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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतपंजाब के सीएम अमरिंदर सिंह पर गांधी फैमिली कोर्ट में मुकदमा क्यों चलाया जा रहा है

पंजाब के सीएम अमरिंदर सिंह पर गांधी फैमिली कोर्ट में मुकदमा क्यों चलाया जा रहा है

पंजाब में आंतरिक कलह सुलझाने के लिए कांग्रेस आलाकमान अगर क्रीज़ से निकलकर छक्का लगाने की कोशिश कर रहे सिद्धू को आगे बढ़ाने और कैप्टन अमरिंदर सिंह को कमजोर करने की कोशिश करेगा तो यह अगले चुनाव में उसे महंगा पड़ सकता है.

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पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह आज हताशा और हैरानी से जरूर अपना सिर खुजला रहे होंगे. कांग्रेस आलाकमान उन्हें सार्वजनिक तौर पर शर्मसार करके उनका तमाशा बना रहा है. ऐसा लग रहा है कि उन्हें तीन सदस्यीय कमिटी (मानो जांच आयोग) के सामने कठघरे में किया जा रहा है. इस कमिटी का गठन पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कांग्रेस की पंजाब इकाई में छिड़े जबरदस्त झगड़े को शांत करने के मकसद किया है.

नयी दिल्ली में पिछले शुक्रवार को इस कमिटी के सामने अमरिंदर की पेशी एक राजनीतिक तमाशा ही बन गई. किसी मुख्यमंत्री को अपने व्यवहारों के बारे में सफाई देने के लिए देश की राजधानी में बुलाने से पार्टी आलाकमान की ताकत और उसके वर्चस्व का भव्य प्रदर्शन भले होता हो, यह अपने राज्य में मुख्यमंत्री की राजनीतिक हैसियत और छवि के लिए कोई अच्छी बात नहीं होती.

पिछले साल कांग्रेस ने ऐसी ही तीन सदस्यीय कमिटी राजस्थान में सचिन पाइलट के नेतृत्व में पार्टी के बागियों की शिकायतों के निबटारे के लिए बनाई थी. उसके बाद पिछले एक साल में उस कमिटी के बारे में क्या कुछ सुना गया? नहीं. क्या उस कमिटी ने वहां के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को सफाई देने के लिए दिल्ली, या जयपुर में ही बुलाया? नहीं, और यह ठीक भी था. यहां यह सुझाव नहीं दिया जा रहा है कि पाइलट ने जब अपना विद्रोह वापस ले लिया तो उन्हें आधार में लटकाकर पार्टी आलाकमान ने ठीक किया. छोटी-सी बात यह है कि गहलोत और अमरिंदर सरीखे वरिष्ठ पार्टी नेता और मुख्यमंत्री से अधिक सम्मानजनक ढंग से पेश आया जा सकता है.

इसके अलावा, कांग्रेस जिन राज्यों में सत्ता में है वहां सरकार के साथ अमन-चैन के दिनों में भी तालमेल रखने के लिए उसने कमिटियां बना रखी है. ये कमिटियां दरअसल मुख्यमंत्रियों पर अंकुश रखने के लिए बनाई गई हैं और वे जब-तब उन्हें टोकती रहती हैं.


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अमरिंदर की अहमियत

जहां तक अमरिंदर की ‘सुनवाई’ की बात है, पंजाब कांग्रेस के नेताओं के एक धड़े और राहुल गांधी की मंडली ने अमरिंदर की कार्यशैली और अनुपलब्धता को लेकर शिकायत की थी, तो सोनिया गांधी मुख्यमंत्री को 10, जनपथ पर बुलाकर उनसे सफाई मांग सकती थीं. वे उनके अलावा अपने बच्चों राहुल और प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ बैठकर उन शिकायतों का निबटारा कर सकती थीं. लेकिन पंजाब के मुख्यमंत्री की इस तरह सार्वजनिक सुनवाई करना! वायनाड से सांसद राहुल और उत्तर प्रदेश की प्रभारी पार्टी महासचिव प्रियंका ने कमिटी की एक वीडियो बैठक की जिसमें मल्लिकार्जुन खड़गे, हरीश रावत इसके सदस्यों के तौर पर शामिल हुए; और बाद में जे.पी. अग्रवाल भी जुड़े, यह मत पूछिए कि किस हैसियत से. गांधी परिवार के सदस्य जबकि दिल्ली में ही थे तब पता नहीं उन्हें पंजाब के मुख्यमंत्री से मिलने से किसने रोका, जबकि वे राजीव गांधी के दून स्कूल के सखा थे.

अगले साल फरवरी-मार्च में जिन पांच राज्यों— उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, मणिपुर— में चुनाव होने वाले हैं उनमें पंजाब ही ऐसा है जहां कांग्रेस के लिए सबसे अच्छी संभावना है. अमरिंदर ने नए कृषि क़ानूनों के विरोध में किसानों के आंदोलन से निबटने में समझदारी दिखाई है. आंदोलन का समर्थन करते हुए गतिरोध को तोड़ने के लिए उन्होंने केंद्र सरकार और आंदोलन के नरमपंथी तत्वों से तालमेल बनाए रखा है. शिरोमणि अकाली दल किसान आंदोलन का समर्थन करता है फिर भी राजनीति में हाशिये पर है, और ‘आप’ तो मानो रास्ता भटक गई है.

एआइसीसी कमिटी की बैठक में जो विधायक अमरिंदर की अनुपलब्धता की शिकायत कर रहे थे वे भी यही चाहते हैं कि अगला विधानसभा चुनाव अमरिंदर के नेता बनाकर ही लड़ा जाए.

वे जानते हैं कि अमरिंदर राजनीति और चुनाव के मैदान के मंजे हुए खिलाड़ी हैं. 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान, सीमा पार किए गए ‘सर्जिकल’ हमलों, नोटबंदी आदि के कारण भाजपा को कई राज्यों में काफी बढ़त मिल चुकी थी लेकिन अमरिंदर ने पंजाब में इस बढ़त को रोक कर भाजपा-अकाली सरकार को मात दे दी थी.


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सिद्धू के मंसूबे

तब, गांधी परिवार कालिदास की तरह उसी डाल को क्यों काट रहा है जिस पर वह खुद बैठा है? चुनाव से आठ महीने पहले मुख्यमंत्री को कमजोर करना हाराकीरी करने के समान ही है.

इसकी वजह यह बताई जा रही है कि क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू और चंद और महत्वाकांक्षी विधायकों ने अमरिंदर के खिलाफ बगावत कर दी है. अपने कप्तान के खिलाफ सिद्धू की यह कोई पहली तकरार नहीं है. याद कीजिए, 1996 में इंग्लैंड दौरे के बीच में उन्होंने वाकआउट करके कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन को किस तरह परेशानी में डाल दिया था. कई साल बाद, बीसीसीआइ के पूर्व सचिव जे.वाइ. लेले ने अपनी किताब में खुलासा किया था कि सिद्धू इसलिए नाराज हो गए थे कि अज़हर ने उनके लिए ‘मां के’ शब्द का इस्तेमाल किया था, जिसे पंजाबी में गाली माना जाता है.

मोहिंदर अमरनाथ ने पंजाबीभाषी सिद्धू को समझाया कि हैदराबाद में लोग इस मुहावरे का इस्तेमाल किसी को चिढ़ाने के लिए करते हैं कि वह तो मां का दुलारा है.

क्रिकेट के पिच पर छक्का मारने के लिए सिद्धू चाहे जितनी बार क्रीज़ से बाहर निकले हों, उन्होंने अपने आवेगों पर लगाम के लिए अपने धैर्य का इस्तेमाल नहीं किया. यही आज वे राजनीति में भी कर रहे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जब अमृतसर सीट से अरुण जेटली की जगह उन्हें टिकट देने की पेशकश की थी तो वे नहीं माने थे. पार्टी ने उन्हें राज्यसभा में नामजद करके शांत करने की कोशिश की थी लेकिन तब तक उनकी महत्वाकांक्षाएं उड़ान भरने लगी थीं. उन्हें भाजपा में एक लोकप्रिय जाट सिख नेता के लिए ज्यादा संभावनाएं नहीं दिखीं. उधर अरविंद केजरीवाल उन्हें ‘आप’ की ओर से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं घोषित कर रहे थे, तो सिद्धू उन्हें ‘भोली सूरत दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे’ कहकर फटकारने लगे थे.

2017 के विधानसभा चुनाव से पहले वे कांग्रेस में शामिल हो गए और मंत्री बन गए लेकिन उनके लिए इतना काफी नहीं था.

राजनीति में छक्का मारने के लिए जल्दी ही वे क्रीज़ से बाहर निकलने लगे, इस भरोसे के साथ कि उनके स्टंप के पीछे गांधी परिवार तो खड़ा है ही. उनका आत्मविश्वास इस बात से भी बढ़ा कि अकाली दल से अलग होने के बाद भाजपा एक लोकप्रिय जाट सिख चेहरे की तलाश में होगी. यही हाल ‘आप’ का भी होगा, जो राज्य में अपना राजनीतिक वजूद हासिल करने को बेताब है. ये सब मोल-भाव के अच्छे बहाने बन सकते हैं.

जानी-पहचानी कहानी

सवाल यह है कि क्या कांग्रेस सिद्धू को आगे बढ़ाने के लिए कैप्टन अमरिंदर सिंह को कमजोर कर सकती है? हां, अगर वह अमरिंदर को बेअसर करने और एक कठपुतली को आगे बढ़ाने के फेर में चुनाव हारना चाहेगी. गांधी परिवार ने हरियाणा में यही किया, भूपिंदर सिंह हुड्डा को पूरी तरह कमजोर करके पिछला विधानसभा चुनाव हारने का इंतजाम कर लिया था. 10, जनपथ का ढोल बजाने वालों के बदकिस्मती से हुड्डा आज भी हरियाणा में पार्टी के लिए एकमात्र उम्मीद बने हुए हैं. लेकिन उपरोक्त सवाल का जवाब तभी ना हो सकता है जब गांधी परिवार पार्टी के पतन को रोकना चाहेगा और अपनी छवि सुधारना चाहेगा, खासकर यह देखते हुए कि केरल में कांग्रेस को राहुल के नेतृत्व में हार का मुंह देखना पड़ा.

कांग्रेस को रास्ता दिखने वाले कहते हैं कि चुनाव से पहले पार्टी आलाकमान अगर आंतरिक कलह को सुलझाने, और अगले साल मार्च में 80 के हो रहे अमरिंदर का उत्तराधिकारी खोजने की कोशिश कर रहा है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है. ठीक बात है. लेकिन जिस तरह यह माना जा रहा है कि बागियों को दिल्ली से शह मिल रही है, तो यह जानी-पहचानी कहानी ही लग रही है. कांग्रेस आलाकमान एक और लोकप्रिय क्षेत्रीय क्षत्रप को अपने तरीके से ‘दुरुस्त’ करने की कोशिश कर रहा है.

(यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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