सुप्रीम कोर्ट की आरक्षण विरोधी टिप्पणी उस समय आई है जब गरीब और मजदूर भूखे प्यासे देश के कई जगहों पर फंसे हैं. कोरोनावायरस महामारी के समय में कोर्ट को उनकी समस्या के ऊपर सुनवाई करनी चाहिए था, लेकिन जब दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों के आरक्षण का मामला आता है तो न्यायपालिका अतिरिक्त सक्रियता दिखाती है. अभी कोरोना महासंकट से जूझ रहे करोड़ों लोगों कि समस्या का निष्पादन करना जरूरी था या एक पत्रकार को बेल देना? देश में इस संवेदनहीनता पर दबी जुबान में बहुत चर्चा हो रही है. जब देश असाधारण परिस्थितियों से गुजर रहा हो तो भी गैर जरूरी विषय पर न्यायपालिका कि तत्परता पर लोग हतप्रभ हैं. 22 अप्रैल को पांच जजों की पीठ ने टिप्पणी की कि जो दलित क्रीमी लेयर में आ गये हैं, उन्हें सूची से बाहर करने पर सरकार विचार करे. इन परिस्थितियों को देखते हुए क्या न्यायपालिका से निष्पक्षता की उम्मीद की जा सकती है.
डॉ आम्बेडकर की नज़र में न्यायपालिका के चरित्र को समझना जरूरी हो गया है. 1936 में बाम्बे में ग्राम पंचायत की सभा में दिए अपने चर्चित भाषण में उन्होंने कहा था– ‘यदि मेरे माननीय मित्र मुझे विश्वास दिला दें कि वर्तमान न्यायपालिका में साम्प्रदायिक आधार पर पक्षपात नहीं होता है और एक ब्राह्मण न्यायाधीश जब ब्राह्मणवादी और गैर ब्राह्मणवादी प्रतिवादी के बीच निर्णय देने बैठता है तो वह केवल न्यायाधीश के रूप मैं फ़ैसला करता है, तो शायद मैं उनके प्रस्ताव का समर्थन करूंगा. मैं जानता हूं कि हमारे यहां न्यायपालिका किस प्रकार की है.
अगर सदन के सदस्यों में धैर्य है तो मैं ऐसे अनेक कहानियां सुना सकता हूं कि न्यायपालिका ने अपनी निजी स्थिति का दुरूपयोग किया है और अनैतिकता की है. ब्राह्मण बनाम बहुजन हित टकराव की स्थिति में ब्राह्मण कभी जज नहीं होता है, हमेशा पार्टी ही होता है. उसे फ़ैसला करने का अधिकार देना न्याय की हत्या करना है. उसके फैसले बहुसंख्यक समाज के लिए वैसे ही अपमान का निशान है जैसे मनु समृति के विधान. एक आदमी जो खुद उसी वर्ग से है जिसने केस फ़ाइल किया है, क्या वो अपने समाज से प्रभावित नहीं हो सकता है? यहां सीधे-सीधे ब्राह्मणों का कनफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट शामिल है’.
पिछले तीन दशक से देखा जा रहा है कि न्यायपालिका का चरित्र ना केवल दलित-पिछड़–अल्पसंख्यक विरोधी है बल्कि गरीब विरोधी भी हो गया है. मुलायम, मधु कोड़ा, छगन भुजबल, कनी मोझी, लालू, शिबु शोरेन से लेकर तमाम नेताओं की सूची देखिये तो अधिकांश दलित-पिछड़े ही जेल गये हैं. क्या ये लोग ही भ्रष्ट हैं. इनसे सौ गुना भ्रष्ट लोग जो सवर्ण समाज के हैं वो इमानदार बने हुए हैं क्योंकि सीबीआई, इनकम टैक्स और न्यायपालिका उनको बचाती है.
यह भी पढ़ें: बिहार, बंगाल के प्रवासी मजदूर यूपी, एमपी के मजदूरों जितने भाग्यशाली नहीं हैं
स्विट्जरलैंड के बैंक में काला धन जमा करने वालों और बैंको के लाखों करोड़ लेकर भागने वालों में से शायद एक भी दलित–पिछड़ा-आदिवासी नहीं है. इस मापदंड से देखा जाए तो उपरोक्त दलित-पिछड़े नेताओं को फंसाया गया है. वीपी सिंह की सरकार ने जब पिछड़ों को आरक्षण दिया तो इस देश में रथयात्रा निकाली गयी. देश में मंडल के समानांतर कमंडल को खड़ा करने की साजिश रची गयी. 16 दिसम्बर 1992 को फ़ैसला आया जिसमें 27 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों को मिला फिर भी क्रीमी लेयर लगा दिया. आश्चर्य की बात है कि इस समय जब दलित-आदिवासी का आरक्षण विचाराधीन नहीं था तो भी जजमेंट दे दिया गया.
22 अप्रैल 2020 की टिप्पणी भी इसी मानसिकता के संदर्भ में देखना होगा. मंडल जजमेंट में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तक सीमित कर दी गई जबकि यह काम संसद भी कर सकती है. कानून बनाने का काम संसद ही करे और न्यायपालिका का काम कानून लागू करने का है, वह वही करे. 2019 में जब गरीब सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण दिया गया तो पचास फीसदी की सीमा टूट गयी. तब देश के किसी भी सवर्ण जज ने टिप्पणी नहीं की.जबकि सवर्णों को अलग से दस फीसदी आरक्षण देना एक तो अपने आप में ही असंवैधानिक कदम था और पचास फीसदी की सीमा भी टूटी थी.
दुनिया में सबसे ताकतवर न्यायपालिका भारत में है. ये दलित-पिछड़ा-आदिवासी–अल्पसंख्यक के साथ गरीब विरोधी है. सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि- लॉकडाउन की वजह से राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों को लेकर जगदीप एस छोकर ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी लेकिन इसे कोर्ट ने जरूरी नहीं समझा. एक हफ्ते तक इसे सुनवाई के लिए शामिल नहीं किया गया. लेकिन एफआईआर निरस्त करने के लिए अर्णब गोस्वामी द्वारा दायर की गई याचिका पर कोर्ट ने अगले दिन ही सुनवाई कर दी. गरीब-मजदूर के मुक़दमे सालों तक लटके रहते हैं लेकिन कॉर्पोरेट का जब मामला होता है तो उनकी मर्ज़ी से फैसला होता है. अमीरों के लिए रात में भी अदालत लग जाती है.
यह भी पढ़ें: योगी आदित्यनाथ मोदी के निकटतम राजनीतिक क्लोन और संभावित उत्तराधिकारी बनकर उभरे हैं
न्यायधीशों के ही वर्ताव से वकील इतने महंगे हो गये हैं कि मध्यमवर्ग भी कोर्ट कचहरी के नाम से कांप जाता है. ये आम बात है कि वरिष्ठ वकील एक मिनट, पांच मिनट या दस मिनट के बहस के लिए दास, बीस लाख से लेकर करोड़ों की फीस लेते हैं. कारण यह है कि वकीलों का फेस वेल्यू कल्चर पैदा हो गया है. और इसको बनाने का काम जज ही करते हैं. गिने चुने वकीलों की बहस को ही सुनते हैं बाकी वकीलों को या तो नहीं सुनते या डांट कर चुप करा दिया जाता है. जो देश की मेरिट कर रहे हैं इनकी खुद की ही मेरिट का पता नहीं है.
(लेखक पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं )
Sir aap bo log hai jinko swarg b milega to usme b khot nikaloge….yahi supreme Court jab apke Hal Mai faisel deta tab kun nahi negetiv comment karte….sir aap kis mitti ke bane ho….aap ias officer rah chuke ho bjp se lokasabha ke sadsy rah chuke ho…uske bad b itani gire hue tippni karte sharm nahi karte