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Thursday, 25 April, 2024
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आरक्षण व्यवस्था पर सरकार ने कर दी है ‘सर्जिकल स्ट्राइक’

सरकार रोस्टर पर अध्यादेश लाने का वादा कर रही है और न ही इसका कोई जवाब दे रही है कि फैसला होने तक नई भर्तियां न किए जाने के बाद भी नियुक्तियां क्यों जारी हैं.

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भारत और पाकिस्तान दोनों की तरफ से सीमा पर बमबारी, सर्जिकल स्ट्राइक और भयानक युद्धोन्माद के बीच बुधवार 27 फरवरी 2019 को एससी, एसटी, ओबीसी कही जाने वाली भारत की 85 प्रतिशत आबादी के सिर पर एक बम गिरा. युद्धोन्माद में संभवतः इस साइलेंट मिसाइल को बहुत कम लोगों ने महसूस किया. यह हमला आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था पर था. यह बम गिरना ही था, जिसके संकेत राज्यसभा में इस विषय पर हुई चर्चा के दौरान मिल गए थे.

जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने 27 फरवरी 2019 के एक फैसले में केंद्र और यूजीसी द्वारा दिए गए आधारों पर गौर करने के बाद पाया कि 22 जनवरी के फैसले में बदलाव का कोई कारण नहीं बनता. यानी जजों ने शिक्षकों की नियुक्तियों में दिए जाने वाले आरक्षण में विभाग को यूनिट माना, न कि विश्वविद्यालय को. यानी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले को बरकरार रखा गया, जिसमें विभाग को यूनिट मानकर विश्वविद्यालयों में आरक्षण देने का फैसला किया गया था. इस फैसले के लागू होने का मतलब व्यावहारिक अर्थों में रिजर्वेशन का अंत है.


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उच्चतम न्यायायल का यह फैसला आना ही था. सरकार को भी पता था कि उच्चतम न्यायालय में क्या होने वाला है. 7 फरवरी 2019 को राज्यसभा में हुई चर्चा के दौरान बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के सांसद और उच्चतम न्यायालय के वकील सतीश मिश्र ने ही इसके संकेत दे दिए थे और साफ कर दिया था कि इस रिव्यू पिटीशन से कुछ नहीं होने जा रहा है. राज्यसभा के रिकॉर्ड में हिंदी और अंग्रेजी भाषा में दर्ज वक्तव्य के मुताबिक सतीश मिश्र ने कहा था, ‘जहां तक रिव्यू पिटीशन की बात है, उसके संबंध में हम लोग भी जानते हैं कि यह चैंबर में डिसाइड होता है और उसका डिस्पोजल हो जाता है. यह प्रक्रिया है. मैं प्रक्रिया के बारे में बता रहा हूं. इस पर चैंबर में फैसला होता है यह ओपन कोर्ट सुनवाई नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने इनसे पहले ही कह दिया है कि इस सिलसिले में अब कोई मुकदमा मत लाइए तो ऐसे में हम लोग कहां जाएं?’

राज्यसभा में बहस कर रहे लोग सरकार की बेइमानियों से पूरी तरह वाकिफ थे. 6 फरवरी 2019 को जब समाजवादी पार्टी (सपा) के सांसद रामगोपाल यादव ने जब रोस्टर के मसले को उठाने की कोशिश की तो सत्ता पक्ष ने शोर कर उन्हें अपनी बात रखने ही नहीं दिया. जब दोबारा उन्होंने बोलने की कोशिश की तो उन्हें अगले दिन अपनी बाद कहने को कहा गया.


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इस बीच मानव संसाधन मंत्री जरूर बोले. प्रकाश जावड़ेकर ने कहा,  ‘महोदय, कोर्ट का फैसला आया कि डिपार्टमेंट वाइज ये एप्वाइंटमेंट करें. यह सरकार को मंजूर नहीं है. इसलिए हमने एसएलपी लिया है और अभी फिर एसएलपी खारिज हुई है. फिर उसके खिलाफ रिव्यू पिटीशन डाल रहे हैं. हम किसी भी प्रकार से शेड्यूल्ड कास्ट्स, सेड्यूल्ड ट्राइब्स और ओबीसी के आरक्षण पर आंच नहीं आने देंगे. यह हमारा निर्णय है. इसलिए हम रिव्यू करेंगे और हमें पूरा विश्वास है कि हमें न्याय मिलेगा. हमने बहुत तैयारी की है और हम अच्छा पक्ष रखेंगे. हमें पूरा विश्वास है कि हमें न्याय मिलेगा.’

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जावड़ेकर की इस धूर्तता को सतीश मिश्र ने दूसरे दिन की चर्चा में ही रिव्यू पिटीशन की प्रक्रिया और न्यायालय के आदेश के बारे में बहुत कम शब्दों में उजागर कर दिया था. सतीश मिश्र ने जो कहा था, वही हुआ. न्यायालय ने जावड़ेकर के रिव्यू पिटीशन को खारिज कर इलाहाबाद उच्च न्यायायल के फैसले को बरकरार रखा है.

राज्यसभा में रामगोपाल यादव ने 7 फरवरी 2019 को विश्वविद्यालयों में आरक्षण का मामला उठाया और व्यवधानों के बीच जोरदार तरीके से उठाया. विभिन्न विश्वविद्यालयों के नियुक्तियों के विज्ञापन पेश करके सरकार को बेपर्दा कर दिया था और कहा कि संसद में मंत्री ने यह आश्वासन दिया कि जब तक फैसला नहीं हो जाता, नई नियुक्तियां नहीं होंगी, लेकिन देश भर में नियुक्तियों की प्रक्रिया जारी है.


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साथ ही यादव ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट में सही तरीके से पैरवी नहीं हुई. यहां मंत्री जी ने जो आश्वासन दिया था, उसका पालन नहीं हुआ. विश्वविद्यालयों में रिक्तियां निकाली जा रही हैं. आज मैं सिर्फ यह मांग करता हूं कि रिव्यू पिटीशन से कुछ होने वाला नहीं है. आप बिल लाइए. आप ईडब्ल्यूएस पर 48 घंटे में बिल ला सकते हैं. मंडल कमीशन 1980 में आया. उसे लागू करने में 13 साल लग गए. ईडब्ल्यूएस पर आपने 48 घंटे में कर दिया, तो इस पर बिल क्यों नहीं लाया जा सकता है. यह 85 प्रतिशत लोगों का मामला है.’

सरकार इसका कोई जवाब नहीं दे सकी कि फैसला होने तक नई भर्तियां न होने के आश्वासन के बाद भी सरकार नियुक्ति प्रक्रिया क्यों जारी रखे हुए है. रिव्यू पिटीशन की सरकार की धूर्तता को देखते हुए रामगोपाल यादव ने प्रस्ताव रखा कि सरकार इस मसले पर अध्यादेश लाए और एससी, एसटी, ओबीसी को उनका संवैधानिक हक दिलाए.

राष्ट्रीय जनता दल के सांसद और जेएनयू के प्रोफेसर प्रो मनोज कुमार झा ने भी संसद में 7 फरवरी को ही कहा, ‘नई व्यवस्था में ईडब्ल्यूएस 10वें नंबर पर आ रहा है और उस रोस्टर में शेड्यूल्ड ट्राइब नहीं आ रहा, अनुसूचित जनजाति नहीं आ रहा है. ओबीसी का रिप्रजेंटेशन कम हो रहा है. अगर विभागों और विषयों को यूनिट मान लिया जाए तो 225 साल के बाद भी किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति का नंबर नहीं आ पाएगा. रिव्यू पिटीशन नहीं चलेगा. इसके लिए फौरी तौर पर अधिनियम की जरूरत है. मेरी मांग है कि विज्ञापनों को रोका जाए.’

सरकार ने कभी यह नहीं कहा कि विभागवार रोस्टर सही है, बल्कि मंत्री ने संसद में बड़े लंबे चौड़े भाषण दिए और वंचित तबके के हक के लिए आंसू बहाया. सरकार ने स्वीकार किया कि नई व्यवस्था से विश्वविद्यालयों में एससी, एसटी, ओबीसी के दरवाजे बंद हो जाएंगे, लेकिन सिर्फ और सिर्फ धूर्तता के चलते उसने रिव्यू पिटीशन दाखिल की. जबकि बसपा के सतीश मिश्र पहले ही कानूनी तौर पर बता चुके थे कि इस रिव्यू पिटीशन से कुछ भी नहीं होने जा रहा है. मिश्र ने सदन में कहा था, ‘अगर विभाग में 7 सीटें हैं तो उसे कभी आरक्षण नहीं मिलेगा या 20 साल बाद उसका नंबर आएगा. आप कह रहे हैं कि रिव्यू पिटीशन दाखिल की जाएगी. मंत्री आज यहां आश्वासन दें कि जब तक इस पर कोई फैसला नहीं हो जाएगा, हम आगे कोई नियुक्ति नहीं करेंगे.’


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सरकार ने इस दिशा में कुछ भी नहीं किया. 7 फरवरी की राज्यसभा की बहस और 27 फरवरी के उच्चतम न्यायालय के फैसले के बीच महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ सहित कई जगहों पर नियुक्तियां निकाली गईं, जिनमें विभागवार रोस्टर के मुताबिक एससी, एसटी, ओबीसी को बाहर कर दिया गया.

विश्वविद्यालयों में रोस्टर को लेकर सिर्फ उत्तर भारत में नहीं, बल्कि देश के कोने कोने में आक्रोश है. यह देश की 85 प्रतिशत आबादी से जुड़ा मसला है. इस विषय पर अध्यादेश लाने के रामगोपाल यादव के प्रस्ताव को राज्यसभा में देश भर के सांसदों से समर्थन मिला था भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के केरल से सांसद विनय विश्वम ने कहा था, ‘सरकार को सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को सुनिश्चित करना चाहिए. यह सिद्धांत है, जिससे सरकार इनकार नहीं कर सकती. एससी, एसटी और ओबीसी का भी समाज में अधिकार है और उन्हें विश्वविद्यालयों के विभागों में उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए. सरकार की मौजूदा व्यवस्था एससी, एसटी और ओबीसी के लिए दरवाजे बंद करने जा रही है, यह अन्याय है.’

केरल से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद केके रागेश, एनसीपी के महाराष्ट्र से सांसद माजिद मेनन, हुसैन दलवई, दिल्ली से संजय सिंह, तमिलनाडु से माकपा के राज्यसभा सांसद टीके रंगराजन, डीएमके के तिरुचि शिवा, भाकपा के डी राजा, अन्नाद्रमुक के नवनीतकृष्णन, पश्चिम बंगाल के सुखेंदु शेखर रे, अभीर रंजन विश्वास, श्रीमती शांता क्षेत्री, शांतनु सेन, अहमद हसन, जोगेन चौधरी, कर्नाटक के बीके हरिप्रसाद, असम से मनमोहन सिंह, जम्मू कश्मीर से गुलाम नबी आजाद, महाराष्ट्र से पी चिदंबरम, महाराष्ट्र से डॉ विकास महात्मे, कर्नाटक के ऑस्कर फर्नांडिस, उत्तर प्रदेश से सुरेंद्र सिंह नागर, गुजरात से अहमद पटेल, मध्य प्रदेश के सत्यनारायण जटिया, उत्तर प्रदेश से पीएल पुनिया, जया बच्चन, रवि प्रकाश वर्मा, हरनाथ सिंह यादव, चौधरी सुखराम सिंह यादव, डॉ चंद्रपाल सिंह यादव, विश्वंभर प्रसाद निषाद, पंजाब से शमशेर सिंह ढुलो ने रामगोपाल यादव का समर्थन किया.

सरकार ने अध्यादेश लाए जाने के इन सबके प्रस्ताव को खारिज कर दिया. जावडेकर ने राज्यसभा में सिर्फ इतना कहा, ‘हमारी आरक्षण के लिए पूरी प्रतिबद्धता है. 100 परसेंट है. हम इस पर आंच नहीं आने देंगे.’ जावडेकर की उपरोक्त कथित तैयारियां कोर्ट में मुंह के बल गिर गईं.

अगर सरकार की नीयत साफ हो तो इसमें कोई समस्या नहीं है कि संविधान की व्यवस्था के मुताबिक वंचितों को प्रतिनिधित्व दे दिया जाए. सतीश चंद्र मिश्र ने राज्यसभा में इसे लेकर एक और समाधान देते हुए कहा था, ‘मैं इस पर सॉल्यूशन देना चाहता हूं और वह यह है कि इस रोस्टर को पलट दिया जाए यानी पहले एससी, एसटी, ओबीसी का किया जाए, उसके बाद… (व्यवधान)… अगर ऐसा किया जाता है तो यह मसला ही खत्म हो जाएगा.'(राज्यसभा की कार्यवाही के अंश मूलरूप में ) लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार के इरादे ही गलत हैं. 1984 के बाद पूर्ण बहुमत में आई सरकार ताकत पाकर इतरा रही है.

महाभारत में जिस तरह से पांडवों ने 5 गांव लेकर संतुष्ट हो जाने को कहा था, उसी तरह देश का 60 प्रतिशत ओबीसी सिर्फ 27 प्रतिशत नौकरियों पर संतुष्ट होने को तैयार है. लेकिन भाजपा सरकार दुर्योधन की भूमिका में है और उसने वंचित तबके से कह दिया है कि युद्ध के बगैर वह सूई की नोक के बराबर भी जमीन नहीं देगी.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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