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Wednesday, 17 April, 2024
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देश के मुसलमानों को ओवैसी की राजनीति क्यों नापसंद है?

ओवैसी की राजनीति के विफल होने का दूसरा कारण यह है कि ओवैसी के नाम से ही धर्मनिरपेक्ष मुसलमानों के साथ- साथ अन्य वर्ग का दूर रहना.

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भाजपा और संघ के राजनीति की धुरी यदि “मुस्लिम विरोध” है, तो भाजपा को लाभ पहुंचाने वाली इस मुस्लिम विरोध की भावना को उत्तेजना के स्तर तक ले जाने का काम “एमआईएम” के नेता “ओवैसी” ब्रदर्स, जाने या अनजाने करते हैं.

असदुद्दीन ओवैसी के पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी नगर पालिका और विधान सभा के सदस्य के बाद 1984 में हैदराबाद के सांसद के रूप में चुने गये और फिर लगातार छह बार चुनाव जीतते रहे. इससे पहले वे 22 साल तक विधायक रहे. 2004 में उनके बड़े बेटे असदुद्दीन ओवैसी ने सियासत में उनकी जगह ले ली और फिर वो सांसद चुने जाने लगे.

ये बात दिलचस्प है कि 2013 तक ओवैसी घराने की राजनीति की ओर से एक भी विवादास्पद बयान कहीं नहीं दिखा. यह घराना 2013 तक केन्द्र और राज्य की कांग्रेस की सरकारों का समर्थक रहा और कांग्रेस की सरकारों के समर्थन से ही अपना व्यवसायिक साम्राज्य बढ़ाता रहा. शिक्षा और रियल एस्टेट में इस घराने की खासी धाक है.

इसी समयकाल में कांग्रेस की ही सरकारों में तमाम मुस्लिम विरोधी दंगे हुए, बाबरी मस्जिद का ताला खोला गया, बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ, मुंबई, गुजरात, भागलपुर, मेरठ, मलियाना, मुरादाबाद में बड़े दंगे हुए. मुरादाबाद ईदगाह में ईद के दिन पीएसी की फायरिंग के बाद भड़के दंगों के बावजूद ओवैसी घराने के किसी शख्स का कोई विवादास्पद भड़काऊ बयान आपको नहीं मिलेगा, ना तो उन्होंने इस कारण कभी कांग्रेस की आलोचना की और ना ही कभी इस कारण कांग्रेस से समर्थन वापस लिया. इस दौरान ओवैसी हैदराबाद तक ही सीमित रहे.

हैदराबाद की राजनीति तक ही सीमित ओवैसी की राजनीति में बदलाव तेलंगाना के अलग राज्य बनने, हैदराबाद को उसमें शामिल होने और के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) के वहां की सरकार बनाने की प्रबल संभावना से शुरू हुआ. ओवैसी तेलंगाना के संभावित मुख्यमंत्री केसीआर के साथ हो कर कांग्रेस के विरोध में खुल कर बोलने लगे.

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20 दिसंबर, 2012 को गुजरात विधान सभा चुनाव में जब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीसरी बार जीत दर्ज करके देश की राजनीति की ओर कदम बढ़ाए तो एक हलचल उस समय आंध्र प्रदेश के अदिलाबाद जिले के निर्मल में हुई. एएमआईएम विधायक अकबरुद्दीन का वहां एक भड़काऊ सांप्रदायिक भाषण हुआ. इस सिलसिले में अकबरुद्दीन ओवैसी पर मुकदमा दर्ज हुआ और वे गिरफ्तार भी किए गए.

यहीं से असदुद्दीन ओवैसी और अकबरुद्दीन ओवैसी पूरे देश में मुसलमानों के एक ऐसे कट्टर सांप्रदायिक राजनीतिज्ञ के रूप में उभरे जो हिन्दू बहुसंख्यकों को सीधे सीधे धमकी देता है, उग्र टिप्पणी करता है. संघ और भाजपा के वेब नेटवर्क इनके वीडियो खूब प्रचारित करते हैं. 2014 में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए बीजेपी द्वारा इन भाषणों को खूब भुनाया गया. वो सिलसिला अब तक जारी है. सांप्रदायिक मुद्दों पर होने वाली टीवी बहसों के ये पसंदीदा मेहमान होते हैं और इनके बयान ऐसी बहसों के विषय होते हैं.

दरअसल, पिछले 70 साल में इस देश का मुसलमान सरकारी नौकरियों में 23% से 1.5% तक भले आ गया हो, जस्टिस सच्चर आयोग के अनुसार वह दलितों से बदतर भले हो गया हो, पंचर बनाने से लेकर वेल्डिंग तक के काम की मजदूरी करके भले जीविका चलाता रहा हो पर आम मुसलमान कभी हिन्दू देवी देवताओं पर टिप्पणी नहीं करता. वह अपने मजहब का पाबंद है, लेकिन दूसरा अगर कोई और मजहब मानता है, तो उसे कभी कोई शिकायत नहीं है. उसने देश के हिन्दू भाईयों को कभी चुनौती नहीं दी और यहाँ तक कि अपना नेता भी वह हिन्दुओं को ही चुनता रहा है.

यही इस देश के मुसलमानों की पूँजी थी, जिसे ओवैसी ब्रदर्स ने लुटा दिया. इसी एक काम से वह इतने चर्चित हुए कि वह हर मीडिया के पैनल में स्थान पाते रहे हैं, अखबारों में सुर्खियां बटोरते रहे और कुछ राज्यों में एक दो विधायक या पार्षद पाते रहे हैं. हालांकि महाराष्ट्र जैसे सूबों में उनका असर ढलान पर है.

ओवैसी का हैदराबाद के अलावा जो भी छिटपुट असर दिख रहा है, वह क्षणिक है क्योंकि दीर्घ काल में देश का मुसलमान इनको नकार देगा और इसका कारण यह है कि मुसलमान ही इस देश में धर्मनिरपेक्षता को ईमानदारी से ढो रहा है.

यही कारण है कि इस देश में 1% तक की जनसंख्या वाले धर्म और जाति का तो नेता आपको मिल जाएगा परन्तु मुसलमानों का नेता मुसलमान कभी नहीं रहा, वह जवाहरलाल नेहरु, इदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, वीपी सिंह, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, ममता बनर्जी और अब अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव तक को अपना नेता मानता रहा है. इसके बावजूद कि ये सभी नेता मुसलमानों के लिए कुछ करना तो दूर, उनका खुलकर नाम तक लेने से डरते हैं कि कहीं भाजपा इसका प्रयोग ध्रुवीकरण के लिए ना कर ले. मुसलमानों की दुर्गति इस देश में इन सेकुलर नेताओं की निगहबानी में हुई है. लेकिन मुसलमानों ने कभी यह नहीं चाहा कि उनका नेता उनकी जमात से हो. वह अब भी सेकुलर नेताओं पर यकीन करता है.

ओवैसी की राजनीति के विफल होने का दूसरा कारण यह है कि ओवैसी के नाम से ही धर्मनिरपेक्ष मुसलमानों के साथ साथ अन्य वर्ग का दूर रहना. ओवैसी ने अपने विवादास्पद भाषणों और बयानों से अपनी छवि ऐसी बना ली है कि वह हिन्दू विरोधी लगते हैं और मुसलमान जानता है कि उसका अकेला वोट आज के भारत की राजनीति में बिखर कर निरर्थक हो जाएगा. ऐसी लोकसभा सीटें बहुत कम हैं, जहां सिर्फ मुसलमान किसी को जिता पाने में सक्षम है.

यही कारण है कि देश के लगभग हर राज्य में, ओवैसी की लाख कोशिशों के बावजूद, मुसलमानों ने उनकी राजनीति को नकार दिया है. यह इस बात का प्रमाण है कि भारत का मुसलमान इस देश में अकेला नहीं चलना चाहता बल्कि वह सबके साथ चलकर वोट से व्यापार तक साथ करता है और करता रहेगा. ओवैसी की राजनीति केवल हैदराबाद तक ही सीमित रहेगी. वह भी तब तक जबतक टीआरएस और केसीआर की उनसे दोस्ती बनी रहेगी, जिस दिन केसीआर ने मजलिस के विरुद्ध मजबूत उम्मीदवार उतार दिया, ओवैसी हैदराबाद से भी हार जाएँगे.

(लेखक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं)

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