scorecardresearch
Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतआदिवासियों के लिए लोकसभा चुनाव में क्या हैं अहम मुद्दे

आदिवासियों के लिए लोकसभा चुनाव में क्या हैं अहम मुद्दे

यह समझने की जरूरत है कि आदिवासी इलाकों की राजनीति के मुद्दे देश के अन्य इलाकों से भिन्न होते हैं. आदिवासी राजनीतिक से ज्यादा, अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.

Text Size:

सिर्फ झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और मध्य प्रदेश ही नहीं, देश के तमाम आदिवासी इलाकों में आदिवासियों के लिए मुख्य चुनावी मुद्दा जल, जंगल, जमीन ही है. आदिवासियों के लिए जल, जंगल, जमीन पर जन का अधिकार अहम मुद्दा तो है ही, आदिवासी बहुल इलाकों की गैर-आदिवासी राजनीति के लिए भी यह एक जरूरी मुद्दा है. वह इसलिए कि पूरी चुनावी राजनीति इसके खिलाफ वोटों की गोलबंदी पर ही निर्भर करती है.

यह मुद्दा इस लोकसभा चुनाव के लिए अहम है, उसके संकेत तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में हुए चुनाव और उसके परिणाम हैं. राजस्थान और मध्य प्रदेश में तो कांग्रेस को आंशिक सफलता ही हासिल हुई, जबकि आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया. यह इस बात का संकेत है कि आदिवासियों में भाजपा के खिलाफ एक भयानक आक्रोश पल रहा है और वह एक दुश्चक्र से निकलने की राह तलाश रहा है. लोकसभा चुनाव उनके लिए एक मौका है.


यह भी पढ़ेंः मंडल बांध, यानी चुनावी वर्ष में फिर एक बड़ी परियोजना


गौरतलब है कि खासकर झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और मध्य प्रदेश में आदिवासी समाज के लिए रोजगार, आरक्षण, महंगाई आदि कभी चुनावी मुद्दे नहीं रहे. कभी इसके लिए आंदोलन, प्रदर्शन आदि नहीं होते हैं. उनकी लड़ाई या समाज के प्रभु वर्ग से उनका संघर्ष हमेशा जल, जंगल, जमीन के लिए ही रहा है. ओडिशा में नियमगिरि, कलिंगनगर, पोस्को आदि के आंदोलन इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. झारखंड में भी आदिवासियों के जितने बड़े आंदोलन चले हैं, वे जल, जंगल, जमीन और विस्थापन के खिलाफ ही चले हैं या चल रहे हैं.

झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड का गठन कर भाजपा ने एक उम्मीद जगायी थी और आदिवासियों को लगा था कि भाजपा उनके मुद्दों के प्रति सचेत है. और इसका लाभ भी भाजपा को मिला. लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद जिस तरह कार्पोरेटपरस्त नीति पर भाजपा चलने लगी है, उससे आदिवासी समाज आक्रांत है.

भूमि अधिग्रहण कानून में मोदी सरकार के दौरान हुए संशोधन का प्रबल विरोध हुआ और सरकार ने बाध्य होकर उसे वापस लिया. लेकिन चूंकि जमीन का मसला राज्याधीन है, इसलिए झारखंड में भूमि अधिग्रहण कानून में मनचाहा संशोधन करने में भाजपा सरकार कामयाब रही. इसके लिए उन्हें भारी मशक्कत भी करनी पड़ी.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

पिछले वर्ष जून में जिस दिन भूमि अधिग्रहण कानून नये रूप में राज्यपाल की स्वीकृति से लागू किया गया, उस दिन दो और समाचार अखबारों में आये. एक तो यह कि महाधिवक्ता का कहना है कि ईसाई बने आदिवासियों का आरक्षण समाप्त हो सकता है और दूसरा यह कि खूंटी के पत्थलढ़ी आंदोलन के क्षेत्र में पांच महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ.


यह भी पढ़ेंः झारखंड में महागठबंधन का केंद्र बनने की कोशिश न करे कांग्रेस


अब इन तीनों खबरों का निहितार्थ यह कि भूमि अधिग्रहण कानून संशोधित रूप में लागू हो गया. आदिवासियों के विरोध को कमजोर करने के लिए यह शिगूफा कि धर्मांतरित आदिवासियों को आरक्षण से वंचित किया जा सकता है, और तीसरी खबर का मतलब यह कि आंदोलनकारी बलात्कारी हैं. इसके बाद तो ईसाई मिशनरियों के खिलाफ एक मुहिम ही चल पड़ी. उसी दौरान मदर टरेसा के आश्रम से बच्चा बेचे जाने की खबर छपी, खूंटी में बलात्कारियों और अपहरणकर्ताओं को पकड़ने के नाम पर भीषण दमन हुआ और सैकड़ों लोगों के खिलाफ देशद्रोह के मामले लगाए गए.

राज्य सरकार इन हथकंडों से भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करने में तो कामयाब हो गई और उसका प्रबल विरोध सरना-ईसाई विवाद में कमजोर हो गया, लेकिन आंदोलन की आग अब भी सुलग रही है.

सरकार ने लाखों एकड़ सार्वजनिक उपयोग की जमीन लैंड बैंक में डाल दी है. जन विरोध की वजह से बंद की गई कई बड़ी-मंझोली परियोजनाओं को फिर से चालू करने की घोषणा की गई है, जिसमें शामिल है ईचा खरकाई बांध, मंडल डैम आदि. इसके अलावा कुछ नई परियोजनाएं भी शुरू की गई हैं जैसे गोड्डा का अडाणी पावर प्रोजेक्ट, पलामू हाथी कॉरिडोर आदि.

हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने वन क्षेत्र में रहने वाले 11 लाख आदिवासी परिवारों को वहां से निकाल बाहर का आदेश सुनाया, जिसके अमल पर फिलहाल स्टे कर दिया गया है, लेकिन आदिवासी समाज इस बात से सशंकित है कि भाजपा यदि सत्ता में लौटी तो वन कानून में भी संशोधन होगा और आदिवासियों को जंगल से निकाल बाहर किया जायेगा.

सवाल सिर्फ इतना रह जाता है कि जल, जंगल, जमीन पर जन के अधिकार के आदिवासी आंदोलनों के खिलाफ गैर-आदिवासियों की गोलबंदी और आदिवासी एकता को विखंडित करने के भाजपाई हथकंडे इन मुद्दों पर कितने भारी पड़ते हैं. यह समझने की जरूरत है कि आदिवासी बहुल इलाकों की राजनीति के मुद्दे देश के अन्य इलाकों की राजनीति से भिन्न होते हैं. और वजह भी साफ है- आदिवासी हित हमेशा तथाकथित राष्ट्रीय हितों से टकराते हैं.


यह भी पढ़ेंः केवल आदिवासी ही इस बात को समझते हैं कि प्राकृतिक जंगल उगाये नहीं जा सकते


देश को चाहिए आदिवासी इलाकों से यूरेनियम, कोयला, लौह अयस्क, बाक्साइट, सोना आदि, जबकि इसके बदले आदिवासियों को मिलता है सिर्फ और सिर्फ विस्थापन का दंश. इसलिए आदिवासियों से सहानिभूति रखने वाला बौद्धिक समाज भी आदिवासियों को विकास का विरोधी समझता है, जबकि आदिवासियों का संघर्ष न सिर्फ उनके अपने अस्तित्व का संघर्ष है, बल्कि पर्यावरण को बचाने का भी संघर्ष है.

तथाकथित विकास के रास्ते से आदिवासी इलाकों में गैरआदिवासी आबादी लगातार बढ़ती जा रही है और आदिवासी अपने घर में ही अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं. इसलिए ये मुद्दे चुनाव को कितना प्रभावित कर सकेंगे, यह एक गणितीय सवाल भी है. दरअसल, हम जिन्हें आदिवासी बहुल इलाके बोल रहे हैं, उनमें से कई इलाके अब आदिवासी बहुल नहीं रह गए हैं. इसका असर इन इलाकों की राजनीति पर पड़ना स्वाभाविक है.

(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े थे. समर शेष इनका चर्चित उपन्यास है.)

share & View comments