओर संकेत किया गया है कि चीनी महात्मा गांधी को श्रद्धाभाव से देखते थे और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीन के समर्थन के लिए भारत की प्रशंसा करते थे. अक्सई चीन और पूर्वी लद्दाख को सीमांत क्षेत्र मानते हुए लेखक ने स्वीकार किया है कि वहां स्पष्ट सीमांकन नहीं हो रखा था. लेकिन दलाई लामा के पलायन करने और मार्च 1959 में भारत में शरण लेने तथा अपनी सैनिक टुकड़ियों के लिए भारत की आक्रामक अग्रगामी नीति के मद्देनज़र चीन भारत को भरोसा तोड़ने वाला मित्र मानने लगा, जिसे कि दंडित किया जाना ज़रूरी था.
सीमा पर तैनात सैन्य टुकड़ियों के लिए सीएमसी से मिले राजनीतिक निर्देशों के आधार पर गुओझू ने युद्ध छिड़ने से पहले सैनिकों के लिए जारी दिशानिर्देशों का विस्तार से वर्णन किया है— संयम बरतो और आक्रामक भारतीय सैनिकों को भड़काए बिना उनके क्रियाकलापों की बराबरी करो, जवाबी घेराबंदी करते वक्त निकलने के रास्ते भी छोड़ो. हालांकि, गुओझू का कहना है कि एक बार युद्ध की घोषणा हो जाने के बाद, दुश्मन सैनिकों का सफाया पीएलए का उद्देश्य बन गया था.
लेखक युद्ध छेड़ने के माओ के फैसले का सार बताते हुए लिखता है, ‘इस फैसले से एक तीर से तीन शिकार होंगे. पहला, इससे नेहरू की अग्रगामी नीति पर रोक लगेगी और देश की अतिक्रमण से रक्षा की जाएगी. दूसरे, इससे स्थिति का फायदा उठाने वाले बाकियों को भी आगाह किया जा सकेगा कि चीन अब भी शक्तिशाली है और उसके खिलाफ अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है और तीसरा, इसके कारण अति वामपंथी उपायों के कारण बना घरेलू दबाव भी कम हो सकेगा.’
यह भी पढ़ें: ‘बेहतर होता मुझे मार देते’- गौ रक्षकों के शिकार व्यक्ति ने कहा कि अब कभी मीट ट्रांसपोर्ट नहीं करूंगा
गलवान नदी की लड़ाई
गुओझू कुछ समय के लिए दौलत बेग ओल्डी और कोंग्का ला में भी तैनात रहा था लेकिन ज़्यादातर समय उसने गलवान नदी वाले इलाके में बिताए थे. नाराज़गी के साथ उसने ज़िक्र किया है कि कैसे 4 जुलाई 1962 को भारतीय सेना ने पीएलए को चौंका दिया, जब 1/8 गोरखा राइफल्स की एक पलटन ने हॉट स्प्रिंग-कुगरांग नदी वाले रास्ते से आगे बढ़ते हुए पीएलए की चौकी के पीछे सामज़ुम्लिंग में अपनी चौकी स्थापित कर ली. तब भारतीय टुकड़ी को घेरने के लिए पीएलए को जल्दी से एक बटालियन भेजनी पड़ी थी.
गुओझू ने 20 अक्तूबर 1962 को युद्ध की शुरुआत से पूर्व के तीन महीनों के दौरान भारतीय सैनिकों से अपने संपर्कों का भी ब्यौरा दिया है. आवारा और दो बीघा ज़मीन फिल्मों के टाइटिल गीत गाकर उसने पहली मुलाकात की पहल की थी.
गुओझू भारतीय सैनिकों के व्यवहार की तारीफ करता है पर उनकी कमज़ोर रक्षा पंक्ति तथा घटिया दर्जे के हथियारों, उपकरणों और पोशाकों की भी चर्चा करता है. उसने गोरखा सैनिकों को पट्टी पढ़ाने के अपने नाकाम प्रयासों का भी जिक्र किया है, जिसके तहत वह चीन-नेपाल मित्रता की दुहाई देकर उनसे भारत के लिए नहीं लड़ने का आग्रह करता था.
सीएमसी की नीति के तहत पीएलए अधिकतम संयम बरत रही थी और भारतीय सीमा में हेलिकॉप्टरों से रसद गिराए जाने की प्रक्रिया को बाधित नहीं किया जा रहा था. गुओझू की मानें तो भारतीय सेना ने हेलिकॉप्टरों की मदद से 4 से 12 अक्तूबर के बीच 5 जाट की पलटन को बदलने का काम पूरा किया लेकिन चीन ने इस प्रक्रिया को बाधित नहीं किया.
किताब में 20 अक्तूबर 1962 के तड़के गलवान चौकी पर किए गए हमले का भी वर्णन है, जिसमें पीएलए की श्रेष्ठता और 5 जाट की कंपनी की कड़ी शिकस्त को दर्शाने की कोशिश की गई है. जाट कंपनी के जवान मेजर हसबनीस (बाद में लेफ्टिनेंट कर्नल) के नेतृत्व में बहादुरी से लड़े थे और उनके 68 में से 36 जवान वीरगति को प्राप्त हुए. बाकी सैनिक जख्मी हो गए थे जिन्हें युद्धबंदी बना लिया गया. गुओझू ने मेजर हसबनीस के साहसिक आचरण और युद्धबंदी बनाए जाने से ठीक पहले अपनी कंपनी के बाकी बचे जवानों को उनके संबोधन का वर्णन किया है.
यह भी पढ़ें: बीजेपी के सहयोगी नीतीश कुमार राम मंदिर भूमि पूजन पर चुप क्यों रहे
युद्धबंदियों को संभालना
युद्ध समाप्त होने के बाद लेखक को शिंजियांग के एक शिविर में युद्धबंदियों के मतपरिवर्तन का काम दिया गया था. उसने इस बात का जिक्र किया है कि कैसे भारतीय अधिकारियों को जवानों से अलग रखा जाता था लेकिन उन्हें साथ-साथ भोजन करने की अनुमति दी गई थी. गुओझू के अनुसार चीनी दुष्प्रचार से भ्रमित करने की कोशिशों के बावजूद भारतीय सैनिक अपने अधिकारियों के प्रति वफादार बने रहे. उसने लिखा है कि भारतीय युद्धबंदी शौचालयों के निर्माण और सफाई को लेकर तिरस्कार भाव दिखाते थे क्योंकि उनके लिए ये छोटे लोगों का काम था. हालांकि जब पीएलए के अधिकारियों ने ऐसा करके दिखाया तो उन्होंने भी अपना विरोध छोड़ दिया.
गुओझू ने इस बारे में चर्चा नहीं की है कि भारतीय सैनिकों के मतपरिवर्तन के चीनी प्रयासों का क्या परिणाम निकला लेकिन निश्चय ही उसने भारतीय सैनिकों को दोस्त बना लिया था.
दोनों सेनाओं की तुलना
आखिर में, लेखक प्रतिद्वंदी सेनाओं की तुलना करता है. दोनों की क्षमताओं में भारी अंतर को उजागर करने के साथ ही गुओझू भारत की राजनीतिक और सैन्य रणनीतियों का उल्लेख तिरस्कार भाव से करता है.
उसने लिखा है कि चीन का इरादा किसी से छुपा नहीं था लेकिन भारत का राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर घुसाए रहा और उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. गुओझू अपनी इस मान्यता का संकेत देता है कि भारत के सैन्य नेतृत्व को एक श्रेष्ठ शत्रु के खिलाफ एक अतार्किक अग्रगामी नीति को लेकर अपनी सरकार को आगाह करना चाहिए था.
पूर्वी लद्दाख की मौजूदा स्थिति की तुलना 1962 की घटनाओं से करने से बचा नहीं जा सकता. तनाव की तात्कालिक रणनीतिक वजह— सुरक्षा में सैनिकों की तैनाती के बगैर सीमा पर आधारभूत ढांचे तैयार करने का हमारा कदम (जिसे चीन ‘अपने क्षेत्र’ के लिए खतरे के तौर पर देखता है). चीन के इरादे के गलत आकलन के आधार पर हमारी शुरुआती कार्रवाइयां. और, हमारे राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व का सैन्य क्षमताओं में अंतर के नैतिक मूल्यांकन किए बिना एक श्रेष्ठ शत्रु को चुनौती देने की रणनीति अपनाना.
(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रि.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की है. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: मोदी-शाह के भरोसेमंद, यूपी के लो प्रोफाइल नेता और किशोर कुमार के फैन मनोज सिन्हा कैसे बने जम्मू कश्मीर के एलजी