scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतसुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के विरोध में अगड़ी जातियों की ‘योग्यता’ वाली दलील को खारिज कर दिया है

सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के विरोध में अगड़ी जातियों की ‘योग्यता’ वाली दलील को खारिज कर दिया है

इस फैसले से पूर्व, नीति निर्माताओं के बीच पदोन्नति में आरक्षण के दायरे को लेकर भ्रम की स्थिति थी.

Text Size:

भारत में सकारात्मक पक्षपात या आरक्षण का विरोध अक्सर इस मिथक के आधार पर किया जाता है कि यह योग्यता की अनदेखी करता है और इससे दक्षता कम होती है. यह विवाद अरसे से सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) वर्ग के लोगों को पदोन्नतियों में आरक्षण की व्यवस्था को चुनौती देने वाली मुकद्दमेबाज़ियों के केंद्र में रहा है.

सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले में गत सप्ताह न्यायमूर्ति यू.यू. ललित और न्यायमूर्ति डी.वाय. चंद्रचूड़ ने पिछले कई दशकों से इस मुद्दे पर सार्वजनिक बहस को दूषित करने वाली ‘योग्यता’ की संकीर्ण परिभाषा को खारिज कर दिया. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ द्वारा अंकित फैसले में कर्नाटक के उस कानून की संवैधानिक वैधता पर मुहर लगाई गई है, जो कि राज्य की आरक्षण नीति के तहत एससी/एसटी वर्ग के कर्मचारियों की अनुवर्ती वरिष्ठता सुनिश्चित करती है.

आरक्षण की इस नीति के तहत, सामान्य वर्ग के सहकर्मी से जूनियर होने के बावजूद विगत में पदोन्नति पा चुका एससी/एसटी कोटि का कर्मचारी, उच्चतर पदों के लिए भी सीनियर माना जाता है. उस स्थिति में भी, जबकि सामान्य वर्ग का कर्मचारी भी अंतत: पदोन्नति पाकर समान पद पर आ चुका हो.

प्रशासनिक दक्षता और मिथक

कर्नाटक के उपरोक्त कानून के विधायी इतिहास और पदोन्नति में आरक्षण की नीतियों के दायरे के बारे में संवैधानिक व्याख्याओं पर विचार करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि इस बात का कोई तज़ुर्बाती सबूत नहीं है कि आरक्षण के तहत चुने गए उम्मीदवार/कर्मचारी अक्षम होते हैं या कि बगैर आरक्षण वाले व्यक्ति बेहतर काम करते हैं. कोर्ट के फैसले में इस बात को सही ही रेखांकित किया गया है कि ‘प्रशासनिक दक्षता का संबंध नियुक्ति या पदोन्नति पाने के बाद कर्मचारियों द्वारा किए गए कार्यों से है, ना कि चयन की प्रक्रिया से.’


यह भी पढ़ें: आरक्षण व्यवस्था पर सरकार ने कर दी है ‘सर्जिकल स्ट्राइक’


कानूनों को सामाजिक यथार्थ से अलग नहीं रखा जा सकता. संस्थाओं द्वारा वास्तविकता की अनदेखी, असामनता के मौजूदा रिवाजों को कायम रखने और उसे मज़बूत करने में मददगार साबित होती है. आरक्षण के प्रावधान को संविधान में शामिल कर संविधान निर्माताओं ने सामाजिक यथार्थ को ध्यान में रखते हुए ‘सामंती और जाति आधारित सामाजिक ढांचे में सदियों से एससी/एसटी के लोगों के साथ हो रहे भेदभाव और पक्षपात’ को खत्म करने का प्रयास किया है. जैसा कि फैसले में भी रेखांकित किया गया है, संविधान के इस परिवर्तनकारी दृष्टिकोण की सिर्फ ‘प्रशासन की दक्षता’ और ‘योग्यता’ संबंधित मिथकों की वजह से अनदेखी नहीं की जा सकती है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

‘प्रशासन की दक्षता’ के वाक्यांश का एक संवैधानिक संदर्भ भी है. ऐसी स्थिति में ‘प्रशासन की दक्षता’ सुनिश्चित नहीं की जा सकती है, यदि सरकारी सेवाओं और पदों के लिए एससी/एसटी के दावों को पूरी तरह खारिज किया जाता हो. इस तरह पदोन्नति में एससी/एसटी को आरक्षण देने की नीतियों से संविधान के इस प्रावधान का कार्यान्वयन सुनिश्चित होता है. हाशिये पर पड़े समुदाय भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं, और सरकारी सेवाओं में उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं दिए जाने से निश्चय ही प्रशासन असमावेशी बनेगा और उसकी विश्वसनीयता कम होगी. इसके विपरीत विविधता और समावेशन प्रशासन की दक्षता को बढ़ा सकती हैं.

इस बात को कोर्ट के फैसले में दमदार तरीके से रखा गया है: ‘यदि दक्षता का मानक बहिष्करण पर आधारित हो, तो इसके परिणामस्वरूप शासन का ऐसा पैटर्न बनेगा जो कि हाशिये पर पड़े लोगों के खिलाफ केंद्रित होगा. यदि यह मानक समान अवसर पर आधारित होता है, तो परिणाम एक न्यायसंगत सामाजिक व्यवस्था संबंधी संवैधानिक प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करेगा.’

योग्यता की संकीर्ण व्याख्या

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सांड्रा फ्रेडमैन के अनुसार संविधान में निहित वास्तविक बराबरी की अवधारणा चार आयामों पर आधारित है: ‘प्रतिकूलताओं का निवारण; कलंक, पहले से गढ़ी गई छवि, पूर्वाग्रह, और हिंसा से निपटना; आवाज़ उठाना और भागीदारी बढ़ाना; तथा मतभेदों को स्थान देना और ढांचागत बदलाव लाना.’

आरक्षण की नीतियों के विरोध के लिए ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से वंचित एससी/एसटी तबके पर दोषारोपण, उनकी एक खास छवि गढ़ना और उनकी दक्षता को लेकर पूर्वाग्रह रखना, स्पष्टत: वास्तविक बराबरी की भावना के खिलाफ जाता है, जिसे कि कोर्ट के फैसले में भी रेखांकित किया गया है.

योग्यता की अवधारणा को महज परीक्षा विशेष में किसी को मिले रैंक तक सीमित नहीं किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में अवसरों की समानता, सामाजिक एवं ढांचागत असमानता तथा योग्यता के बीच के गहरे संबंधों पर रोशनी डाली गई है: ‘एक ‘योग्य’ उम्मीदवार सिर्फ वही नहीं है जो कि ‘प्रतिभावान’ और ‘सफल’ है, बल्कि वह भी है जिसकी नियुक्ति एससी/एसटी वर्ग के लोगों के उत्थान के संवैधानिक लक्ष्यों को पूरा करती है और एक विविधतापूर्ण एवं समावेशी प्रशासन सुनिश्चित करती है.’


यह भी पढ़ें: महिला आरक्षण से क्या हासिल करना चाहते हैं राहुल गांधी


इस फैसले से पूर्व, नीति निर्माताओं के बीच पदोन्नति में आरक्षण के दायरे को लेकर भ्रम की स्थिति थी. एम नागराज (2006) और जरनैल सिंह (2018) मामलों में संवैधानिक पीठों के पूर्व के फैसलों की व्याख्या करते हुए न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पदोन्नति में अनुवर्ती वरिष्ठता की गारंटी देने वाले कानून की वैधता को क्रीमीलेयर की कसौटी पर परखने की ज़रूरत नही है. हालांकि, जरनैल सिंह मामले में तय किए गए प्रावधानों का पालन सुनिश्चित करना होगा.

बटरफ्लाई इफेक्ट

अपनी चर्चित पुस्तक ‘बटरफ्लाई पॉलिटिक्स’ में विद्वान और प्रोफेसर कैथरीन मैकिनन ने कहा है, ‘उथल-पुथल के सिद्धांत के अनुसार, एक तितली के पंख फड़फड़ाने मात्र से दुनिया के दूसरे हिस्से में तूफान आ सकता है… (इसी तरह,) कानूनी हस्तक्षेपों का बटरफ्लाई इफेक्ट बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों का कारण बन सकता है.’

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के फैसले ने अन्य राज्य सरकारों के लिए भी एससी/एसटी को पदोन्नति में आरक्षण देने के वास्ते मिलते-जुलते उपाय करने का रास्ता खोल दिया है. साथ ही, इसने न्याय एवं सामूहिक जिम्मेदारी संबंधी हमारे सहज ज्ञान को समृद्ध और विस्तृत किया है.

(लेखक हार्वर्ड लॉ स्कूल में एलएलएम के छात्र हैं. उनका ट्विटर हैंडल @anuragbhaskar_ है. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी विचार हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments