उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा गाहे-ब-गाहे प्रदर्शित किया जाता रहने वाला बड़बोलापन उनके कथनों की गंभीर मीमांसा की इजाजत नहीं देता लेकिन गत बुधवार को प्रदेश की विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान उन्होंने अपने चिरपरिचित आक्रामक लहज़े में जो कुछ कहा, वह इस अर्थ में सार्थक प्रतिरोध की मांग करता है कि देश-प्रदेश के भविष्य के लिहाज़ से उन्हें अनालोच्य छोड़ देने के खतरे उसकी आलोचना के खतरों से कहीं ज्यादा बड़े हैं.
हम जानते हैं कि योगी जिस राजनीतिक जमात से आते हैं, उसे हिंसा का- वह राज्य द्वारा प्रायोजित हो या उपद्रवी समूहों द्वारा-औचित्य सिद्ध करके उसको शह व समर्थन देने का गुजरात के 2002 के दंगों से भी पुराना मर्ज है. यही कारण है कि जब उन्होंने बेहद ठिठाई से कहा कि कोई मरने के लिए ही आ रहा है तो वह जिन्दा कहां से हो जायेगा, तो कयास लगाये जाने लगे कि उनका यह मर्ज़ फिर से उभर आया है.
आश्चर्य नहीं कि इस उभार ने उनसे कई ऐसी परस्पर विरोधी बातें भी कहवा दीं, जिनकी आपस में कोई संगति ही नहीं. मसलन, पहले उन्होंने कहा कि अगर कोई व्यक्ति किसी निर्दोष को मारने निकला है और वह पुलिस के सामने पड़ता है तो या तो पुलिसकर्मी मरे या फिर वह मरे. लेकिन अगले ही पल सफाई देने लगे कि प्रदेश में संशोधित नागरिकता कानून के विरुद्ध हुए प्रदर्शनों में पुलिस की गोली से एक भी व्यक्ति नहीं मारा गया. दरअसल, उपद्रवी प्रदर्शनकारियों ने आपस में ही एक दूजे को निशाना बना डाला.
यह सब कहते हुए उन्होंने इतना याद रखना भी जरूरी नहीं समझा कि मौतें पुलिस की नहीं दंगाइयों की गोली से हुईं, न उनका कर्तव्य पूरा हो जाता है और न जिम्मेदारी खत्म. उनकी बात मान लें तो प्रदेश के ऐसे हिंसक उपद्रवों के हवाले हो जाने के बाद, जिनमें दो दर्जन से ज्यादा उपद्रवियों ने आपस में ही एक दूजे को भून डाला, मुख्यमंत्री का दिन का चैन और रात की नींदें उड़ जानी चाहिए थीं.
उन्हें महसूस करना चाहिए था कि मुख्यमंत्री के तौर पर उन पर सारे प्रदेशवासियों के जीवन के अधिकार की हिफाज़त का जिम्मा है और उन्हें या उनकी पुलिस को इस रक्षा में किसी के साथ इस आधार पर कोताही बरतने का हक नहीं कि वह उपद्रवी है. यह सुनिश्चित करना भी अंततः उनकी सरकार का ही काम था कि उपद्रवों में जान-माल का नुकसान न हो, लेकिन इसके विपरीत वे अब जो कुछ कह रहे हैं, उससे किसी को यह लग सकता है कि उन दिनों वे अपने जिस ‘रौद्र रूप’ का प्रचार करा रहे थे, वह ऐक्चुअल न होकर वर्चुअल है.
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बहरहाल, योगी ने अपने बचाव में यह भी पूछा कि उन विपक्षी महानुभावों को, जिन्होंने 1990 में अयोध्या में रामभक्त कारसेवकों को गोलियों से भुनवा दिया था, मुझसे उपद्रवियों की मौतों पर जवाब मांगने का क्या अधिकार हैं? सोचिये जरा, क्या अर्थ है इसका? क्या यह कि उन्होंने 1990 में कारसेवकों पर गोलियां चलाये जाने की ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ में इतने ‘उपद्रवियों’ को एक दूजे को मारने और मरने दिया? कौन नहीं जानता कि हिंसा के मामले में क्रिया और प्रतिक्रिया का सिद्धांत उनकी जमात को कितना रास आता रहा है. किस तरह उनकी जमात इसकी बिना पर ‘तूने नहीं तो तेरे बाप ने पानी गंदा किया होगा’ साबित करके पीड़ितों को ही कठघरे में खड़ा कर देती रही है?
लेकिन ‘उपद्रवियों’ की ये मौतें अगर कारसेवकों पर गोलियां चलाये जाने का बदला थीं- योगी ने अपनी पुलिस को बदला लेने को खुल्लमखुल्ला कहा ही था- तो बात कहीं ज्यादा गंभीर हो जाती और इस सवाल के जवाब की भी मांग करती है कि प्रदेशवासियों ने कारसेवकों पर गोलियां चलवाने वालों की जगह योगी सरकार को इतनी और लाशें गिरवा देने या गिरती देखते रहकर बदला पूरा करने के लिए चुना था या हालात को ऐसे बदलने के लिए कि वे चैन से रह सके?
योगी क्यों नहीं समझते कि जो विपक्ष आज उनसे सवाल पूछ रहा है, अपनी बारी पर उन्होंने भी उससे कुछ कम सवाल नहीं पूछे थे. जिस पुलिस को अपनी उंगलियों पर नचाने की शक्ति पा लेने के बाद वे उसकी सारी बेजा कवायदों का पक्षपोषण कर रहे हैं, 2006 में उसी द्वारा अपनी प्रताड़ना की बात कहते-कहते लोकसभा में रोने लगे थे. वक्त का फेर देखिये कि आज वे सवालों से भडकते हैं तो यह भी नहीं समझते कि सवाल पूछने वालों को ऐसा करने का दायित्व प्रदेश की उसी जनता ने सौंपा हुआ है जिसने उन्हें सत्ता चलाने का. विपक्ष को जवाब देने से इनकार का मतलब जनता को जवाब देने से इनकार करना है और इसका अंजाम अंततः उसकी जैसी गति को ही प्राप्त हो जाना है.
इसे यों भी समझ सकते हैं कि उनके जो विपक्षी अपनी बारी पर बात-बात में समाजवाद की रट लगाया करते थे, यहां तक कि उन्होंने सरकारी एम्बुलेंसों को भी समाजवादी बना डाला था, वे समाजवाद की विचारधारा को वक्त की हकीकत बनाने के बजाय क्रोनी और कारपोरेट समाजवाद बनाकर शून्य पैदा करने पर उतरे तो उसी का लाभ उठाकर भाजपा सत्ता में आई और योगी मुख्यमंत्री बने. अब इस क्रिया की प्रतिक्रिया के तहत योगी कह रहे हैं कि देश को समाजवाद की जरूरत ही नहीं है तो कोई उन्हें यह याद दिलाने वाला नहीं है कि समाजवाद देश के संविधान के गिने-चुने पवित्र मूल्यों में से एक है, जिसमें निष्ठा की शपथ लेकर वे सत्तासीन हुए हैं.
लेकिन उन्हें किसी और से नहीं तो खुद से तो पूछना ही चाहिए कि अगर उनका देश के संविधान को उसके खात्मे के लिए ही इस्तेमाल करने का इरादा नहीं है तो यह बात उन्हें क्योंकर शोभा देती है कि वे उसमें निष्ठा भी प्रदर्शित करते हैं और उसके मूल्यों की बखिया उधेड़ने से भी परहेज नहीं बरतते. कभी धर्मनिरपेक्षता को खरी-खोटी सुनाते हैं और कभी समाजवाद को. भले ही मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें अपने प्रदेश की जरूरतें ही तय करने आ अधिकार है, देश की नहीं.
ऐसे में क्या पता, वे यह महसूस भी कर पाते हैं या नहीं कि देश में आजकल उनके जैसे सत्ताधीशों की संवैधानिक मूल्यों की अवमानना और विचारधाराओं की बेदखली वाली राजनीति की मंशा रखने वाली कवायदें हम सबको एक ऐसे दलदल की ओर हांके लिये जा रही हैं, जहां अंततः किसी को भी कीचड़ छोड़ और कुछ हाथ नहीं आने वाला. उनके करतब ऐसे हैं जैसे उन्होंने जानबूझकर उस दलदल से अपने हाथों में ढेर सारा कीचड़ लगा लिया है और उसे साफ किये बगैर जिसे भी छू दे रहे हैं, उसे थोड़ा-बहुत कीचड़ अवश्य लगा दे रहे हैं.
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यहां तक कि वे उन भगवान राम को भी नहीं बख्श रहे, समाजवाद की जगह जिनका राज लाना चाहते हैं. गौरतलब है कि जो रघुपतिराघव राजाराम महात्मा गांधी की नजर में पतितपावन और अल्लामा इकबाल की नजर में इमाम-ए-हिन्द हैं, इन्होंने पहले उनके नाम पर भरपूर हिंसा व नफरत फैलाकर उन्हें सिर्फ हिन्दुओं का बनाया, फिर सिर्फ उन हिन्दुओं का जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वफादार हैं और हिन्दू के नाम पर लगातार बेवकूफ बनाये जाने पर भी उफ नहीं करते. इससे भी संतोष नहीं हुआ तो अब राम को ऐसे हिन्दुओं में भी सिर्फ ब्राह्मणों का बनाये दे रहे हैं. राम मन्दिर निर्माण के लिए बने ट्रस्ट में ब्राह्मणों का वर्चस्व इसकी एक बड़ी मिसाल है.
ऐसे में यह अंदेशा अकारण नहीं है कि योगी का अभीष्ट रामराज्य देश के संविधान और लोकतंत्र की कीमत पर कभी वास्तव में अस्तित्व में आया तो वह महात्मा गांधी की कल्पना वाला नहीं, भगवान राम की अपील को छोटा कर देने वाला ही होगा.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)
On any day in 21 century the so called Ram Rajya is inferior to Constitutionalism and democracy… Infact it is laughable when Ravan psyche Aditya Nath talks about Ram Rajya
Patrakar JNU se padhe maloom hote hain.