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Sunday, 22 December, 2024
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बनिया वर्चस्व और आरक्षण के कारण नहीं हो रहा है ब्राह्मण प्रतिभाओं का पलायन, दि इकोनॉमिस्ट गलत है

अगर कोई व्यक्ति भारतीय निजी कंपनियों में काम करके सफल नहीं हो पा रहा है तो उसकी तमाम वजहें हो सकती हैं, लेकिन उन वजहों में आरक्षण शामिल नहीं है.

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दुनिया की सबसे प्रभावशाली पत्रिकाओं में से एक, The Economist, ने अपने ताजा अंक में एक कॉलम छापा है जिसका शीर्षक बताता है कि पश्चिमी देशों की कई कंपनियों के शिखर पर ब्राह्मण मौजूद हैं, लेकिन भारतीय कंपनियों के टॉप पर आम तौर पर वे नहीं हैं.

हालांकि ये तथ्य कुछ हद तक सही है. इस समय दुनिया की छह बड़ी कंपनियों –एडोबी, अल्फाबेट, आईबीएम, माइक्रोसॉफ्ट, मैच ग्रुप और ट्विटर के CEO भारतीय हैं और उनमें से तीन ब्राह्मण हैं, जबकि भारतीय कॉरपोरेट जगत में वैश्य यानी बनिया जाति का बोलबाला है. लेकिन इस कॉलम में ऐसा होने के पीछे जो वजहें बताई गई हैं, वो सही नहीं है.

इकॉनोमिस्ट की लिस्ट में छह की जगह सात कंपनियों का जिक्र है. सातवीं कंपनी ऑनलीफैन्स है, लेकिन ये बेहद छोटी कंपनी है. इसलिए उसे छोड़ देते हैं.

इकॉनोमिस्ट के लेख में ब्राह्मणों के भारतीय कंपनियों में सफल न होने और उनके भारत छोड़कर जाने के लिए भारत की अफर्मेटिव एक्शन पॉलिसी यानी रिजर्वेशन को भी जिम्मेदार ठहराया गया है. जबकि सच ये है कि अमेरिका की अफर्मेटिव एक्शन पॉलिसी वहां इन लोगों से कामयाब होने की वजह है.

इकॉनोमिस्ट के लेख में मुख्य रूप से तीन बिंदु हैं.

एक, पश्चिमी देशों की कई बड़ी और छोटी कंपनियों के सीईओ भारतीय मूल के हैं. पश्चिमी कॉरपोरेट जगत में भारतीयों को जगह मिलने लगी है. आंकड़े भी इसे साबित करते हैं. मिसाल के लिए, उच्च तकनीकी ज्ञान वाले कर्मियों को मिलने वाला अमेरिका का H-1B वीजा का जो सालाना कोटा है, उसका दो-तिहाई तक हिस्सा भारतीय लोगों के हिस्से आता है. लेख आगे बताता है कि कई अमेरिकी कंपनियों के सीईओ ब्राह्मण हैं.

दो, भारतीय कंपनियों में ब्राह्मणों की स्थिति इसके विपरीत है. भारतीय बोर्डरूम में परंपरागत रूप से व्यापार करने वाली जाति यानी बनियों का दबदबा है. यहां शिक्षा, विज्ञान, कानून आदि क्षेत्र में ब्राह्मणों का जबर्दस्त बोलबाला है, लेकिन ऐसा कंपनियों में नहीं हो पाया है. इस लेख में 2010 की एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि कंपनियों के 93 फीसदी बोर्ड मेंबर अगड़ी जातियों से हैं. इन पदों पर बनियों की तादाद 46 फीसदी है. यानी भारतीय कंपनियों में आधे बोर्ड मेंबर बनिए हैं.

तीन, ऊपर के इन दो बातों की कारण की तलाश लेख में की गई हैं और वजह ये बताई गई है कि भारत में कारोबार नेटवर्क यानी नातेदारी और जान-पहचान के तंत्र के आधार पर चलता है और ये नेटवर्क बनियों और कुछ हद तक पारसियों के पास हैं. इस वजह के प्रतिभाशाली ब्राह्मण पश्चिम की ओर रुख कर गए. दूसरी वजह ये बताई गई है कि ब्राह्मणों में ‘किताबी ज्ञान’ की परंपरा है. इसलिए वे परीक्षाएं पास करके वहां चले गए, जहां मौके ज्यादा हैं. ब्राह्मण प्रोफेशनल्स के भारत छोड़कर जाने की तीसरी वजह आरक्षण को बताया गया है.

लेख के पहले दो हिस्से में जो कहा गया है, वह तथ्यों पर आधारित है, इसलिए उस पर विवाद की गुंजाइश कम है. लेकिन ब्राह्मणों के भारतीय कंपनियों में कम होने और विदेशी कंपनियों में इनके सफल होने के लिए जिन बातों को जिम्मेदार बताया गया है, वह गलत या आंशिक रूप से ही सत्य है.

क्या भारतीय कंपनियों में बनिया वर्चस्व के कारण ब्राह्मण टैलेंट अमेरिका चला गया?

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय कंपनियों के बोर्ड और उच्च पदों पर ज्यादातर वैश्य जाति के लोग हैं. ऐसा शायद इसलिए है कि ये जाति परंपरागत रूप से कारोबार से जुड़ी रही है और कंपनियों का प्रमोटर होने के कारण वे अपने भरोसेमंद लोगों को ही मैनेजर के पद पर लाते हैं. हालांकि ऐसा हमेशा नहीं होता. कई भारतीय कंपनियों में ब्राह्मण सीईओ हैं. फिर भी ये कहा जा सकता है कि वैश्य मालिक अपने परिवार के लोगों और रिश्तेदारों को बिजनेस में शुरुआत से रखकर ट्रेनिंग देते हैं, जो आगे चलकर कंपनियों को संभालने लगते हैं.

फोर्ब्स की सबसे अमीर भारतीयों की 2021 की लिस्ट ये बताती है कि सबसे अमीर 20 लोगों में से 12 वैश्य समुदाय से हैं. इसी लेख में एक और स्टडी का हवाला दिया गया कि भारत के कॉरपोरेट बोर्ड रूम में सबसे ज्यादा सरनेम वाले लोग अग्रवाल और गुप्ता हैं. ऐसी हालत में ये हो सकता है कि ब्राह्मणों को भारतीय कॉरपोरेट जगत में उतनी आसानी से जगह न मिलती हो. लेकिन ये ‘दुख’ तो कई और जातियों का भी हो सकता है. वे क्यों इतनी बड़ी संख्या में देश छोड़कर नहीं गए? न ही उन्हें उच्च पद उस परिमाण में मिले. और फिर ब्राह्मणों को भारतीय ब्यूरोक्रेसी, पीएसयू और सरकारी बैंकों के उच्च पदों, न्यायपालिका, मीडिया, कला क्षेत्र आदि में बड़ी संख्या में हैं. ये कहना कि भारत में उन्हें मौका नहीं मिलता, सरासर गलत है.

ब्राह्मणों के विदेशी कंपनियों में छा जाने की दूसरी वजह ये बताई गई है कि ब्राह्मण ‘परंपरा से ही पढ़ाकू’ होते हैं. ये तर्क नस्लवादी है और जन्म के आधार पर नस्लीय श्रेष्ठता के सिद्धांत यूजेनिक्स पर आधारित लगता है. इसे दुनिया अब खारिज कर चुकी है. प्रतिभाएं कहीं से भी आ रही हैं, आ सकती हैं. ये सही है कि किसी समुदाय में अगर शिक्षा की परंपरा पहले से है, तो उस समुदाय के लोग शिक्षा के मामले में बेहतर स्थिति में होते हैं. ये उस व्यक्ति की सांस्कृतिक पूंजी है, जिसे उसकी पीढ़ियों ने संचित किया है. लेकिन किसी समूह के लोग बड़ी संख्या में सिर्फ इसलिए देश छोड़कर नहीं चले जाएंगे कि उनमें पढ़ने-लिखने की परंपरा पुरानी है.


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आरक्षण नहीं है ब्राह्मण प्रतिभाओं के पलायन की वजह

ब्राह्मणों के बड़ी संख्या में पश्चिमी देशों में जाने की तीसरी वजह आरक्षण को बताया गया है, जो आश्चर्यजनक है. भारत में निजी क्षेत्र हमेशा आरक्षण के दायरे से बाहर रहा है और वर्षों से हो रही मांग के बावजूद इस क्षेत्र में, पश्चिमी देशों की तरह विविधता लाने या आरक्षण लागू करने की दिशा में कोई कदम अब तक नहीं उठाया गया है. इसलिए अगर कोई व्यक्ति भारतीय निजी कंपनियों में काम करके सफल नहीं हो पा रहा है तो उसकी तमाम वजहें हो सकती हैं, लेकिन उन वजहों में आरक्षण शामिल नहीं है.

भारतीयों, मुख्य रूप से ब्राह्मणों, का पश्चिमी देशों में जाकर बसना आजादी से काफी पहले से शुरू हो चुका था. आरक्षण की नीति अखिल भारतीय स्तर पर आजादी के बाद लागू हुई. 1993 तक केंद्रीय स्तर पर ओबीसी आरक्षण भी नहीं था और एससी-एसटी आरक्षण भी कभी पूरा लागू नहीं हुआ. आईआईटी, जहां से पढ़कर निकले लोग ही ज्यादातर सीईओ बने हैं, वहां 1973 तक आरक्षण लागू ही नहीं था. 1973 में वहां एससी-एसटी का आरक्षण आया. आईआईटी में ओबीसी आरक्षण 2008 में जाकर आया. यानी ये सभी क्षेत्र आरक्षण से लंबे समय तक मुक्त रहे, जबकि इस दौरान भारतीयों का विदेश जाना धड़ल्ले से जारी रहा.

भारतीय इलीट के पश्चिमी देशों में जाकर बसने की वजह भारत में नहीं, अमेरिका और यूरोप में है. भारत में इसकी एकमात्र वजह ये है कि 1990 से पहले अर्थव्यवस्था पर सरकार का नियंत्रण बहुत ज्यादा था और प्राइवेट कंपनियों के फलने-फूलने के मौके कम थे. छोटा और कमजोर कॉरपोरेट सेक्टर तेज तरक्की की चाहत पूरी करने में अक्षम था. लेकिन 1990 के बाद आर्थिक उदारीकरण हुआ है और वो एकमात्र वजह भी अब नहीं रही.

भारत उन्हें धकेल नहीं रहा है, अमेरिका उन्हें खींच रहा है

भारत के लोग अमेरिका और यूरोप इसलिए नहीं जा रहे हैं कि भारत से उन्हें कोई भगा रहा है या या खदेड़ रहा है. वे इसलिए जा रहे हैं क्योंकि वहां आमदनी ज्यादा है, मौके ज्यादा हैं.

अब अगर इकॉनोमिस्ट के लेख की मूल स्थापना की ओर लौटें कि पश्चिमी देशों की कंपनियों में ब्राह्मण और अब कुछ वैश्य सीईओ क्यों बने, तो इसकी दो वजहें समझ में आती हैं.

एक, भारत में जो प्रभावशाली जातियां हैं, उनके इलीट ने सबसे पहले इंग्लिश एजुकेशन ली और वे ही सबसे पहले विदेश गए. उनके सबसे पहले अमेरिका-यूरोप पहुंचने का फायदा उनकी बाद की पीढ़ियों को हुआ क्योंकि वे वहां पहुंचकर एक तंत्र विकसित कर चुके थे जो नए आने वालों का न सिर्फ रास्ता साफ कर रहा है, बल्कि नए लोगों को जमने में मदद भी करता है. वंचित समूहों के लिए सहयोग का ऐसा कोई सामाजिक ढांचा नहीं है. इसलिए स्वाभाविक रूप से भारत से ज्यादातर सवर्ण ही अमेरिका-यूरोप जा रहे हैं. भारत से स्टूडेंट्स के विदेश पढ़ने जाने के लिए मार्गदर्शन और रेकमेंडेशन आदि जुटा पाना भी सवर्ण स्टूडेंट्स के लिए आसान है, क्योंकि इन समूहों के लोग शिक्षा में उच्च पदों पर ज्यादा हैं.

दूसरी वजह ज्यादा महत्वपूर्ण है. भारतीय लोग खासकर अमेरिका में ‘आदर्श’ या मॉडल प्रवासी और अल्पसंख्यक माने जाते हैं. चूंकि वहां ब्लैक, लैटिनो और अमेरिकन इंडियन ने श्वेत लोगों से संघर्ष करके अपनी जगह बनाई है और समानता के लिए उनका संघर्ष जारी है, इसलिए उनकी तुलना में श्वेत लोगों की नजर में भारतीय लोग बहुत उदार और शांत दिखते हैं. ब्लैक, हिस्पैनिक्स और लैटिनो लोग संघर्ष करके डायवर्सिटी जैसे मामलों में जो जीत हासिल कर चुके हैं, उनका फायदा भारतीय लोग उठा रहे हैं. अमेरिकी कंपनियों में डायवर्सिटी लाना अब एक नैतिक जिम्मा है. इस डायवर्सिटी को अगर किसी ब्लैक कर्मचारी की जगह, एक भारतीय कर्मचारी को लाकर हासिल किया जा सकता है, तो कंपनियों को शायद ऐसा करना पसंद है.

दरअसल अमेरिका में किसी भारतीय या ब्राह्मण सीईओ या कॉरपोरेट सेक्टर के मैनेजर की कहानी इस प्रकार है- वह भारत में सरकारी मदद से चलने वाले किसी आईआईटी से सस्ती शिक्षा हासिल करता है, फिर अपने पैसे, जान-पहचान, सहजता से उपलब्ध मार्गदर्शन और विदेश में अपने संपर्कों के बूते विदेश में पढ़ने चला आता है, वहां डिग्री लेकर अमेरिका के अफर्मेटिव एक्शन पॉलिसी का लाभ उठाकर वह किसी कंपनी में नौकरी करने लगता है. इन्हीं में से कुछ लोग सीईओ तक पहुंच रहे हैं.

यानी भारत का सबसे प्रभावशाली समुदाय अमेरिका पहुंचकर वंचित समुदाय का सदस्य- प्रवासी और अल्पसंख्यक- बन जाता है और खुद को अश्वेत बताकर ब्लैक लोगों की वो नौकरी हासिल कर लेता है, जिसके लिए उन्होंने सदियों तक संघर्ष किया है, जिसके नतीजे में डायवर्सिटी की नीति अमेरिका में आई है.

अमेरिकी लेखिका और पुलित्जर पुरस्कार विजेता इजाबेल विलकिरसन ऐसा अनुमान लगाती हैं कि कुछ साल बाद जब अमेरिका में अश्वेत आबादी अल्पसंख्यक होने लगेगी तो ब्लैक लोगों के अलावा जो भी लोग होंगे, उनका श्वेत लोगों से गठजोड़ हो जाएगा. यानी अमेरिकी ऊंच-नीच की व्यवस्था में बीच के लोग ऊपर के लोगों से हाथ मिलाएंगे. हो सकता है कि ऐसा होना शुरू हो गया हो और इसका फायदा उठाने के लिए इस समय भारतीयों में सबसे ज्यादा ब्राह्मण ही मौजूद हों.

क्या भारत के पिछड़ों दलितों को इस बात से खुश होना चाहिए कि उनमें से कोई नहीं तो क्या हुआ, कोई भारतीय तो अमेरिकी कंपनियों का सीईओ बन रहा है? मुझे नहीं लगता कि इसमें उनके खुश होने की कोई बात है. इन लोगों के सीईओ बनने से उनके लिए अमेरिकी कंपनियों का रास्ता अपेक्षाकृत कठिन ही बन जाएगा.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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