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Friday, 22 November, 2024
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भारतीय न्यायपालिका में लैंगिक भेदभाव की जड़ें गहरी, देश को पहली महिला चीफ जस्टिस मिलना मुश्किल

मद्रास हाईकोर्ट के एक जज ने मेरे छोटे बालों पर टिप्पणी की और मैंने आपत्ति की. पर अन्य पुरुष वकीलों ने मुझसे माफी मंगवाई. महिला वकीलों के सामने इस तरह की चुनौतियां हैं.

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भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने लैंगिक पहचान, सेक्सुअल ओरिएंटेशन, सबरीमाला मंदिर में प्रवेश और व्यभिचार के मामलों में उल्लेखनीय फैसले दिए हैं. पर भारतीय न्यायपालिका की वास्तविक प्रगति इसके उच्च पदों पर महिलाओं की संख्या से मापी जानी चाहिए. आज़ादी के बाद से देश को महिला राष्ट्रपति, महिला प्रधानमंत्री और कई महिला मुख्यमंत्री व गवर्नर मिल चुके हैं, पर अभी तक कोई महिला भारत की मुख्य न्यायाधीश नहीं बन पाई है.

सुप्रीम कोर्ट में पहली महिला न्यायाधीश, जस्टिस फातिमा बीवी, की नियुक्ति में करीब 40 साल लगे, जबकि सीधे किसी महिला के न्यायाधीश बनने में 68 साल जब छह पुरुष जजों के साथ जस्टिस इंदु मल्होत्रा को भी नियुक्त किया गया. इस समय सुप्रीम कोर्ट में तीन महिला जजों के होने के बावजूद निकट भविष्य में देश को पहली महिला मुख्य न्यायाधीश मिलने की संभावना न के बराबर दिखती है. मौजूदा मुख्य न्यायाधीश के बाद, 2025 तक, न्यायपालिका के सर्वोच्च पद पर बैठने के लिए पांच पुरुष जज पहले से ही कतार में हैं.


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बाबासाहब भीमराव आंबेडकर ने कहा था, ‘मैं किसी समुदाय की प्रगति इस बात से मापता हूं कि महिलाओं ने कितनी प्रगति हासिल की है.’

सुप्रीम कोर्ट अक्टूबर 1935 में स्थापित हुआ था और जनवरी 1950 में अपने मौजूदा स्वरूप में आने से पहले तक इसने भारत की संघीय अदालत के रूप में काम किया. आरंभ में यहां कुल आठ जज ही हुआ करते थे- मुख्य न्यायाधीश और सात अन्य न्यायाधीश. मुकदमों की संख्या बढ़ते जाने के साथ जजों की गिनती भी बढ़ती गई. वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश समेत कुल 31 जज हैं. 1950 से अब तक भारत के सुप्रीम कोर्ट में कुल 46 मुख्य न्यायाधीश और 167 अन्य जज हुए हैं.

उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं के बेहतर प्रतिनिधित्व के लिए आवाज़ पिछले कुछ समय से उठ रही है. पर अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल द्वारा सीनियर एडवोकेट इंदिरा जयसिंह की पहचान को लेकर की गई टिप्पणी और वर्तमान मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत को निपटाने के तरीके को देखें तो इस मुद्दे की तात्कालिकता बढ़ गई है.

पर, न्यायपालिका में महिलाओं के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की चर्चा अदालतों के स्वरूप पर गौर किए बिना नहीं की जा सकती है.

योग्यता, परिश्रम और संघर्ष के बावजूद महिला वकीलों को महत्व नहीं दिया जाता है. दूसरी-पीढ़ी की कुछेक महिला वकील ही इसकी अपवाद हैं. अदालतों के माहौल की बात करें तो पुरुष वकील वहां खुद को सहज पाते हैं, पर महिला वकीलों के लिए वहां अनुकूल स्थिति नहीं निर्मित की जाती है.

सीनियर एडवोकेट इंदिरा जयसिंह ने हाल ही उल्लेख किया था कि कैसे एक वरिष्ठ पुरुष वकील उनके लिए ‘वो महिला’ का संबोधन कर रहा था, जबकि पुरुष वकीलों के लिए ‘मेरे काबिल दोस्त’ का. यदि ये अनुभव देश की एक पूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता का हो, तो समझा जा सकता है कि प्रथम-पीढ़ी की महिला वकीलों के लिए परिस्थितियां कितनी मुश्किल होती होंगी.

जब मैं मद्रास हाईकोर्ट में प्रैक्टिस कर रही थी तो एक जज ने मेरे नहीं बांधे जा सकने वाले छोटे बालों पर टिप्पणी की थी. जज ने कहा, ‘आपका हेयरस्टाइल आपकी दलीलों से अधिक रोचक है. महिलाओं का छोटे बाल रखना, जबकि पुरुषों का लंबे बाल रखना और बूंदे डालना आजकल फैशन बन गया है, पर मुझे ये सब पसंद नहीं.’ मैंने कहा कि मैं स्कूल के दिनों से ही छोटे बाल रख रही हूं. मैंने ये भी कहा कि मुझे माइग्रेन की समस्या है और मैं लंबे समय तक बाल बांधे नहीं रह सकती, इसलिए मैंने उन्हें छोटे कर दिए हैं. मैंने इस बात का भी उल्लेख किया कि महिलाओं के बालों को लेकर बार काउंसिल का कोई नियम या प्रावधान भी नहीं है.

इस पर जज का जवाब था, ‘बिल्कुल, कोई नियम नहीं है. पर मैं बस अपनी राय दे रहा हूं.’ इस टिप्पणी के बावजूद अदालत में मौजूद पुरुष वकीलों ने मुझे जज से माफी मांगने को कहा. एक ट्रांसजेंडर महिला की पुलिस में नियुक्ति के एक मामले में याचिकाकर्ता की वकील होने के बाद भी जज ने मुझसे दुर्व्यवहार किया था, मुझे अपमानित किया था और चुप रहने को कहा था.


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सुप्रीम कोर्ट के जिस वरिष्ठ वकील के अधीनस्थ मैं प्रैक्टिस कर रही थी, उसने एक बार मुझे कोर्ट में साथ ले जाने से इसलिए इनकार कर दिया था कि मेरे बाल खुले थे (जो कि मैंने माइग्रेन के कारण खोल रखे थे); एक और वकील ने मुझे काम छोड़कर शादी कर लेने को कहा था क्योंकि पीरियड्स के दौरान मैंने एक दिन की छुट्टी मांगी थी. उसने आगे ये भी सुनाया कि इसी कारण वह जूनियरों के रूप में महिलाओं की भर्ती नहीं करता.

इस तरह के अनुभव अकेले मेरे नहीं हैं, बल्कि इस पेशे में मौजूद लगभग हर महिला के हैं. पुरुष वकील हों या जज, उनके मन में महिला वकीलों के खिलाफ पूर्वाग्रह इतने गहरे बैठे हैं कि वे मजाक और अपमानजनक या महिला विरोधी टिप्पणी के बीच विभेद नहीं कर पाते हैं. महिला वकीलों को इस तरह कमतर समझना, साथ ही उनकी उपस्थिति और पेशेवर दक्षता को नज़रअंदाज़ करना, उन्हें परिदृश्य से गायब कर देता है.

वरिष्ठ वकीलों की सुप्रीम कोर्ट की सूची में मात्र 4 प्रतिशत ही महिलाएं (400 पुरुषों के मुकाबले 16) हैं. महाराष्ट्र में जहां महिला वकीलों की सर्वाधिक संख्या है, वहीं बंबई हाईकोर्ट में वरिष्ठ महिला वकीलों का अनुपात महज 3.8 प्रतिशत के बराबर है. जब नामित सीनियर महिला वकीलों का अनुपात इतना कम हो, तो और अधिक महिलाओं के जज बनने की संभावना न्यूनतम ही रहेगी. विधि मंत्रालय के न्याय विभाग की 2019 की रिपोर्ट से भी यही तस्वीर उभरती है. इसके अनुसार देश के 24 उच्च न्यायालयों (तेलंगाना को छोड़कर) के कुल 670 जजों में से मात्र 73 (या 10.8 प्रतिशत) महिलाएं हैं.

लैंगिक विविधता वाली खंडपीठ का महत्व

लैंगिक विविधता वाली खंडपीठ पूर्वाग्रह मुक्त न्यायपालिका को दर्शाती है. कई साक्ष्य आधारित अध्ययनों से ये बात निकल कर आई है कि यदि तीन जजों वाले किसी पैनल में एक भी महिला हो तो लैंगिक भेदभाव के मामलों में निर्णय प्रक्रिया में पूरे पैनल पर उसका प्रभाव दिखता है. उदाहरण के लिए, दहेज निषेध कानून के दुरुपयोग पर फैसला देने वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ में यदि एक महिला जज होती तो वह मामले में बेहतर दृष्टिकोण ला सकती थी, और तब शायद अदालत, दुरुपयोग किए जाने के बावजूद, एक बेहद संरक्षणात्मक कानून का सामान्यीकरण नहीं कर पाती. महिला जजों के होने पर अधिक संख्या में महिलाओं को अपने साथ होने वाली दिन-प्रतिदिन की हिंसा और अपराधों को कानून के समक्ष लाने की प्रेरणा मिलती है.

क्या लैंगिक विविधता वाली खंडपीठें पर्याप्त हैं?

जैसे जज के पद पर ऐतिहासिक रूप से पुरुषों का एकाधिकार रहा है, उसी तरह महिलाओं के लिए उपलब्ध होने वाले थोड़े से अवसरों पर संपन्न पृष्ठभूमि वाली महिलाओं का प्रभुत्व है. और इसलिए, जहां पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन की 2010 में सेवानिवृति के बाद से सुप्रीम कोर्ट में कोई दलित जज (महिला या पुरुष) नहीं हुआ है, वहीं सुप्रीम कोर्ट में आज तक कोई दलित महिला जज नहीं आई है, और इस बात की संभावना तक नहीं है कि भारत को कभी दलित महिला मुख्य न्यायाधीश मिल पाएगी.

विविध पृष्ठभूमियों वाली महिलाओं के जज बनने से निर्णय प्रक्रिया में संरचनात्मक बदलाव आ सकेगा. अध्ययनों में ये बात सामने आ चुकी है कि अदालती फैसले निजी मूल्यों, अनुभवों और अन्य कई गैर-विधिक कारकों से प्रभावित होते हैं.

यदि न्यायपालिका में महिलाएं भी मुख्यधारा के विचारों और विश्वासों को मानने वाले पुरुषों की पृष्ठभूमि से ही आएंगी तो फिर लैंगिक विविधता का नहीं के बराबर फायदा मिल पाएगा. साथ ही, अदालती खंडपीठों में जितनी अधिक सामाजिक विविधता होगी, न्यायपालिका उतनी ही मजबूत बनेगी. इससे न्यायपालिका में जनविश्वास बढ़ेगा और न्याय ज्यादा सुलभ हो सकेगा.


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ये कैसे हासिल हो?

पर्याप्त संख्या में भावी उम्मीदवार उपलब्ध हों, इसके लिए एक प्रभावी सकारात्मक कार्य योजना बनाई जानी चाहिए, जिसमें हाशिये पर पड़े समुदायों का विशेष ध्यान रखा जाए. साथ ही, सीनियर वकील के रूप में नामित किए जाने की अर्हताओं पर भी फोकस किया जाना चाहिए.

मद्रास हाईकोर्ट के प्रावधानों के अनुसार सीनियर एडवोकेट के रूप में नामित होने के लिए एक वकील को विगत तीन वर्षों में आमदनी के एक नियत स्तर को हासिल करना ज़रूरी है. जबकि सच्चाई ये है कि हर महिला वकील को अच्छा भुगतान कर सकने वाले क्लाइंट नहीं मिलते हैं. यहां तक कि मुकदमा लड़ने वाले भी महिला वकीलों के खिलाफ पूर्वाग्रह रखते हैं, और वे आमतौर पर पुरुष वकील रखना पसंद करते हैं जिसके साथ मेलजोल उनके लिए सहज हो.

बड़ी संख्या में ऐसी महिलाएं हैं जो 10-20 वर्षों से जूनियर पदों पर कार्यरत हैं, और उनके संस्थानों द्वारा उन्हें मुख्यत: स्थगन प्राप्त करने के लिए अदालतों में भेजा जाता है क्योंकि जज युवा और महिला जूनियर वकीलों से सहानुभूति रखते हैं. पर जब मामला मजबूत दलीलें देने का हो तो पुरुष जूनियरों को भेजा जाता है क्योंकि जज उन्हें ज्यादा गंभीरता से सुनते हैं. इसके अलावा, आपराधिक मामलों में क्लाइंट की पसंद भी पुरुष वकील ही होते हैं. इस तरह, स्वतंत्र मामले नहीं पाने वाली पहली-पीढ़ी की महिला वकीलों को पेशे में बने रहने के लिए पूरा करिअर किसी अन्य के ऑफिस में जूनियर के रूप में गुजारना पड़ता है.

ऐसी भी महिला वकील हैं जिन्होंने आर्थिक रूप से कमज़ोर पीड़ितों के मामले बिना किसी फीस के लड़ने में पूरा जीवन और करिअर समर्पित कर दिया है, पर तब भी जज उन्हें पर्याप्त काबिल नहीं मानेंगे. जब तक महिला वकीलों को प्रोत्साहित और प्रेरित करने के लिए एक विशेष विविधता कार्यक्रम को नहीं अपनाया जाता, कानून पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या भले ही बढ़ जाए, कानूनी पेशे में बने रहने के लिए उनकी प्रेरणा बन सकने वाली महिला जज नदारद रहेंगीं.

(लेखिका भारतीय सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाली दलित वकील हैं. वह लीगल इनिशिएटिव फॉर इक्वलिटी की संस्थापक कार्यकारी निदेशक हैं. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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