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Friday, 26 September, 2025
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अनुसूचित जाति के लिए बनाए गए मेडिकल कॉलेजों में जनरल कोटे की सीमा नहीं हो सकती, हाईकोर्ट ने की त्रुटि

हाईकोर्ट की गलती यह रही कि उसने इन विशेष संस्थानों को सामान्य शैक्षणिक संस्थानों की तरह देखा. ये कॉलेज संवैधानिक न्याय के विशेष साधन के रूप में बनाए गए थे.

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हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले ने उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण को लेकर नई बहस खड़ी कर दी है. साबरा अहमद बनाम उत्तर प्रदेश मामले में एक सिंगल जज बेंच ने फैसला सुनाया कि जालौन, सहारनपुर, कन्नौज और आंबेडकर नगर में अनुसूचित जाति विशेष घटक योजना (एससीपी) के तहत बने चार विशेष मेडिकल कॉलेजों में अनुसूचित जातियों के लिए 70 प्रतिशत आरक्षण नहीं दिया जा सकता. कोर्ट की डिविजन बेंच ने बाद में इस फैसले की पुष्टि की.

यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है, जो यह तय करेगी कि क्या विशेष घटक योजना के तहत बनाए गए कॉलेज 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा के तहत आते हैं या नहीं.

एक तरफ, हाईकोर्ट के फैसले ने लगभग 100 छात्रों के भविष्य को असुरक्षित कर दिया है. वहीं, इस फैसले ने व्यापक बहस का रास्ता भी खोल दिया है क्योंकि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और केरल जैसे राज्यों में भी ऐसे विशेष कॉलेज हैं, जहां 50 प्रतिशत से अधिक एससी/एसटी आरक्षण है. उदाहरण के लिए कर्नाटक के हावेरी, चामराजनगर और कोडगु जिलों में सोशल वेलफेयर रेसिडेंशियल गवर्नमेंट फर्स्ट ग्रेड कॉलेजों में एससी/एसटी के लिए 100 प्रतिशत आरक्षण है. इसी तरह, आंध्र प्रदेश के चित्तूर और कृष्ण जिलों में भी ऐसे कॉलेज हैं. तेलंगाना के अदिलाबाद, निज़ामाबाद और भूपालपल्ली जिलों में तेलंगाना सोशल वेलफेयर रेसिडेंशियल डिग्री कॉलेजों में एससी/एसटी के लिए 70 प्रतिशत से अधिक आरक्षण है. केरल के पालक्कड़ में गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज में एससी/एसटी के लिए 72 प्रतिशत आरक्षण है.

इसलिए, यह फैसला बीजेपी के लिए राजनीतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, जो योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में अपने वर्तमान कार्यकाल के खत्म होने के करीब है. पार्टी पहले ही 2024 लोकसभा चुनाव में आरक्षण खत्म करने और संविधान को कमज़ोर करने के आरोपों के कारण चुनावी झटका झेल चुकी है.

हमारा तर्क है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन चार कॉलेजों की आरक्षण नीति को इस तरह खारिज करके गलती की कि उसने इंद्रा साहनी केस में निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा को यांत्रिक रूप से लागू कर दिया. हालांकि, उस फैसले में विशेष परिस्थितियों में वास्तविक समानता हासिल करने के लिए सीमा पार करने की अनुमति स्पष्ट रूप से दी गई थी. अगर इसे पलटा नहीं गया, तो इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला एससी/एसटी कल्याण नीतियों और राजनीति पर व्यापक असर डाल सकता है, क्योंकि अन्य हाईकोर्ट भी समान आदेश दे सकते हैं.

संवैधानिक संघर्ष की शुरुआत

उत्तर प्रदेश सरकार ने अनुसूचित जातियों (एससी) के लिए विशेष घटक योजना के तहत चार विशेष मेडिकल कॉलेज स्थापित किए. एससीपी 1979 में अस्तित्व में आया था ताकि अनुच्छेद 46 को लागू किया जा सके, जिसमें कहा गया है कि “राज्य को कमज़ोर वर्गों, विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों को विशेष ध्यान के साथ बढ़ावा देना चाहिए और उन्हें सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से बचाना चाहिए.”

ये कॉलेज एससीपी से 70 प्रतिशत फंड प्राप्त करते हैं, इसलिए इन्हें एससी छात्रों के लिए 70 प्रतिशत आरक्षण देना ज़रूरी है. प्रावधान को आठ साल पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी और यह मामला कोर्ट की डिविजन बेंच के सामने लंबित है. फिर भी, सिंगल जज बेंच ने 2006 से 2015 के बीच जारी सरकारी आदेशों को खारिज कर दिया, जबकि याचिका में इसके लिए अनुरोध नहीं किया गया था. जब कोई मामला बड़ी बेंच के सामने लंबित होता है, तब छोटी बेंच आदेश नहीं दे सकती, क्योंकि यह न्यायिक अनुचितता मानी जाती है. फिर भी, इसने सरकार को 2006 के उत्तर प्रदेश आरक्षण अधिनियम का पालन करने का निर्देश दिया, जिसमें एससी आरक्षण 21 प्रतिशत तक सीमित है. 4 सितंबर 2025 को, जस्टिस राजन रॉय और मंजिवे शुक्ला की डिविजन बेंच ने आदेश दिया कि पहले से दाखिला पाए एससी छात्रों को अन्य मेडिकल कॉलेजों में स्थानांतरित किया जाए, जिससे सैकड़ों छात्रों का शैक्षणिक भविष्य अनिश्चित हो गया.


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कोर्ट की मूल गलती

हाईकोर्ट की मुख्य गलती यह है कि उसने इन विशेष संस्थानों को सामान्य शैक्षणिक संस्थानों की तरह देखा, जो सामान्य आरक्षण ढांचों के अधीन हों. यह यांत्रिक न्यायशास्त्र generalia specialibus non derogant के मूल सिद्धांत की अवहेलना करता है, जिसका अर्थ है ‘विशेष प्रावधान सामान्य प्रावधानों पर प्राथमिकता रखते हैं’. ये कॉलेज सामान्य संस्थान नहीं हैं जिनमें आरक्षण जोड़ दिया गया हो; इन्हें अनुच्छेद 15 और 46 के तहत संवैधानिक न्याय के विशेष साधन के रूप में बनाया गया था.

शाब्दिक व्याख्या अपनाकर कोर्ट ने इन संस्थानों के परिवर्तनकारी उद्देश्य को निरर्थक कर दिया है. इस दृष्टिकोण से सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का भी उल्लंघन होता है, जिन्होंने स्पष्ट किया है कि संवैधानिक व्याख्या में केवल शब्दों की शाब्दिकता नहीं बल्कि विधायी उद्देश्य और संवैधानिक दृष्टि को ध्यान में रखना चाहिए. हाईकोर्ट ने केवल शाब्दिक व्याख्या पर निर्भर किया.

संविधान सभा का परिवर्तनकारी दृष्टिकोण

संविधान सभा की बहसों से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान के पीछे गहरी मंशा का पता चलता है. संविधान सभा के सदस्य एस. नागप्पा ने इस दृष्टि को स्पष्ट किया कि एक विशेष मंत्रालय उसी समुदाय के मंत्री के अधीन स्थापित किया जाए और निश्चित योजनाओं और कार्यक्रमों की आवश्यकता हो, जिनके लिए केंद्रीय राजस्व का 5 प्रतिशत आवंटित किया जाए.

संविधान सभा के अन्य सदस्य एस. मुनिस्वामी पिल्लै ने इसी तरह की दृष्टि साझा की और कहा कि एससी/एसटी अधिकारी को दस साल के बाद प्रगति की समीक्षा करनी चाहिए और अगर प्रगति पर्याप्त न हो तो आरक्षण अवधि को यांत्रिक रूप से समाप्त करने के बजाय बढ़ाया जाना चाहिए.

यह संवैधानिक दृष्टि अनुच्छेद 46 में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है, जो कहता है कि “राज्य को कमजोर वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों को विशेष देखभाल के साथ बढ़ावा देना चाहिए.” मौलिक अधिकारों के मुख्य वास्तुकार के.एम. मुनी ने कहा कि अनुच्छेद 46 संविधान की सामाजिक क्रांति की प्रतिबद्धता को दर्शाता है—भारत को जातिप्रथा वाली समाज से समानतावादी लोकतंत्र में बदलना. उन्होंने इसे दान या परोपकार के रूप में नहीं बल्कि ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने के लिए संवैधानिक दायित्व के रूप में देखा.

अनुच्छेद 46 में SCP की भूमिका

एससीपी ने अनुच्छेद 46 के निर्देश को कार्यान्वित किया है, जिसमें विशेष रूप से अनुसूचित जातियों के विकास के लिए फंड आवंटित किए गए हैं. सामान्य कल्याण योजनाओं के विपरीत, एससीपी लक्षित हस्तक्षेप का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका उद्देश्य जातिगत असमानताओं को दूर करना और वास्तविक समानता हासिल करना है.

विशेष मेडिकल कॉलेज, जो पूरी तरह से एससी-विशिष्ट फंड से संचालित हैं, इस संवैधानिक प्रतिबद्धता का प्रतीक हैं. केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि केरल ने भी एससी/एसटी के लिए इस फंड का उपयोग करके विशेष मेडिकल कॉलेज स्थापित किया है. इसलिए, इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला संबंधित राज्यों के उच्च न्यायालयों को समान आदेश पारित करने के लिए प्रेरित कर सकता है.

कोर्ट का आदेश वास्तविक समानता के संवैधानिक सिद्धांत को मूल रूप से समझने में विफल है. यहां तक कि इंदिरा साहनी मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया कि असाधारण परिस्थितियों में 50 प्रतिशत की छत को पार किया जा सकता है. ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे समूहों के लिए समुदाय-विशिष्ट फंड का उपयोग करके विशेष संस्थानों की स्थापना ठीक ऐसी ही असाधारण परिस्थितियों का उदाहरण है.

संविधान यह मानता है कि असमानों को समान रूप से व्यवहार करना अनुच्छेद 14 के तहत गारंटीकृत समानता के प्रावधानों का उल्लंघन है. सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि वंचित समूहों के लिए सकारात्मक कार्रवाई समानता के विरोध में नहीं, बल्कि समानता के पक्ष में है, क्योंकि इसका उद्देश्य सदियों से चली आ रही प्रणालीगत बहिष्कार को दूर करना है.

संवैधानिक निहितार्थ

हाईकोर्ट का आदेश ऐसी स्थिति पैदा करता है जहां अनुसूचित जातियों को उनके समुदाय के आवंटित फंड से बने संस्थानों से प्रभावी रूप से बाहर किया जा रहा है. यह अनुच्छेद 46 के तहत संवैधानिक निर्देश का उल्लंघन है और राज्य की वंचित समूहों के लिए विशेष योजनाएं बनाने की शक्ति को कमजोर करता है.

कोर्ट ने एससीपी कॉलेजों को सामान्य संस्थानों में बदल दिया है, जबकि इनका उद्देश्य अलग और विशिष्ट था, जो अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए विशेष साधन के रूप में काम करते थे. अगर सामान्य आरक्षण की छत एससीपी-फंडेड संस्थानों पर लागू की गई, तो इनके स्थापना का मूल तर्क ही समाप्त हो जाएगा.

संविधान राज्य को ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों के लिए सकारात्मक उपाय करने का अधिकार देता है. विशेष संस्थानों पर सामान्य छतों का यांत्रिक अनुप्रयोग इस संवैधानिक अधिकार को समाप्त कर देता है.

शैक्षणिक संस्थानों में एससीपी फंडिंग एक विशिष्ट श्रेणी के संस्थानों का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्हें सामान्य संस्थानों की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह गलती की है, जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुधारा जाना चाहिए. सही दृष्टिकोण यह मानता है कि ये संस्थान अलग संवैधानिक दृष्टिकोण के तहत संचालित होते हैं—जो औपचारिक समानता की बजाय सुधारात्मक न्याय और वास्तविक समानता पर आधारित है.

(अरविंद कुमार यूनिवर्सिटी ऑफ हर्टफोर्डशायर, यूके में पॉलिटिक्स और इंटरनेशनल रिलेशन के विज़िटिंग लेक्चरर हैं. उनका एक्स हैंडल @arvind_kumar__ है. यह लेख उनके निजी विचार हैं.)

(राजा चौधरी भारत के सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं. उन्होंने SOAS, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन से अंतरराष्ट्रीय कानून में एलएलएम डिग्री प्राप्त की है. यह लेख उनके निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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