झारखंडी जनता के बीच अलोकप्रिय होने के बावजूद बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री रघुवर दास संघ और भाजपा की नाक के बाल बने हुए हैं, तो इसकी एक प्रमुख वजह यह कि उन्होंने आदिवासी एकता को सरना और ईसाई आदिवासी के नाम पर तोड़ने में सफलता पाई है. जो काम संघ परिवार पिछले 60-65 वर्षों में नहीं कर सका, उसे उन्होंने साढ़े चार वर्षों में कर दिखाया है.
संघ परिवार का सूत्र वाक्य है – ‘सरना और सनातन एक है.’ यानी, आदिवासियों का सरना धर्म और हिंदुओं का सनातन धर्म मूलतः एक ही धर्म है और जो आदिवासी ईसाई बन गये, वे दरअसल आदिवासी नहीं रहे. उनकी आस्था बदल चुकी है. वे बस आदिवासी के रूप में खुद को प्रतिस्थापित कर आदिवासियों को मिले आरक्षण का बड़ा हिस्सा हड़प रहे हैं. इस तरह से भी बरगलाया जाता है कि ईसाई आदिवासियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए और वे इस दिशा में पहलकदमी कर रहे हैं.
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यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि पूरे भारतीय समाज के लिए, खासकर वृहद गैर-आदिवासी समाज के लिए, आदिवासी दुनिया एक भिन्न दुनिया है. उस पर मुग्ध हुआ जा सकता है, उनके आनंदमय जीवन से रश्क किया जा सकता है, उनकी गरीबी और विपन्नता पर तरस भी खाया जा सकता है, लेकिन उस तरह जिया नहीं जा सकता, क्योंकि वह एकदम भिन्न समाज है.
उनका जीवन दर्शन, प्रकृति से उनका रिश्ता, वहां के स्त्री-पुरुष संबंध, वहां की सामूहिकता, वहां के नृत्य-गीत, वहां की कविता सब कुछ गैर-आदिवासी समाज से, वृहद हिंदू समाज से भिन्न है.
मौजूं सवाल यह है कि संपूर्ण हिंदू वांगमय में जिन्हें दस्यु, दास, असुर, राक्षस, वा‘नर’ जैसे शब्दों से पुकारा गया, जिनके साथ सतत युद्ध की कहानियां ही पौराणिक गाथाओं का मूलाधार हैं, उन्हीं आदिवासियों पर आरएसएस और संपूर्ण संघ परिवार आज इतना मेहरबान क्यों है? जिन्हें हिंदू वर्ण व्यवस्था के निम्न पायदान पर भी उन्होंने जगह नहीं दी, उन्हें संघ परिवार और भाजपा आज हिंदू बताती क्यों घूम रही है?
वजह शायद यह कि वोट की राजनीति में मध्य भारत में सघन रूप से बसी इस आबादी की निर्णायक भूमिका हो सकती है. पहले कांग्रेस उनका उपयोग करती थी और अब भाजपा करती है.
इसके अलावा आधुनिक उद्योग जगत के लिए आदिवासी बहुल इलाको की खनिज संपदा महत्व रखती है. यहां के जल, जंगल, जमीन पर काबिज होने के लिए वे बेकरार हैं. आदिवासियों से लड़ कर इसे हासिल नहीं किया जा सकता. अंग्रेज यह कोशिश कर हार चुके थे. बाद में उन्होंने मध्यम मार्ग अपनाया. विलकिंसन रूल, विशेष भूमि कानून, रिजर्व फारेस्ट के भीतर भी उनके लिए गुंजाइश. अंग्रेजों द्वारा बनाये गये उन कानूनों को आजाद भारत के संविधान में भी न सिर्फ शामिल किया गया, बल्कि पेसा कानून बना कर ग्रामसभाओं को और मजबूत किया गया.
लेकिन मोदी सरकार को अब ये बंदिशें नागवार गुजर रही हैं. पर्यावरण संबंधी कानूनों को कमजोर किया गया. भूमि अधिग्रहण कानून में तब्दिली लाई गयी. विकास का सब्जबाग दिखाया गया. बावजूद इसके उन्हें हर जगह भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है. गोड्डा, खूंटी, ईचा, नेतरहाट, मंडल बांध, कलिंगनगर, पोस्को, नियमगिरि, यानी हर जगह आदिवासी समाज उनके दमन का सामना करते हुए उनके मुकाबले खड़ा है.
तो, लड़ने के बजाय उन्हें बरगलाना ज्यादा आसान है. ‘सरना-सनातन एक है का नारा देकर’, उपभोक्तावाद की घुट्टी पिला कर. सत्ता में थोड़ी सी हिस्सेदारी देकर. और यही भाजपा सरकार कर रही है. और इस काम में परोक्ष रूप से मददगार बन रही हैं ईसाई मिशनरियां, जो आदिवासियों में हीनता की नये किस्म की ग्रंथि पैदा कर रही हैं. यह कहके कि तुम्हारा धर्म दोयम दर्जे का. तुम्हारा रहन-सहन हीन. तुम हड़िया पी कर टुन्न रहने वाले. तुम अपना जीवन सुधारना ही नहीं चाहते. तुम निकम्मे और निठल्ले हो. आदिवासियत अच्छी, लेकिन आदिवासी जीवन शैली खराब.
आश्चर्य नहीं कि आदिवासी समाज में हिंदूकरण की प्रक्रिया उन इलाकों में ज्यादा सफल रही हैं, जहां ईसाई मिशनरियां प्रभावी हैं. यह आरएसएस की साजिश तो है ही, ईसाई मिशनरियों के खिलाफ एक प्रतिक्रिया भी है. कितने नंगे रूप में यह भेदभाव दृष्टिगत होता है. चर्च रोड स्थित शिक्षा केंद्रों में गैर ईसाई आदिवासी छात्रों से भेदभाव किया जाता है. यहां का एक कालेज उर्सलाईन है. वहां आदिवासी बस्ती की लड़किया पढ़ती हैं. बताती है कि ईसाई आदिवासी लड़कियों और उनके फीस में अंतर है. उनके हॉस्टलों में उन्हें जगह नहीं मिलती.
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आरएसएस उन्हें बताता है कि देखो, तुम्हारी ही जमीन पर चर्च ने अपना साम्राज्य खड़ा किया है. क्यों उनकी तरफ जाते हो, तुम तो सनातन हिंदू धर्म के ही हिस्सा हो. आदिवासी समाज उनकी इस साजिश का तेजी से शिकार हो रहा है. ईसाई आदिवासी और सरना आदिवासी आपस में बुरी तरह लड़ रहे हैं. ईसाई आदिवासी तो भाजपा विरोधी है, लेकिन सरना आदिवासी प्रतिक्रिया स्वरूप तेजी से भाजपा की तरफ बढ़ रहे हैं. यह एक तथ्य है कि रिजर्व सीटों से भी बड़ी संख्या में भाजपा के भगवा रंग में रंगे आदिवासी विधायक बने हुए हैं और वे बीजेपी की कार्पोरेट परस्त नीतियों के समर्थक हैं.
आदिवासी समाज का प्रबुद्ध तबका, चाहे वह सरना हो या ईसाई, जल, जंगल, जमीन को बचाने के संघर्ष के साथ आदिवासी समाज को सांस्कृतिक रूप से खोखला बनाने वाले इस संकट के खिलाफ पूरी संवेदनशीलता के साथ खड़ा नहीं होगा तो यह प्रक्रिया और तेज होगी.
(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है)
Is lekh k lekhak.. Pjp se bair rakhta hai…??
Ya hindu dharm ki samjh hi nhi h…?
Prachin bharat me..muglo k pahle hajaro saal pahle kis dharm k log nivas krte the…
Hinduo ki utpatti kab hue iska jawab kya videshi itihaskar batayenge.. Jinki sachhae ye hai ki jb bharat ved puran likh rahe the to ye log aag jalana bi nhi jante the.. Gufao me rahye the..
Jin-jin chijo ki khoj pe ye log apni pith thapthapate hai wo to hajaro years pahle hi hamare purwajo ne kr chuke hai…
Aj bharat k kitne tukde ho chuka hai ki..
Aj jo bacha hai use bachane sirf hindu hi aage khada h… Varna ek din aisa aa jayega ki bharat sirf itihas ki baat ho jayegi…
Pr aisa hone nhi diya jayega….
Sanaatan tharm aarambh se tha aor ant tak rahega….jai bharat