scorecardresearch
Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतइस दुर्दिन में भी डाॅ. लोहिया के वारिसों को उनके बताये कर्तव्य पथ पर चलना गवारा नहीं

इस दुर्दिन में भी डाॅ. लोहिया के वारिसों को उनके बताये कर्तव्य पथ पर चलना गवारा नहीं

डाॅ. लोहिया का वारिस कहने वाली पार्टियां और नेता गहन वैचारिक निराशा से गुजरकर भी निराशा के उन कर्तव्यों को निभाने को तैयार नहीं हैं.

Text Size:

वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स और समाजवाद के भारतीय चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया में कम से कम एक बात ‘कामन’ है. इस देश में दोनों के ही वारिसों और अनुयायियों ने उनसे लगभग एक जैसी दगा की.

डा. लोहिया की इस जयंती पर इस बात को कुछ इस तरह समझ सकते हैं कि जैसे कार्ल मार्क्स के सबसे बड़े अनुयायियों ने उनके स्वप्न को एक गैरमामूली यातना में बदल दिया, खुद को डाॅ. लोहिया का वारिस कहने वाली पार्टियां और नेता गहन वैचारिक निराशा से गुजरकर भी निराशा के उन कर्तव्यों को निभाने को तैयार नहीं हैं. जिनकी सीख डाॅ. लोहिया ने उन्हें 1962 में 23 जून को नैनीताल में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए दी थी.

याद रखना चाहिए, डाॅ. लोहिया ने कर्तव्यों की उक्त सीख ऐसे दौर में दी थी, जब 19 से 25 फरवरी, 1962 के बीच सम्पन्न हुए लोकसभा के तीसरे चुनाव में समाजवादियों द्वारा जगाई गई परिवर्तन की तमाम उम्मीदों के विपरीत प्रजा सोशलिस्ट पार्टी कुल मिलाकर बारह और सोशलिस्ट पार्टी छः सीटें ही जीत पाई थीं. स्वाभाविक ही इससे देश के समूचे समाजवादी आन्दोलन में निराशा का माहौल था. इस कारण और भी कि राजे रजवाड़ों की मानी जाने वाली स्वतंत्र पार्टी ने अकेले ही इन दोनों समाजवादी पार्टियों के बराबर 18 सीटें जीत ली थीं, जबकि 14 सीटें पुनरुत्थानवादी भारतीय जनसंघ के खाते में गयी थीं. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी 29 सीटें जीतकर अपना पुराना प्रदर्शन सुधार लिया था.

साफ है कि समाजवादियों के समक्ष लगभग आज जैसा ही, जब समाजवाद महज संविधान की प्रस्तावना में रह गया है, अप्रासंगिक हो जाने और हाशिये में धकेल दिये जाने का खतरा उपस्थित था.


यह भी पढ़ें : बिस्मिल, अशफाक, रौशन के सपनों से दगा कर घड़ियाली आंसू बहाने वाले श्रद्धांजलि मंच पर क्यों होने चाहिए


तब डाॅ. लोहिया ने न सिर्फ उनकी निराशा के कारणों की पड़ताल की थी, बल्कि उसके पार जाने के कई जरूरी कर्तव्य भी बताये थे. उन्होंने कहा था कि देश की जनता को अपने हकों के लिए लड़ना और उसकी कीमत चुकाना सिखाये बगैर यह निराशा हमारा पीछा नहीं ही छोड़ने वाली क्योंकि, ‘पिछले 1500 बरस में हिन्दुस्तान की जनता ने एक बार भी किसी अन्दरूनी जालिम के खिलाफ विद्रोह नहीं किया…एक राजा, जो अंदरूनी बन चुका है, देश का बन चुका है, लेकिन जालिम है, उसके खिलाफ जनता का विद्रोह नहीं हुआ…ऐसा विद्रोह, जिसमें हजारों-लाखों हिस्सा लेते हैं, बगावत करते हैं….इस 15 सौ बरस के अभ्यास के कारण झुकना हिन्दुस्तान की जनता की हड्डी और खून का अंग बन गया है…इस झुकने को हमारे देश में बड़ा सुन्दर नाम दिया जाता है…कहा जाता है कि हमारा देश तो बड़ा समन्वयी है, हम सभी अच्छी बातों को अपने में मिला लिया करते हैं.’

उन्होंने इस समन्वय के भी दो प्रकार बताये और उनके खतरे गिनाये थे. ‘एक दास का समन्वय है और दूसरा स्वामी का समन्वय. स्वामी या ताकतवर देश या ताकतवर लोग समन्वय करते हैं तो परखते हैं कि कौन-सी परायी चीज अच्छी है, उसको किस रूप में अपना लेने से अपनी शक्ति बढ़ेगी और तब वे उसे अपनाते हैं….लेकिन नौकर या दास या गुलाम परखता नहीं है. उसके सामने जो भी नयी या परायी चीज आती है, अगर वह ताकतवर है तो वह उसको अपना लेता है..यह झख मारकर अपनाना हुआ…अपने देश में पिछले 1500 बरस से जो समन्वय चला आ रहा है, वह ज्यादा इसी ढंग का है. इसका नतीजा यह हुआ है कि आदमी अपनी चीजों के लिए, स्वतंत्रता भी जिसका एक अंग है, अपने अस्तित्व के लिए मरने-मिटने के लिए ज्यादा तैयार नहीं रहता. वह झुक जाता है और उसमें स्थिरता के लिए भी बड़ी इच्छा पैदा हो जाती है…कोई भी नया काम करते हुए हमारे लोग घबराते हैं कि जान चली जायेगी. चाहे जितने गरीब हैं हम लोग, फिर भी एक-एक दो-दो कौड़ी से मोह है…जहां जोखिम नहीं उठाया जाता, वहां फिर कुछ नहीं रह जाता, क्रांति असंभव-सी हो जाती है…इसीलिए अपने देश में क्रांति…प्रायः असम्भव हो गई है. लोग आधे मुर्दा है, भूखे और रोगी हैं लेकिन संतुष्ट भी हैं. संसार के और देशों में गरीबी के साथ असंतोष है और दिल में जलन. यहां थोड़ी बहुत जलन इधर-उधर हो तो हो, लेकिन खास मात्रा में नहीं है.’

उन्होंने कार्यकर्ताओं से प्राणप्रण से जनता में यह असंतोष पैदा करने में लगने को कहा था और जाति प्रथा को उसके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा बताया था: ‘एक मोटा-सा और शायद सबसे बड़ा कारण है जाति प्रथा. यह हमारे देश की एक विशिष्ट बात है, जो दुनिया में और कहीं नहीं…इसी के नाते गुलामी में हम सबसे आगे हैं और देशों में तो गैर-बराबरी को शासक लोग कायम रखते हैं. ताकत के सहारे या लालच के सहारे, लेकिन हमारे यहां जाति प्रथा गैर-बराबरी को मंत्र की ताकत दे देती है और देशों की जनता गैर-बराबरी को इस डर से स्वीकार किये रहती है कि उस पर ताकत का इस्तेमाल हो जायेगा. जब नहीं स्वीकारती तो बगावत भी कर दिया करती है…लेकिन अपने देश में लालच और बन्दूक या हथियार के तरीकों के अलावा मंत्र का तरीका भी है. यानी मंत्र की, शब्द की, दिमागी बात की, धर्म के सूत्र की इतनी जबरदस्त ताकत है कि जो दबा है, गैरबराबर है, आधा मुर्दा है, छोटी जाति का है, वह खुद अपनी अवस्था में संतोष पा लेता है. ऐसे किस्से हैं, जो बतलाते हैं कि किस तरह जाति प्रथा ने प्रायः पूरी जनता को यह संतोष दे दिया है.’

उनके कहने का स्पष्ट आशय यह था कि जातियों के उन्मूलन के बिना देश में समाजवादी परिवर्तन का मार्ग कतई प्रशस्त नहीं होने वाला. लेकिन कौन नहीं जानता कि आज के समाजवादी जातियों के उन्मूलन या उन्हें तोड़ने के लिए काम करने के बजाय जातीय समीकरणों और गोलबन्दियों पर निर्भर करने लगे हैं. पिछड़ों को सौ में साठ की गांठ बांधने वाले लोहिया जाति तोड़ने का आन्दोलन चलाते थे और ये अनुयायी जातीय गोलबन्दियों को सत्ता की सबसे मुफीद सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करने के अभ्यस्त हो चले हैं.

यह डाॅ. लोहिया की विचारधारा से दगा नहीं तो और क्या है? तब डाॅ. लोहिया ने समाजवादियों की निराशाओं को राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय और मानवीय तीन श्रेणियों में बांटा और इनके खात्मे के लिए देश के ‘दो नम्बर के राजाओं’ के खात्मे पर जोर दिया था, जो उनके अनुसार ‘कभी खत्म नहीं हो पाते. भले ही एक नम्बर वाला राजा बदलता रहता है.’ कारण यह कि जब यह हार जाता है तो बुद्धिमत्तापूर्वक दुश्मन के साथ घुल-मिल जाता है, उससे मिलाप कर लेता है. उनके अनुसार इन्हीं दो नम्बर के राजाओं की पुश्तैनी गुलामी के कारण ‘हिन्दुस्तान हर किसी तूफान के सामने झुक जाता है.’

राष्ट्रीय निराशा की व्याख्या उन्होंने इस रूप में की थी, ‘अजीब हालत है कि जिसको क्रांति चाहिए, उसके अन्दर शक्ति ही नहीं है…और जिसमें क्रांति कर लेने की शक्ति है, उसे क्रांति चाहिए ही नहीं.


यह भी पढ़ें : जब मोरारजी देसाई ने कहा था- ‘अभी तो मैंने नौजवानों जितने जन्मदिन ही मनाये हैं’


आज अगर लोहिया होते तो गैर-भाजपावाद का आह्वान करते

लेकिन, इन सब गूढ़ बातों को समझकर उन पर अमल की बात तो छोड़िये, आज डाॅ. लोहिया के अनुयायियों ने उनकी उस सीधी बात को भी याद नहीं रखा है, जो उन्होंने अपने जन्मदिन की बाबत कही थी, ‘23 मार्च मेरे जन्मदिवस से ज्यादा भगत सिंह का शहादत दिवस है और इसे उनका शहादत दिवस ही रहना चाहिए.’ वे व्यक्तिगत रूप से तो अपना जन्मदिन नहीं ही मनाते थे., सिद्धांत के तौर पर किसी शख्सियत का जन्मदिन मनाने या उसकी मूर्तियां लगाने से उसके निधन के बाद के 300 साल तक परहेज के पक्ष में थे. उनके अनुसार इतिहास को निरपेक्ष होकर यह फैसला करने के लिए कि उक्त शख्सियत इसकी हकदार थी या नहीं, इतना समय जरूर देना चाहिए.

लेकिन आज उनकी विरासत की दावेदार पार्टियों में उसके सुप्रीमो व संरक्षकों के जन्मदिन राजसी ठाठ से मनाये जाते हैं, डाॅ. लोहिया का जन्मदिन कर्मकांड की तरह और भगत सिंह का शहादत दिवस तो मनाया ही नहीं जाता! निराशा के इन दिनों में भी वे अपना यह ढर्रा बदलने को तैयार नहीं हैं.

यहां यह नहीं कहा जा रहा कि समाजवादियों ने शुरू से ही डाॅ. लोहिया के बताये निराशा के इन कर्तव्यों पर अमल नहीं किया या उनकी राह पर कतई चले ही नहीं, न चलते तो उनकी यात्रा इतनी लम्बी न होती. लेकिन इन दिनों वे जिस तरह ‘रोड एंड’ पर खड़े दिखते हैं, उसका एक बड़ा कारण यकीनन यही है कि उन्होंने ये सारे कर्तव्य भुला रखे हैं. कब याद करेंगे, किसी को नहीं मालूम.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

share & View comments