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Monday, 23 December, 2024
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सवर्ण आरक्षण बहाना है, संवैधानिक आरक्षण को मिटाना है!

सवर्ण जातियों को आर्थिक आधार पर केन्द्र सरकार द्वारा दिया जा रहा 10 प्रतिशत आरक्षण क्या संवैधानिक आरक्षण को खत्म करने की दिशा में बढ़ाया गया पहला कदम है?

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आरएसएस और उसका राजनीतिक संगठन बीजेपी जो कहते हैं और जो करते हैं, उसके बीच हमेशा बड़ा फासला होता है. सवर्ण आरक्षण के पीछे मकसद सिर्फ इतना नहीं हो सकता कि सवर्ण गरीबों को आरक्षण दिया जाए. ये तो वो बात है जो कही जा रही है. मुझे संदेह है कि आरएसएस-बीजेपी के इरादे कुछ और हैं.

यदि आप संघ और भाजपा की कार्यपद्धति और साजिश भरी चालों का गहनता से अध्ययन करते हैं और करीब से उसे समझते हैं तो यह बात आपको भी 100 प्रतिशत सही लगेगी.

संघ और भाजपा की राजनीति और कार्यपद्धति क्षणिक उद्देश्य के लिए नहीं होती बल्कि उसका हर निर्णय दूरगामी लक्ष्य को निर्धारित करके होता है.

संघ हमेशा से चाहता है कि इस देश में जातिगत आरक्षण से इतर एक ऐसी असंवैधानिक आरक्षण व्यवस्था हो जिसे आर्थिक आधार पर लागू किया जाए ताकि जाति व्यवस्था और सवर्ण और मूल रूप से ब्राह्मण वर्चस्व कायम रहे.

यह पूरी कयावद जातिगत आधार पर आरक्षण व्यवस्था को गलत ठहराने और आर्थिक आधार की व्यवस्था को सही ठहरा कर, संवैधानिक आरक्षण को समाप्त करने के लिए ही है. इसीलिए 10 प्रतिशत आर्थिक आधार पर आरक्षण को एक विकल्प के रूप में जन्म देकर जातिगत आरक्षण की व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी बजा दी गयी है.

दरअसल संघ और भाजपा की पूरी राजनीति अपने पचासों अनुषंगी संगठनों और समर्थक उद्योगपतियों के मीडिया हाउस द्वारा दिन रात संघ के एजेंडे का महिमामंडन और इसी के समर्थन में समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित प्रचारित करके जनता की जनभावना बदलने की रही है. इसमें समय तो लगता है परन्तु यह दीर्घकालीन राजनीति अचूक है. इसे समझने के लिए एक दो मुद्दों पर ऐसी ही रणनीति के सफल प्रयोग को उदाहरण के रूप में समझना होगा.

सबसे पहले बाबरी मस्जिद के मामले को समझिए.


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भारत तथा राज्य सरकार के सरकारी अभिलेखों में एक-एक घटनाओं का दर्ज होना यह प्रमाणित करता है कि बाबरी मस्जिद के साथ कैसे संघ और इसके 36 संगठनों ने 1987 के बाद साजिश की. 1987 के पहले ना तो किसी सावरकर ने बाबरी मस्जिद को देश और हिन्दुओं के माथे पर लगा कलंक बताया और ना ही किसी गोलवलकर ,किसी हेडगेवार, किसी श्यामा प्रसाद मुखर्जी, ना किसी दीन दयाल उपाध्याय ने, ना किसी नाना देशमुख ने, न तो किसी अटल बिहारी बाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने. किसी को अयोध्या की मस्जिद से कोई शिकायत नहीं थी.

संघ की 1987 के पहले की तमाम घोषणाओं और भाजपा के चुनावी घोषणाओं में भी कभी ना तो राम मंदिर का ज़िक्र था ना किसी बाबरी मस्जिद का.

राजीव गांधी सरकार के समय भी जो खेल हुआ वह बाबरी मस्जिद के बगल में स्थित राम चबूतरे के निर्माण को लेकर विहिप ने शुरू किया, परन्तु मंडल आयोग की सिफारिशों को वीपी सिंह की सरकार के लागू करने के बाद बाबरी मस्जिद में राम जी के पैदा होने की बात ज़ोर शोर से कही जाने लगी और आडवाणी रथ यात्रा निकालने लगे. वेद और उपनिषद आधारित धर्म मानने वालों के मनमस्तिष्क में ज़मीन के इस टुकड़े के प्रति धार्मिक आस्था और विश्वास को पैदा कराने में संघ को 30 साल लगे. यह धैर्य और लगन आरएसएस के अलावा देश के किसी और राजनीतिक संगठन में नहीं है.

आज बाबरी मस्जिद के संदर्भ में बात सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की नहीं की जाती है बल्कि खुल्लमखुल्ला यह सवाल पूछा जाने लगा है कि ‘रामलला के मंदिर निर्माण में बाधा कौन?’

यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट को इसके लिए खलनायक बना कर उसे भी ‘एक धक्का और दो’ की तर्ज पर ढहा देने का नारा खुलेआम लगने लगा है.

मात्र 30 साल के प्रयास में यह जनभावना बन गयी है कि राम जी उसी जगह पैदा हुए थे जहां बाबरी मस्जिद थी और इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कोई अर्थ नहीं.

प्रधानमंत्री मोदी स्वयं सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करने की जगह फैसले के बाद अध्यादेश लाने की बात कर रहे हैं. बीजेपी समर्थक इसका मतलब ये लगा रहे हैं कि यदि फैसला मंदिर के विरोध और मस्जिद के पक्ष में आया तो उसे अध्यादेश के ज़रिये पलटा जाएगा.

और इस संदर्भ में जनभावना ऐसी बन गयी है कि अब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के प्रति सम्मान का प्रवचन उनको कोई नहीं दे रहा है. सब बस मंदिर निर्माण की प्रतिक्षा में हैं इसके बावजूद कि सुप्रीम कोर्ट कोई भी निर्णय दे.

दूसरा उदाहरण इस देश में आतंकवाद को मुसलमानों से जोड़ देने की जनभावना या परसेप्शन का निर्माण, और यही कारण है कि देशी कट्टा और दीपावली के सुतली बम की बरामदी दिखा कर एनआईए गिरफ्तार मुसलमानों को जब ‘आईएस’ के आतंकवादी बताती है तो लोग इस पर विश्वास कर लेते हैं. पर इसी मोदी सरकार और भाजपा की राज्य सरकारों में भाजपा के आईटी सेल से जुड़े ध्रुव सक्सेना और उसके गिरोह के दो दर्जन से अधिक लोग आईएसआई के लिए काम करते गिरफ्तार हुए, केरल में एक संघ प्रचारक द्वारा पुलिस स्टेशन में बम फेकने के सीसीटीवी फुटेज प्राप्त होने के बाद भी उनको आईएस तो छोड़िए एक साधारण आतंकवादी भी नहीं कहा जाता और ना देश की जनता उनको आतंकवादी कहती है.

यह आतंकवाद के प्रति संघ और उसके 36 संगठनों के मीडिया हाउस का उपयोग करके बनाई जनभावना के कारण सफल हुआ है.

यही पद्धति और रणनीति वर्षों से चली आ रही जातिगत आरक्षण के विरुद्ध भी अपनाई जाएगी और इसी क्रम में सवर्णों को आर्थिक आधार पर दिया जा रहा 10 प्रतिशत आरक्षण, आरक्षण व्यवस्था के एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने का इनका पहला कदम है.

इसे ऐसे समझिए कि यह बाबरी मस्जिद में चोरी से राम की मूर्ति रखने जैसा मामला है. राम की मूर्ति रखने का मकसद लोगों ने तात्कालिक तौर पर समझा कि राम मंदिर बनाना है. लेकिन आरएसएस से इस रास्ते से देश की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. ऐसा ही आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देकर किया जाने वाला है.

अब दूसरे कदम में जातिगत आरक्षण के विरुद्ध प्रोपोगेंडा और फेक खबर चलाकर मीडिया हाउस के माध्यम से यह जनभावना बनायी जाएगी कि जातिगत आरक्षण गलत है और इसे समाप्त करके आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाए. आरएसएस भारत में मनुस्मृति लागू करने के दीर्घकालिक लक्ष्य पर काम कर रहा है, जिसमें सत्ता के हर स्रोत पर हिंदू सवर्णों का कब्ज़ा होगा. संवैधानिक आरक्षण से इसलिए उसे समस्या है क्योंकि संविधान निर्माताओं ने राष्ट्र निर्माण में हर समुदाय को हिस्सेदार बनाने की व्यवस्था की है. इसे खत्म करने के लिए ही आर्थिक आधार पर आरक्षण को जनमानस में स्थापित किया जा रहा है.

यह आरक्षण की व्यवस्था के संविधान की भावना के विपरीत तो है परन्तु यही तो उनका एजेन्डा है कि सबकुछ वह करो जो संविधान की भावना के विपरीत है. आरएसएस और बीजेपी के लोग बीच-बीच में संविधान के खिलाफ जो बयानबाज़ी करते हैं, वह एक मकसद के तहत है.

बस देखते रहिए, जनभावना बनाने की संघ की इस चाल में एक एक करके सब फसेंगे और जातिगत आरक्षण समाप्त हो जाएगा.

(लेखक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं)

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