लंबे समय से जारी अफगान-तालिबन प्रसंग से हट कर वापस अपनी राष्ट्रीय राजनीति की ओर मुड़ते हुए हम तीन सवाल उठा रहे हैं. इसमें यह सावधानी बरतनी है कि जब तक तीसरे सवाल का जवाब नहीं दिया जाता तब तक पहले दो सवाल अप्रासंगिक होंगे. तो तीन सवाल ये हैं—
1. क्या नरेंद्र मोदी को हराया जा सकता है? या यह नामुमकिन है? या वे, जैसा कि मैंने कभी उनके लिए कहा था, केवल अभेद्य सुरक्षा कवच से लैस नहीं हैं बल्कि टाइटेनियम जैसे सख्त धातु के बने हैं?
2. अगर उन्हें हराया जा सकता है, तो कैसे? किसी चेहरे, किसी नारे, घोषणापत्र, विचारधारा के बूते, या इन सबके मेल से?
3. क्या कोई उन्हें हराने की कोशिश कर भी रहा है?
अपने दिल पर हाथ रखकर तीसरे सवाल का जवाब पहले दीजिए. विपक्ष के कौन महारथी उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर परास्त करने का प्रयास कर रहे हैं?
राहुल गांधी के हाथ में वह पार्टी है, जिसका देश में दूसरा सबसे बड़ा वोट-आधार है. लेकिन उनका नाम लेते ही कई लोग फौरन कह बैठेंगे कि अरे, राहुल तो खुद ही तैयार नहीं दिखते हैं! यह इस सवाल से कतराना होगा कि क्या कांग्रेस पार्टी ही तैयार है? आंतरिक कलह, असंतोष, राज्यों पर ढीली पड़ती पकड़, ये सब ऐसी चीजें हैं जिनका लंबे समय तक सत्ता में रही पार्टी को सामना करना ही पड़ता है. लेकिन क्या इस पार्टी के पास चेहरा, या नारा, या घोषणापत्र, या विचारधारा तक है कि मोदी को चुनौती दे सके?
शरद पवार का कहना है कि कांग्रेस एक पुराने जमींदार जैसी है, जिसके हाथ से जमीन तो निकल गई है मगर हवेली बची हुई है और उसे संभाले रखने की ताकत उसमें नहीं रह गई है. लेकिन वे यह भी देख चुके हैं कि सामंतों के विपरीत, पतनशील पुरानी पार्टियां किस तरह फिर उठ खड़ी होती हैं, पुनर्गठित हो जाती हैं. ऐसा भारत में भी हुआ है और दूसरे लोकतांत्रिक देशों में भी. नयी लेबर पार्टी भी उभरी, नयी रिपब्लिकन पार्टी भी, और निरंतर नयी होती डेमोक्रेटिक पार्टी भी. और दूर क्यों जाएं? मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में नयी भाजपा भी सामने आई. क्या पुरानी भाजपा से इसका कोई मिलान हो सकता है? यह लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी से जाकर पूछ लीजिए.
उपभोक्ता वस्तुओं के बाज़ार की तरह राजनीति में गलाकाट होड़ चलती रहती है. चुनौती पेश करने वाले को पहला काम यह करना होता है कि अपना माल ऐसा लाए जो सबसे अलग हो. आज कांग्रेस अपनी विचारधारा को लेकर उलझन में है— कट्टर सेकुलर बने, या नरम हिंदुत्ववादी बने? धुर वामपंथी बने, या शांत मध्यमार्गी? नारा क्या दे—‘गरीबी हटाओ’, या ‘चौकीदार चोर है’? कौन जाने!
मुझे मालूम है कि मैं जो कह रहा हूं उससे इसके कई समर्थकों में खलबली पैदा हो जाएगी. आज भी इस पार्टी को देशभर में 20 फीसदी वोट मिलते हैं, जो इसके बाद की छह पार्टियों के कुल वोट से ज्यादा ही हैं. अगर उनमें खलबली पैदा होती है तो मैं गुजारिश करूंगा कि वे 1200 शब्दों में, जो इस स्तंभ की सीमा है, लिख भेजिए कि आपका माल मोदी और उनकी भाजपा के माल से किस तरह अलग है. हमें इसे ‘दप्रिंट’ में प्रकाशित करने में खुशी होगी.
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कांग्रेस को पहले यह कबूल करना होगा कि वह गहरे संकट में है, कि किस तरह उसके ज्यादा से ज्यादा वफादार मतदाता विकल्पों की तलाश कर रहे हैं. जरूरी नहीं कि वह विकल्प भाजपा ही हो. कांग्रेस का 20 फीसदी राष्ट्रीय वोट-आधार 2014 और 2019 में भी कायम रहा. लेकिन उसके नेताओं को पता है कि यह आधार मोदी के आने से बहुत पहले से ही सिकुड़ने लगा था.
कुछ तो खिसककर भाजपा में गया, खासकर हिंदी पट्टी के कुछ ओबीसी और दलित वोट. बाकी वोट भाजपा विरोधी छोटी पार्टियां काट रही हैं, खासकर वे जो सेकुलर होने का अधिक विश्वसनीय दावा करती हैं. ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में उसका वोट-आधार पोछ डाला है, और उनकी तृणमूल कांग्रेस वहां नयी कांग्रेस ही बन गई है; और त्रिपुरा में तो वह कांग्रेस+वाम दल बन गई है.
कांग्रेस के दूसरे गढ़ आंध्र प्रदेश पर अब उन लोगों ने कब्जा कर लिया है, जो ममता की तरह कभी उसके अपने थे. तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन हर हफ्ते जांच कर रहे होंगे कि उसके साथ गठबंधन की उपयोगिता कब समाप्त होगी. अरविंद केजरीवाल दिल्ली में कांग्रेस के अवतार हैं, उसके मुक़ाबले कहीं ज्यादा मजबूत. और अब तो वे पंजाब के उसके किले पर भी नज़र गड़ा रहे हैं. बड़े धैर्य के साथ उनकी ‘आप’ उत्तराखंड और गोवा जैसे उसके बाकी बचे किलों में सेंध लगाने में जुटी है.
बाकियों का क्या? स्टालिन बेहद भले व्यक्ति के रूप में पेश आते हैं. मोदी विरोधी खेमे में वे ‘मेरा नेता ऐसा हो’ वाली कसौटी पर खरे उतरते हैं. लोकसभा में सीटों की हिस्सेदारी के लिहाज से तमिलनाडु उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और बिहार सहित देश के पांच सबसे बड़े राज्यों में शामिल है. लेकिन अपने राज्य से बाहर स्टालिन किस गिनती में हैं?
हिंदी पट्टी के किसी भाजपा विरोधी नेता की आज कोई गिनती नहीं है. मायावती? हम निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते कि वे भाजपा विरोधी हैं. यादव बंधुओं में से कोई भी नेता चुनौती देने की स्थिति में नहीं है. नीतीश? क्या वे मोदी को चुनौती देना चाहेंगे?
तेवर के हिसाब से दो मजबूत नेता ऐसे हैं जिनमें मोदी से लोहा लेने का कौशल और इच्छाशक्ति है. नहीं, शरद पवार उनमें शामिल नहीं हैं. वे दो हैं— ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल. उनकी पार्टी अभी अपने विकास के शुरुआती चरण में ही है और उनकी जोरदार पकड़ को आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं है. लेकिन उस समूह में सबसे कम उम्र का होने के कारण उनके पास अभी समय है. वास्तव में वे देश के दूसरे प्रमुख नेताओं में एक को छोड़ बाकी सबसे छोटे हैं. वो एक हैं योगी आदित्यनाथ, जो भाजपा में हैं.
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मोदी-शाह को ममता की शिकस्त दिल्ली में केजरीवाल की बार-बार कामयाबी से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. दूसरे किसी नेता के मुक़ाबले वे अभी भी उन दोनों से कहीं ज्यादा जोरदार संघर्ष कर रही हैं. वे जब दूसरे विपक्षी नेताओं पर जांच एजेंसियों के डर से चुप रहने या संभलकर बोलने के लिए तंज़ कसती हैं तो यह सही भी है. वे अपनी व्यापक लोकप्रियता बनाने में जुटी हैं, लेकिन उनकी भौगोलिक पहुंच अभी भी सीमित है. भारतीय राजनीति के मानदंडों के हिसाब से वे अभी उतनी उम्रदराज नहीं हैं. वे मोदी से कुछ छोटी हैं, लेकिन एक पूरी तरह बंगाली पार्टी को अखिल भारतीय पार्टी बनाना उनके लिए आसान नहीं होगा, बशर्ते ऐसा अवसर न आ जाए जो उन्हें उछाल दे दे. सबसे बड़ी विपक्षी दल में दांव रखने वाले क्या बगावत कर सकते हैं और सीईओ बदलने की मांग कर सकते हैं? भूल जाइए.
तो हमने जो तीसरा सवाल उठाया था उसका जवाब ढूंढने के बाद हम किस मुकाम पर पहुंचे हैं? मोदी को हराने की ताकत तो कई रखते हैं, लेकिन अपने ही गढ़ में. कुछ ऐसे भी स्मार्ट हो सकते हैं जो महाराष्ट्र की तरह भाजपा से सत्ता छीनने के लिए कई ताकतों को एकजुट कर सकते हैं. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर किसी में अकेले इतनी ताकत नहीं दिखती कि वह मोदी को हरा सके. शुरुआती पूंजी के तौर पर कांग्रेस के 20 फीसदी वोट के बिना कोई उन्हें नहीं हरा सकता.
क्या कांग्रेस बदलेगी? हम नहीं कह सकते. क्या वह उद्यम पूंजीपति की तरह अपने वोट की पूंजी ऐसे किसी को दे सकती है, जो मोदी को विश्वसनीय तरीके से हरा सके? कतई नहीं.
तो फिर, हम पहले दो सवालों का कैसे जवाब दे पाएंगे?
पहली बात तो यह है कि लोकतंत्र में कोई अजेय नहीं होता. लोकतंत्र का इतिहास उन लोगों के उदाहरणों से भरा पड़ा है, जो यह मान बैठे थे, और बेवजह नहीं, कि वे तो अजेय हैं. सबसे ताजा उदाहरण डोनाल्ड ट्रंप हैं, हालांकि अमेरिका और भारत में तुलना नहीं हो सकती.
अगर हम अपनी राजनीति पर ही नज़र डालें तो कई प्रासंगिक उदाहरण मिल जाएंगे. क्या इंदिरा गांधी ने सोचा होगा कि 1977 में वे हार जाएंगी? क्या राजीव गांधी ने सोचा होगा कि 1984 में उतने भारी बहुमत से जीतने के बाद 1989 में उन्हें विपक्ष में बैठना पड़ेगा? क्या अटल बिहारी वाजपेयी और उनके समर्थकों को यकीन होगा कि 2004 के चुनाव का नतीजा एनडीए के पक्ष में बड़े बहुमत के सिवा कुछ और होगा?
इन नाटकीय उलटफेर में एक समानता है. हर मामले में शिकस्त किसी चुनौती देने वाले नहीं दी. अजेय नेता ने खुद अपनी हार को न्योता दिया. इंदिरा गांधी को इमरजेंसी की आक्रामकता ने, राजीव को अपनी कई भूलों ने, वाजपेयी और उनकी पार्टी को गठबंधन के साथियों के प्रति उपेक्षा ने डुबोया.
तो क्या विपक्ष इस उम्मीद में हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा कि मोदी खुद को ही हराएंगे? यह बुरी खबर भले हो, लेकिन हकीकत यही है कि इसके कोई संकेत नहीं हैं. वे और उनकी पार्टी अपने जनाधार को निरंतर सुरक्षित कर रही है, हर राज्य में वे इस तरह प्रचार कर रहे हैं मानो जीवन-मरण का सवाल खड़ा हो. वे विपक्ष से राज्यवार मुक़ाबला करके खुश हैं, भले ही एकाध राज्य हाथ से निकल जाता हो.
तीसरे मोर्चे, गैर-कांग्रेसी गठबंधन की बात करना मोदी के लिए मैदान खुला छोड़ना होगा. और कांग्रेस के तहत गठबंधन? उसका नेतृत्व कौन करेगा? दो साल बीत चुके हैं और कांग्रेस खुद अपना नेता नहीं ढूंढ पाई है.
फिलहाल अंतिम बात कह दें. क्या विपक्ष में किसी के पास इतनी ताकत है कि वह मोदी से चुनावी जंग में लोहा ले सके, उनके खिलाफ अपनी ताकत का प्रयोग कर सके, तमाम तरह की ताकतों को एकजुट करके उन्हें हरा सके या पहले कम-से-कम उन्हें उस राज्य में भारी चोट पहुंचा सके, जो उनकी पार्टी के लिए बेहद निर्णायक है? उत्तर प्रदेश में? हमारे पहले दो सवालों का किसी के पास शायद अलग जवाब हो.
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