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Sunday, 28 April, 2024
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रिज़र्व बैंक ने पॉलिसी रेट में बढ़ोतरी न करके आर्थिक वृद्धि को चुना, जो सरकार को भी भा रहा है

जहां तक पॉलिसी रेट संबंधी जनादेश की बात है, यह सवाल ज्यादा जायज है कि क्या सरकार के लिए यह बुद्धिमानी की बात नहीं होती कि वह रिजर्व बैंक के लिए यह लक्ष्य तय कर देती कि वह महंगाई पर काबू पाने की कोशिश करे?

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हरमन हेस को तब नोबल पुरस्कार नहीं मिला था, जब 1943 में उनका उपन्यास ‘मैजिस्टर लुडी’ (‘माहिर खिलाड़ी’ का लातिनी अनुवाद) प्रकाशित हुआ था. इस किताब के दूसरे नाम ‘ग्लास बीड गेम’ अपरिभाषित रहा. इसकी कथा भविष्य में घटित होती है, मस्तिष्क के जीवन को समर्पित स्थान में. इस खेल के नियम रहस्यमय हैं और इसे खेलने वाले लोगों को वर्षों तक संगीत, सांस्कृतिक इतिहास, गणित जैसे असंबद्ध विषयों की पढ़ाई करनी होती है और ऐसे सूत्र तलाशने पड़ते हैं जो उन्हें यह खेल बढ़िया से खेलने में मदद करें. यह सब मुद्रा नीति की तरह गूढ़ मामला है, जिस पर अभी चर्चा करने की जरूरत पड़ी है.

जरा इस बात पर गौर कीजिए कि स्वतंत्र टिप्पणीकार लगभग एक मत से यह उम्मीद कर रहे थे कि भारतीय रिजर्व बैंक की मुद्रा नीति कमिटी गुरुवार को घोषणा करेगी कि अगले दिन भुगतान किए जाने कर्ज पर ब्याज की दर में चौथाई पर्सेंटेज प्वाइंट की वृद्धि की जाती है. लेकिन कमिटी ने सर्वसम्मति से यह फैसला सुनाकर सबको आश्चर्य में डाल दिया कि इस दर में कोई परिवर्तन नहीं किया जा रहा है.

टिप्पणीकार इस तथ्य के प्रभाव में थे कि मुद्रास्फीति 6 फीसदी की कानूनी ‘अधिकतम सहनीय सीमा’ से ऊपर बनी हुई है. दूसरी ओर, कमिटी यह उम्मीद लगाए है कि निकट भविष्य में मुद्रास्फीति गिरकर 5 फीसदी से थोड़ा ऊपर आकर ठहरेगी.

याद रहे कि कानूनन महंगाई की दर 4 फीसदी रहे जबकि इसके 2 पर्सेंटेज प्वाइंट इधर या उधर रहने की गुंजाइश छोड़ी जा सकती है. कमिटी को यह उम्मीद नहीं है कि आज से एक साल के बाद भी मुद्रास्फीति 4 फीसदी के स्तर पर पहुंचेगी. फिर भी, उसने पॉलिसी-रेट (जिस दर पर केंद्रीय बैंक उधार देता है) में वृद्धि करने से परहेज किया है, हालांकि इसकी वजह यह नहीं है कि उसे आर्थिक वृद्धि के मामले में किसी जोखिम की उम्मीद है. वास्तव में, उसने नए वित्त वर्ष में उसे आर्थिक वृद्धि दर थोड़ी ज्यादा यानी 6.5 फीसदी रहने की उम्मीद है. इन परस्पर विरोधी संकेतों ने टिप्पणीकारों को इस मामले में ‘मैजिस्टर लुडी’ का हाथ देखने से रोका नहीं है.

अगर विशेषज्ञता यही है, तो यही कहा जा सकता है कि यह खेल अनिश्चित-से खेल लूडो से ज्यादा नफासत वाला नहीं है. खिलाड़ियों, जिनमें सारे विशेषज्ञ ही हैं, की नफासत तार्किकता खोजने में ही है.

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दुनिया भर में केंद्रीय बैंकों के व्यवहार का ताजा इतिहास मिथकीकरण को प्रोत्साहन दे सकता है, क्योंकि केंद्रीय बैंकों के बैंकर्स को ही उन देशों में फैली महंगाई के लिए दोषी माना जा सकता है जो देश परंपरा से नीची मुद्रास्फीति वाले रहे हैं, और इसके बाद कीमतों पर काबू करने के लिए मुद्रा नीति में अचानक फेरबदल किया जाता है जिसके चलते बैंकिंग व्यवस्था कमजोर हुई है. अगर इसी को विशेषज्ञता कहा जाता है तो सामान्य प्रेक्षक बदनाम ब्रेक्सीटियर की तरह यह कह सकते हैं कि ‘बाज़ आएं विशेषज्ञों से’.

लेकिन पहली की तरह यह भी ‘इमोशनल अत्याचार’ होगा. भारत में गैर-विशेषज्ञ पॉलिसी एक्सन का इतिहास रहा है, और इतिहास अपने आप बहुत कुछ नहीं कहता. असली मुद्दा यह हो सकता है कि रिजर्व बैंक को जो जनादेश दिया गया है उस पर नहीं चलता और चुनाव से पहले वाले साल में सरकार इस तरह के रहस्यवाद का चुपचाप समर्थन ही करती है. इसलिए न तो कोई मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने को जरूरी प्राथमिकता देता है, या आर्थिक वृद्धि को सहायक लक्ष्य मानता है. मुद्रा नीति कमिटी के इस आचरण की यही मोटी वजह बताई जा सकती है कि प्राथमिकताएं उलट गई हैं. ऐसा न होता तो कमिटी ने धीमी मगर विश्वसनीय आर्थिक वृद्धि की संभावित कीमत पर गुरुवार को पॉलिसी रेट में वृद्धि की घोषणा की होती.

राजनीतिक-आर्थिक संदर्भ को भी ध्यान में रखिए. पिछले आम चुनाव के बाद से प्रति व्यक्ति आय में औसत वृद्धि बमुश्किल 2 फीसदी रही है, और पिछले छह महीने में यह 3 फीसदी हुई है. अनुमान है कि नए वित्त वर्ष में यह 5 फीसदी से ज्यादा हो जाएगी. यह एक ख़्वाहिश है जबकि आर्थिक प्रगति के संकेत विश्व अर्थव्यवस्था की सुस्ती और ऊंची ब्याज दरों के कारण अभी भी मिले-जुले ही हैं. इसलिए आय में अनुमानित वृद्धि हासिल करने की कोशिश करना और 4 फीसदी की महंगाई दर की बात को फिलहाल भूल जाना ही ज्यादा बेहतर है.

जहां तक पॉलिसी रेट संबंधी जनादेश की बात है, यह सवाल ज्यादा जायज है कि क्या सरकार के लिए यह बुद्धिमानी की बात नहीं होती कि वह रिजर्व बैंक के लिए यह लक्ष्य तय कर देती कि वह महंगाई पर काबू पाने की कोशिश करे? इस बारे में मत विभाजित हैं. कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि जबकि कई बातें रिजर्व बैंक के बस से बाहर हैं तो क्या उसके पास मुद्रास्फीति पर काबू पाने की ताकत है भी? लेकिन ऐसे सवालों के जवाब मुद्रा नीति कमिटी के दायरे से बाहर हैं. इसलिए कानूनन जो स्थिति है उसमें और नीति निर्माताओं की जो वास्तविक मंशा है उसके बीच एक खाई बनी हुई है.

(विचार निजी हैं. बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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