scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतबिस्मिल, अशफाक, रौशन के सपनों से दगा कर घड़ियाली आंसू बहाने वाले श्रद्धांजलि मंच पर क्यों होने चाहिए

बिस्मिल, अशफाक, रौशन के सपनों से दगा कर घड़ियाली आंसू बहाने वाले श्रद्धांजलि मंच पर क्यों होने चाहिए

फैजाबाद, गोंडा, गोरखपुर और इलाहाबाद जिलों में शहादत दिवसों पर सार्वजनिक छुट्टी की मांग की लगातार अनसुनी की जाती रहती है.

Text Size:

शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पै मरने वालों का यही बाकी निशां होगा. कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे, जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा!…

राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत ये पंक्तियां सुनने में तो अच्छी लगती ही हैं, गाने और गुनगुनाने में भी कुछ कम भली नहीं. लेकिन जैसे-जैसे आजादी की उम्र बढ़ रही है, हमारी सामाजिक कृतघ्नता उसे हासिल करने के प्रयत्नों में शहीदों के योगदान को इस कदर भुला दे रही है कि क्षुब्ध लोग इन पंक्तियों को सवाल की तरह इस्तेमाल करने, साथ ही पूछने लगे हैं- शहीदों के मजारों पर लगेंगे किस तरह मेले?

यह प्रश्न इस तथ्य की रोशनी में और बड़े उत्तर की मांग करता है कि स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास प्रसिद्ध काकोरी काण्ड को लेकर 19 दिसम्बर, 1927 को गोरखपुर, फैजाबाद और इलाहाबाद की जेलों में शहीद कर दिये गये क्रांतिकारियों रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ और रौशन सिंह के शहादत दिवस पर उनके शहादत स्थलों पर लगते आ रहे ‘मेले’ एक के बाद दम तोड़ते जा रहे हैं और सरकार या समाज किसी को भी उनका नोटिस लेने की फुरसत नहीं है.

गोंडा की जेल में इन तीनों से दो दिन पहले 17 दिसम्बर को सूली पर लटका दिये गये राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी का शहादत स्थल भी इसका अपवाद नहीं है.

प्रसंगवश, बीती शताब्दी के तीसरे दशक में स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान क्रांतिकारी आन्दोलन ने जोर पकड़ा और उसकी बढ़ती गतिविधियों के क्रम में धन की कमी आड़े आने लगी तो क्रान्तिकारियों ने तय किया कि वे गोरी सरकार का वह खजाना, जिसे उसने देश की जनता को लूट-लूटकर इकट्ठा किया है, लूटकर उससे ही लड़ने में इस्तेमाल करेंगे.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढे़ंः भगत सिंह ने कहा था- इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है


इसी निश्चय के तहत 9 अगस्त, 1925 को लखनऊ के पास काकोरी में रेलगाड़ी में ले जाये जा रहे खजाने की ऐतिहासिक लूट हुई थी, जिसे इतिहास में काकोरी काण्ड के नाम से जाना जाता है. इससे अन्दर तक हिल गई गोरी सरकार ने बाद में मुकदमे का नाटक कर इसके चारो नायकों बिस्मिल, अशफाक, लाहिड़ी और रौशन को शहीद कर डाला था.

ये शहीद इस अर्थ में बहुत अभागे निकले कि ‘बिना खड्ग, बिना ढाल’ आजादी मिलने के दशकों बाद तक किसी को उनकी स्मृतियों को संजोने की जरूरत नहीं महसूस हुई. झाड़-झंखाड़, कूड़े-करकट और गुमनामी में डूबे अशफाक के फैजाबाद जेल स्थित शहादत स्थल की ओर सबसे पहले 1967 में कुछ स्थानीय स्वतंत्रता सेनानियों का ध्यान गया. जेल प्रशासन की बेरुखी के बीच उन्होंने उसकी सफाई की और वहां मेले की परम्परा डाली. बाद में अशफाक की आवक्ष प्रतिमा की स्थापना के साथ ही यह मेला आजादी की लड़ाई के आदर्शों व मूल्यों को सहेजने के इच्छुक देश-प्रदेश के अनेक लोगों की सामूहिक चेतना के उत्सव जैसा हो गया.

लेकिन इसका आयोजन करने वाली स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिषद ने कुछ वर्ष पहले चुपचाप इसे बन्द करने की घोषणा कर दी. परिषद के अनुसार शुरू के वर्षों में वह स्वतंत्रता सेनानियों व उनके परिजनों के आर्थिक सहयोग से यह मेला लगाती थी. बाद में एक तो सेनानियों की संख्या घटती गई, दूसरे वह जज्बा भी नहीं रह गया और मेले का खर्च दूभर होने लगा तो मन मारकर उसने प्रदेश वह केन्द्र सरकारों से मदद की याचना की. हालांकि यह याचना भी अशफाक की रख दे कोई जरा सी खाके वतन कफन में की भावना के विपरीत थी. फिर भी किसी सरकार ने इस हेतु एक भी रुपया देना गवारा नहीं किया.

मेले की निरंतरता बनाये रखने के लिए परिषद ने हार कर ऐसे बड़े नेताओं व मंत्रियों को श्रद्धांजलि समारोहों का अतिथि बनाना शुरू किया जिनके आगमन के बहाने प्रशासन मेले का थोड़ा बहुत प्रबन्ध करा दे. मगर यह सिलसिला भी लम्बा नहीं चल सका. नेता और मंत्री या तो समय देने से कतराने लगे या फिर मेलों में शिरकत कर झूठी व डपोरशंखी घोषणाओं से उसकी मूल भावना को ही खत्म करने लगे.

इस बीच एक विधायक को शहादत स्थल की बदहाली पर बहुत तरस आया और उन्होंने अपनी निधि से उसके सुन्दरीकरण के लिए कुछ पैसे दे दिये तो अशफाक को उनके शहादत स्थल पर ही ‘छोटा’ करने का खेल कर डाला. उन्होंने जो ‘भव्य’ प्रवेश-द्वार बनवाया, उसका नामकरण अशफाक के बजाय ‘अपने नेता’ के नाम पर करा दिया. बाद में कुछ और लोगों ने जेल से सटे चैराहे पर लगी अशफाक की प्रतिमा को ‘नीचा’ दिखाने के क्रम में वहीं एक ‘अपने बलिदानी’ राजा की भारी-भरकम प्रतिमा लगाने पर उतर आये.

जब यह मेला लगा करता था तो उसे लेकर कई तरह के सवाल उठाये जाते थे. सबसे बड़ा सवाह यह कि क्या अशफाक की प्रतिमा को हर साल एक माला अर्पित कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेने से उनके बताये रास्ते पर एक कदम चलना कहीं ज्यादा श्रेयस्कर नहीं है? कई स्वतंत्रता सेनानी पूछते थे कि इस तरह श्रद्धांजलि देने वालों की पात्रता क्या है और क्रांतिकारियों के सपनों व अरमानों से दगा करके घड़ियाली आंसू बहाने वालों को श्रद्धांजलि के मंच पर क्यों होना चाहिए? शहीदों के मजारों पर या मूर्तियों पर फूल-मालायें चढ़ाकर खुद को महान बनाने वालों के दौर से हमें कब मुक्ति मिलेगी? यह सवाल भी हवा में उछलता था कि आज अशफाक होते तो किसके विरुद्ध लड़ते?

लेकिन अब ये सारे अनुत्तरित सवाल दम तोड़ गये हैं क्योंकि संशोधित नागरिकता कानून के विरोध से डरे हुए प्रशासन को अशफाकउल्लाह खां मेमोरियल शहीद शोध-संस्थान के तत्वावधान में अशफाक के शहादत स्थल पर पिछले कई सालों से होता आ रहा श्रद्धांजलि समारोह तक गवारा नहीं है. उसने उक्त समारोह की इजाजत देने से तो साफ इनकार कर ही दिया है, दूसरे कई संगठनों के उस स्थल तक जुलूस की शक्ल में पहुंचने और शहीद को श्रद्धांजलियां अर्पित करने के कार्यक्रम भी रोक दिये हैं.

दूसरी ओर सरफरोशी की तमन्ना से बाजु-ए-कातिल का जोर देखने में कुछ भी न उठा रखने वाले ‘बिस्मिल’ की याद में उनके शहादत स्थल गोरखपुर जेल में लगी प्रतिमा के समक्ष होने वाला श्रद्धांजलि समारोह भी अब जेल के अधिकारियों, कुछ वामपंथी छात्र संगठनों, स्थानीय लोगों और प्रशासन की सदाशयता पर ही निर्भर करने लगा है. ‘बिस्मिल’ के नाम पर बनी स्मृति समिति के सामने उनकी यादों को संजोने की किसी पहल के लिए अर्थाभाव प्रायः मुंह बाये खड़ा रहता है लेकिन उसे इसके लिए कोई सरकारी बजट उपलब्ध नहीं कराया जाता.


यह भी पढ़ेंः नागरिकता कानून के सहारे संविधान और लोकतंत्र को सूली पर लटकाने पर आमादा हैं मौजूदा सत्ताधीश


गोंडा जेल में राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी की प्रतिमा स्थापित है, जबकि शहादत के बाद जहां उनका पार्थिव शरीर रखा गया और जिस बूचड़ घाट पर उनकी अन्त्येष्टि की गई थी, वहां स्मारक, पार्क व समाधि आदि निर्मित हैं, लेकिन कई बार उनकी प्रतिमा को उनकी शहादत यानी 17 दिसम्बर के दिन भी ठीक से दो फूल नसीब नहीं होते. हां, कभी-कभार उसके गले में माला डाल देने के लिए उसके इर्द-गिर्द साफ-सफाई की जाती है. उनके नाम पर बने उद्यान की तो ऐसी दुर्दशा है कि किसी भी सहृदय की आंख से आंसू निकल पड़ें. लेकिन सत्ताएं हैं कि उनकी आंखों में नम होने भर को भी पानी नहीं बचा है.

रोशन सिंह को इलाहाबाद की जिस मलाका जेल में शहादत दी गई थी, उसे अब नैनी केन्द्रीय कारागार में समाहित कर दिया गया है और उसके भवन में देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की माता स्वरूपरानी के नाम से मेडिकल कालेज संचालित है. इस मेडिकल कालेज के एक कोने में रौशन की प्रतिमा लगाकर उनके प्रति कर्तव्यों की इतिश्री कर ली गई है. लाहिड़ी की प्रतिमा की तरह यह प्रतिमा भी श्रद्धा के फूलों के लिए तरसती रहती है.

फैजाबाद, गोंडा, गोरखपुर और इलाहाबाद जिलों में यह मांग प्रायः उठती रहती है कि इन शहीदों के शहादत दिवसों पर सार्वजनिक छुट्टी की जाये, ताकि लोग सुविधापूर्वक उन्हें श्रद्धांजलि दे सकें. पूरे देश या प्रदेश में ऐसा नहीं किया जा सकता तो कम से कम सम्बन्धित जिलों में ही उस दिन स्थानीय अवकाश घोषित कर दिया जाये मगर इस मांग की लगातार अनसुनी की जाती रहती है.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

share & View comments