मैरिटल रेप का सवाल लगातार किसी न किसी रूप में चर्चा का केंद्र बना हुआ है. विवाहित महिलाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा की घटनाएं आज भी हो रही हैं. इस स्थिति में सुधार या बदलाव के लिए अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये हैं.
स्थिति यह है कि सरकार कहती है कि मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में शामिल करने का उसका विचार नहीं है. सुप्रीम कोर्ट भी कम से कम दो अवसरों पर इस विषय पर विचार करने से इंकार कर चुका है.
लेकिन इससे इतर दो उच्च न्यायालयों ने मैरिटल रेप के सवाल पर हाल ही में दो व्यवस्थायें दी हैं. पहली व्यवस्था केरल उच्च न्यायालय की है जिसने 30 जुलाई को अपने फैसले में मैरिटल रेप को तलाक के लिए एक महत्वपूर्ण आधार मानते हुये कहा है कि दंड संहिता के तहत इसे अपराध नहीं मानने के बावजूद तलाक के लिए क्रूरता के रूप में इसे आधार मानने से अदालत को नहीं रोका जाता है.
इसी तरह, दूसरी व्यवस्था छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय की है जिसने एक व्यक्ति को अपनी पत्नी से कथित बलात्कार या जबरन यौनाचार के मामले में आरोप मुक्त कर दिया और कहा कि पत्नी से बलपूर्वक यौन संबंध बनाने को कानून अपराध नहीं मानता है.
इसके विपरीत, सुप्रीम कोर्ट ने 22 सितंबर, 2014 को VIDHYA VISWANATHAN Vs KARTIK BALAKRISHNAN प्रकरण में जानबूझ कर लंबे समय तक बगैर किसी ठोस वजह के जीवन साथी के साथ यौन संबंध बनाने से इंकार को तलाक के लिए मानसिक क्रूरता का आधार माना है.
जहां तक तलाक के लिए मानसिक क्रूरता का सवाल है तो कानून में प्रावधान के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने Samar Ghosh Vs Jaya Ghosh प्रकरण में 26 मार्च, 2007 को अपने फैसले में मानसिक क्रूरता को भी विस्तार से वर्णित किया था लेकिन इसमें पत्नी से बलपूर्वक या उसकी इच्छा के खिलाफ यौनाचार मानसिक क्रूरता की सूची में शामिल नहीं है.
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सुप्रीम कोर्ट को विचार करने की जरूरत
इन न्यायिक व्यवस्थाओं के बाद निश्चित ही पत्नी से उसकी इच्छा के विरुद्ध यौनाचार के मुद्दे पर अब सुप्रीम कोर्ट की एक सुविचारित व्यवस्था की आवश्यकता है. निकट भविष्य में शीर्ष अदालत को यह भी स्पष्ट करना होगा कि क्या बलपूर्वक पत्नी से यौनाचार तलाक के लिए निर्धारित मानसिक क्रूरता की श्रेणी में आयेगा?
इन व्यवस्था के मद्देनजर मूल सवाल यही है कि आखिर पत्नी से बलपूर्वक या उसकी इच्छा के खिलाफ यौन संबंध बनाने की प्रवृत्ति को ‘बलात्कार’ की श्रेणी में क्यों नहीं रखा जा सकता?
एक सवाल यह भी है कि क्या पत्नी की देह पर उसका अपना कोई अधिकार नहीं है और क्या 21वीं सदी में भी विवाह के बाद उसकी स्थिति सिर्फ पति की दासी जैसी है और उसका कोई अपना अस्तित्व नहीं है?
बलात्कार के अपराध की परिभाषा से संबंधित भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 375 में प्रदत्त अपवाद में पत्नी से उसकी इच्छा के खिलाफ या बलपूर्वक यौन संबंध बनाने को अपराध नहीं माना गया है और इसे एक अपवाद के रूप में माना गया है.
लेकिन शीर्ष अदालत में न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने 11 अक्टूबर, 2017 Independent Thought Vs Union of India प्रकरण में स्पष्ट किया है कि 18 साल से कम आयु की लड़की से यौन संबंध बनाना बलात्कार है, भले ही वह विवाहित हो या नहीं और धारा 375 में प्रदत्त अपवाद-2 अनावश्यक है.
हालांकि, न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट किया था उसने वयस्क महिला के साथ मैरिटल रेप के व्यापक मुद्दे पर विचार नहीं किया है क्योंकि यह हमारे सामने नहीं उठाया गया था. न्यायालय ने यह भी कहा कि इस फैसले में ‘मैरिटल रेप’ के बारे में कही गयी किसी भी बात को इस विषय पर टिप्पणी नहीं माना जायेगा.
न्यायालय की इस व्यवस्था से यह तो स्पष्ट है कि 15 से 18 साल की पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना बलात्कार है लेकिन मुस्लिम लॉ के प्रावधानों के तहत अगर 15 साल की आयु में कोई लड़की रजस्वला हो जाती है तो वह अपनी मर्जी से किसी भी व्यक्ति से विवाह कर सकती है. न्यायपालिका ने अनेक फैसलों में ऐसे विवाह को सही भी ठहराया है.
इसी प्रावधान को लेकर बार-बार सवाल उठते हैं और दलील दी जाती है कि इससे संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 में प्रदत्त समता तथा जीने की आजादी के मौलिक अधिकारों का हनन होता है.
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इस मुद्दे को लंबे समय तक नहीं टाला जा सकता
पत्नी से बलपूर्वक या उसकी मर्जी के खिलाफ यौन संबंध बनाने को बलात्कार की श्रेणी में रखने के लिए तर्क दिया जाता है कि संयुक्त राष्ट्र की महिलाओं से संबंधित 2011 की रिपोर्ट में ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस और भूटान सहित कम से कम 52 देशों में पत्नी से बलपूर्वक यौन संबंध बनाने को बलात्कार का अपराध माना गया है. रिपोर्ट यह भी कहती है कि 127 देशों में इस तरह के संसर्ग को बलात्कार नहीं माना गया है.
मैरिटल बलात्कार का मामला कई बार संसद में भी उठा है लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट भी पत्नी की सहमति के बगैर उससे यौन संबंध स्थापित करने के कृत्य को अपराध घोषित करने से इंकार कर चुका है.
पत्नी से उसकी मर्जी के खिलाफ यौन संबंध स्थापित करने को बलात्कार की श्रेणी में रखने का मुद्दा फरवरी, 2015 और फिर जुलाई, 2019 में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आया लेकिन दोनों ही बार शीर्ष अदालत ने इस पर विचार करने से इंकार कर दिया.
पहले मामले में एक विवाहिता ने पति द्वारा बार-बार यौन हिंसा किये जाने से परेशान होकर धारा 375 में प्रदत्त अपवाद समाप्त करने और सहमति के बगैर यौन कृत्य को अपराध घोषित करने का अनुरोध किया था.
इसी तरह, जुलाई, 2019 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबड़े और बी आर गवई की पीठ ने मैरिटल रेप के मामले में प्राथमिकी दर्ज करने के लिये दिशानिर्देश और उचित कानून बनाने तथा इसे तलाक के आधार में शामिल करने का सरकार को निर्देश देने के लिए अधिवक्ता अनुजा कपूर की जनहित याचिका पर विचार से इनकार कर दिया था. शीर्ष अदालत ने कहा था कि याचिकाकर्ता को उच्च न्यायालय जाना चाहिए.
इस मामले में याचिकाकर्ता का कहना था कि हिन्दू विवाह कानून, मुस्लिम पर्सनल लॉ और विशेष विवाह कानून के तहत मैरिटल रेप को पति के खिलाफ तलाक और क्रूरता का आधार नहीं बनाया जा सकता है.
सरकार पहले ही कह चुकी है कि पत्नी की सहमति के बगैर उससे शारीरिक संबंध बनाने को बलात्कार के अपराध की श्रेणी में शामिल करने का विचार नहीं है.
पत्नी से उसकी इच्छा के विरुद्ध या बलपूर्वक यौनाचार को बलात्कार की श्रेणी में शामिल करने की महिला संगठन लंबे समय से मांग कर रहे हैं. लेकिन इस विषय पर सरकार की उदासीनता और शीर्ष अदालत द्वारा इस पर विचार से इनकार के बावजूद यह मुद्दा आज भी प्रासंगिक है. इसे लंबे समय तक टालना संभव नहीं है.
सरकार को देर सबेर महिलाओं के सम्मान और अधिकारों की रक्षा के लिए पत्नी से बलपूर्वक यौनाचार को बलात्कार की श्रेणी में शामिल करने की दिशा में सकारात्मक कदम उठाने ही पड़ेंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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