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Saturday, 4 May, 2024
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दुनिया का नरेंद्र मोदी को संदेश— ब्रांड इंडिया को बुरी तरह नुकसान पहुंच रहा है

पहचानवादी राजनीति और आर्थिक गिरावट ने मिलकर ब्रांड इंडिया और इसके साथ ही ब्रांड मोदी की छवि तो कमजोर की है मगर अभी वह हालत नहीं बनी है कि दुनिया हमें खारिज कर दे.

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क्या दुनिया हमेशा इसी साजिश में मशगूल रहती है कि भारत को किस तरह नीचा दिखाया जाए? क्या दुनिया की महाशक्तियां और खास तौर से पश्चिम के लोकतांत्रिक देश भारत के उत्कर्ष से डरे हुए हैं? ‘भक्तों’ में एक जुमला आजकल फैशन की तरह चल पड़ा है, वह है— ईसाई-इस्लामी साजिश. क्या ऐसी कोई साजिश हिंदू भारत के खिलाफ शुरू हो गई है? क्या बाकी दुनिया भारत के लिए और दूसरे देशों, मसलन चीन, के लिए अलग-अलग मानदंड अपनाती है?

इस आखिरी बात को छोड़कर बाकी सभी उपरोक्त बातें गलत हैं. इसकी एक वजह है— चीनी अर्थव्यवस्था का आकार और उसकी गतिशीलता. सच तो यह है कि पिछले सात दशकों से लगभग पूरा विश्व यही चाहता रहा है कि भारत कामयाब हो.

पाकिस्तान और चीन जैसे पुराने प्रतिद्वंद्वियों को छोड़ ऐसे किसी देश का नाम लेना मुश्किल है, जो भारत का भला नहीं चाहता होगा, या उसकी नाकामी का फायदा उठाना चाहता होगा. यह इस तथ्य के बावजूद है कि हमने लगभग दशक-दर-दशक अपने बारे में दूसरों की अपेक्षाओं को ऊपर उठाने और खुद को ही नहीं बल्कि दुनिया भर में अपने प्रशंसकों को भी निराश कर देने की आदत बना ली है. और यही मूड आज भी कायम है.

भारत की आर्थिक सुस्ती वास्तव में एक झटका है. लेकिन बड़ी समस्या यह है कि सामाजिक संकेतकों के लड़खड़ाते जाने, लोकतंत्र और भ्रष्टाचार के पैमाने पर गिरती रैंकिंग, सीएए/एनआरसी के खिलाफ देशव्यापी शांतिपूर्ण प्रदर्शनों, और सत्तातंत्र की ओर से आक्रामक, प्रतिशोधपूर्ण और भेदभावपूर्ण प्रतिक्रियाओं के मद्देनज़र इसका मनोबल काफी गिरा है.

शीतयुद्ध के बाद के तीन दशकों में दावोस समागम में भारत कभी पसंद का विषय रहा हो या नहीं, मगर उसकी ओर हमेशा उम्मीद भरी नज़रों से देखा जाता रहा है. जिस सहजता से वह अपनी विविधताओं को सहेजता रहा, लोकतांत्रिक तरीके से अपनी सरकारें बदलता रहा, अपने आर्थिक तथा रणनीतिक सोच को वैश्विक बनाता रहा, उस सबको यह समागम बड़े सम्मान भरे आश्चर्य से देखता रहा. बाल्कन से लेकर मध्यपूर्व और अफ्रीका के कुछ हिस्सों समेत कई देश और क्षेत्र यह सब कर पाने में विफल रहे, और इसी वजह से पिछले दो दशकों से दुनिया में कोहराम मचा है.

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1991 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था प्रभावशाली तरीके से आगे बढ़ी, जिससे ब्रांड इंडिया और मज़बूत हुआ. लोग हैरत में थे कि यह अराजक देश तो सामाजिक-राजनीतिक रूप से साल-दर-साल और मज़बूत ही होता जा रहा है और अब तो दुनिया की आर्थिक वृद्धि को गति दे रहा है. चीन बेशक भारत से बहुत आगे था, लेकिन वह अपनी अधिनायकवादी राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कारण कोई मिसाल नहीं पेश कर रहा था जिसको लोग अपनाना चाहें या उस पर अमल करने की सोचें, चाहे वह पुतिन का रूस या अयातुल्लाह का ईरान ही क्यों न हो.


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भारत इसके विपरीत था. बाकी दुनिया के लिए वह एक प्रेरणादायी उदाहरण था कि विविधताओं से भरा एक विशाल राष्ट्र लोकतंत्र को अपनाने के ‘बावजूद’ नहीं बल्कि उसे अपनाने के कारण किस तरह प्रगति कर सकता है. ज़रा कल्पना कीजिए कि भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में उदार, लोकतांत्रिक, सबको साथ लेकर चलने वाली राजनीतिक व सामाजिक संस्कृति न होती तो उसका क्या हश्र होता. वह सोवियत संघ, युगोस्लाविया या मध्यपूर्व की तरह टूट चुका होता. या रूस, तुर्की, चीन की तरह तानाशाही के रास्ते पर चल पड़ा होता. अपनी गरीबी, विविधता और लाखों समस्याओं के साथ प्रगति करता और निरंतर सुरक्षित एवं मजबूत होता भारत लोकतंत्र और उदारवाद का एक अहम दूत था.

लेकिन दुर्भाग्य से, यह सब अब खतरे में है. दशकों से भारत के दोस्त और प्रशंसक अब उसकी ओर सवालिया नज़रों से देख रहे हैं. आज यह सवाल प्रायः सुना जा रहा है कि आखिर भारत में क्या चल रहा है? क्या वह बदतरी की ओर बढ़ रहा है? यह कैसे हो गया? कोई भी, कोई विदेशी ताकत, कोई राजनीतिक, कॉर्पोरेट लीडर या विचारक भारत के इस गतिरोध से खुश नहीं है. लेकिन खास तौर से हमारे मित्र फिक्रमंद होकर गुहार लगा रहे हैं— भारत? उसके साथ तो हमें मुश्किल हो रही है.

आज हम उस स्थिति में नहीं हैं, जिसे नज़र से उतर जाना कहा जाता है. अभी वह नौबत नहीं आई है. क्योंकि हमारे मित्र घोर आशावादी हैं और इस बात के आदी हो चुके हैं कि ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ जब-तब झटके देता रहता है मगर कायम रहता है. वे इस बात से राहत महसूस करते रहे हैं कि भारत की कोई-न-कोई संस्था— प्रायः उसकी न्यायपालिका या मीडिया का कोई अंग, उसके युवाओं और बेशक— नतीजों की उम्मीद करते हुए भी मैं कहना चाहूंगा— महिलाओं, छात्रों और मुस्लिमों के व्यापक विरोध के रूप में उम्मीद की किरण फूटती रही है. प्रायः आपको यही संदेश सुनाई देता है— आपके साथ समस्याएं हैं, लेकिन किस देश में ऐसा होता है कि ऐसे हालात में भी औरत-मर्द, मुसलमान-हिंदू सड़कों पर एक साथ खड़े होकर अपने संविधान की प्रस्तावना पढ़ते हों?

इस पर सहज उग्र-राष्ट्रवादी प्रतिक्रिया यह हो सकती है— ओह! आप अगर उन लोगों से ही बात करेंगे जो आप जैसे संपादकों की तरह दिग्भ्रमित, वामपंथी-उदारवादी (उनकी पसंदीदा ‘गाली’) हैं, तो भला और क्या सुनेंगे? पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी सरकार के प्रति तो ये लोग तिरस्कार का ही भाव रखेंगे न !
लेकिन दो बातों पर गौर करने की जरूरत है. पहली बात यह कि इस जमात के लोग पारंपरिक रूप से सबसे बड़े भारतप्रेमी रहे हैं. ये लोग 1991 के बाद भारत की प्रगति और पाकिस्तान से मिलने वाली आतंकवादी चुनौतियों से निपटने की उसकी कोशिशों की तारीफ करने में सबसे आगे रहे हैं. इन दशकों में इन लोगों ने पाकिस्तान को दुनिया का सिरदर्द, जिहाद यूनिवर्सिटी और ठेठ उत्पाती देश घोषित किया है.

लेकिन आज जब इमरान खान बड़े शान से यह कहते हैं कि भारत की हालत तो आज वैसी ही है जैसी 1930 के दशक में नाजियों के राज में जर्मनी की थी, तब ये लोग उलझन भरी खामोशी से यह सब सुन लेते हैं. वे इससे सहमत नहीं हैं, और न ही वे इसे सच होते देखना चाहते हैं. लेकिन उन्हें समझ में नहीं आता कि वे भारत के बचाव में क्या जवाब दें. वे शिक्षाविदों और पत्रकारों को वीज़ा न दिए जाने, मीडिया पर दबाव डाले जाने की कहानियां एक-दूसरे को सुनाते हैं और पूछते हैं कि भारत चीन की तरह क्यों बनता जा रहा है.


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और दूसरी बात यह है कि इस तरह की नयी शंकाएं केवल बुद्धिजीवियों/जनमत वालों/मीडिया की जमात को ही नहीं सता रही हैं. दुनिया भर का कॉर्पोरेट जगत भी चिंतित है, कि पहले तो आपकी नीतियों का अनुमान लग जाया करता था मगर अब तो मनमर्जी चल रही है. नये टैक्स, नये नियम-कायदे अचानक उभर आते हैं, जिनमें से कुछ तो जल्दी ही लुप्त हो जाते है और कई टिके रहते हैं. करों और नियमनों की आपकी प्रक्रियाएं, और सबके ऊपर आपकी न्यायपालिका अस्त-व्यस्त है, और अब तो आयात का विकल्प ढूंढने की पुरानी समाजवादी सनक, स्वदेशी, और छोटे व्यापारियों की वणिक बुद्धि जैसी बातें भी हावी होने लगी हैं. इन सबके ऊपर, आपके मंत्री हमें फटकारते हैं. यानी, येन केन प्रकारेण अधिकतर लोगों को लग रहा है कि भारत एक चिड़चिड़ा देश बनता जा रहा है. यह उन्हें पसंद नहीं है.

अगला कदम शायद यह होगा कि हम एक नरम, ‘सॉफ्ट’ देश से एक ‘हार्ड पावर’ बनने की ओर बढ़ जाएंगे कि, 2014 के बाद से एक नया इतिहास शुरू हो गया है और भारत किसी को खुश करने के लिए खुद को तकलीफ नहीं देने वाला! इससे दो समस्याएं उभरती हैं.

पहली यह कि आप खुद को इस तरह जरूर बदल सकते हैं बशर्ते आपने उस तरह की आक्रामक शक्ति हासिल कर ली हो. अंतरराष्ट्रीय रणनीतिकारों की जमात के जानकार लोगों ने, जो हमारे टीवी चैनेलों से कतई प्रभावित नहीं हैं, 26/27 फरवरी के पुलवामा ऐक्सन के बाद यह तो जान लिया कि भारत जवाबी कार्रवाई करने और तनाव बढ़ाने के खतरे मोल लेने का हौसला रखता है मगर पाकिस्तान जैसे छोटे देश को निर्णायक, एकतरफा सबक सिखाने की उसकी अक्षमता भी जाहिर हो गई है. इसलिए भारत ने खुद को समय से पहले नया ‘हार्ड पावर’ घोषित करके और अब तक उसकी ताकत का जो स्रोत था उसे खारिज़ करके खुद को अपनी ही जुमलेबाजी में उलझा लिया है. इसका सीधा संदेश यही है कि जो चीज़ आपके पास नहीं है उसका बड़बोला दावा करना खतरे से खाली नहीं है.

और दूसरी बात, जो मार्केटिंग से जुड़ा कोई भी शख्स आपको बता देगा, यह है कि सभी ब्रांडों की तरह मुल्कों के मामले में भी सच यही है कि हर एक ब्रांड की अपनी बुनियादी खासियत होती है. जैसे, चीन को एक सख्त, बिना लागलपेट वाला, कुशल प्रशासन वाला, जातीय समरसता वाला, सुपर पावर वाली सैनिक ताकत वाला, हर साल दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों को फांसी देते हुए भी इसे गोपनीय बनाए रखने वाला देश माना जाता है.

इन दिनों हमारी सारी बातें जिस एक पसंदीदा संदर्भ-बिंदु से शुरू होती है उस पाकिस्तान के बारे में हम बात न ही करें तो बेहतर है. लेकिन भारत की ब्रांड विशेषताओं में ये तमाम बातें शामिल हैं— लोकतंत्र, विविधता के साथ जीने की सहजता, अस्त-व्यस्त और उलझनपूर्ण मगर सबको साथ लेकर चलने वाला प्रशासन, तर्क-वितर्क करने वाली विचार-आग्रही आबादी. और, चाहे जो भी हो हर तरह से यह एक नरम देश है. दूसरा कुछ हो भी नहीं सकता, क्योंकि यह एकमात्र विशाल, विविधतापूर्ण देश है जो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद न केवल एकजुट रहा बल्कि मजबूत होकर उभरा. सोवियत संघ से लेकर पाकिस्तान तक तमाम दूसरे देश, वे चाहे कितने भी सख्त से सख्त देश क्यों न रहे हों, टूट गए.


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हम इसे भारत के प्रति, खासकर हिंदू धर्म के प्रति पश्चिम का पूर्वाग्रह कह कर खारिज़ कर सकते हैं. इससे यह तथ्य नहीं बदल जाएगा कि पहचान की राजनीति और आर्थिक गिरावट के मेल ने ब्रांड इंडिया को भारी चोट पहुंचाई है. इसी के साथ इसने ब्रांड मोदी को भी धूमिल किया है. अब ज़रूरत इस बात की है कि हम लंबी सांस लेकर इस नुकसान को सुधारने का शुभारंभ करें. बेशक हम कभी भी यह कह सकते हैं कि हमें क्या पड़ी है! लेकिन जब आर्थिक वृद्धि की दर गोता खाकर 4.8 प्रतिशत पर पहुंच गई है, तब यह चलेगा नहीं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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