बिहार और उत्तर प्रदेश के करोड़ों आम लोगों की भाषा भोजपुरी को ‘अश्लीलता’ के शिकंजे से ‘बचाने’ के लिए जोर लगाया जा रहा है. हाल-फिलहाल, जून 2021 में लोकप्रिय भोजपुरी गायक खेसारी लाल यादव के खिलाफ एक प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की गई थी. इस प्राथमिकी में शिकायतकर्ता, जो मुंबई में एक धार्मिक निकाय के मुखिया हैं, ने उनके गानों को ‘अश्लील और फूहड़’ बताया. उसी महीने, भाजपा सांसद रवि किशन ने केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय एवं यूपी और बिहार की राज्य सरकारों को पत्र लिखकर भोजपुरी फिल्मों में अश्लील सामग्री परोसे जाने पर प्रतिबंध लगाने की मांग की. उन्होंने नाराज जनता को आश्वासन दिया कि वह इस मुद्दे को संसद में उठाएंगे.
लेकिन क्या भोजपुरी को इन प्रयासों की जरूरत है? पारंपरिक ज्ञान हमें बताता है कि कोई भी जीवित भाषा- जो कई समुदायों द्वारा बोली और गाई जाती है- कभी नहीं मर सकती. यह बात संस्कृत की किसी सूक्ति की तरह है. लेकिन भोजपुरी भाषा की समस्या इस एकरेखीय तर्क से अलग है. करोड़ों लोगों द्वारा गाये और बोले जाने के बावजूद यह लगातार गहरे पतन की तरफ बढ़ रही है. दरअसल भोजपुरी को किसी ‘मौत’ से बचाने की जरूरत नहीं है, बल्कि इसके उत्थान के लिए एक ठोस हस्तक्षेप की जरूरत है. कोई भी भाषा जीवित रहते हुए कई और तरह से भी मर सकती है. हाल के दशकों में भोजपुरी से जुड़ा अनुभव हमें यही बताता है.
अश्लील कंटेंट बनाने वालों के खिलाफ कार्रवाई तो की जा सकती है लेकिन इस भाषा को पुलिसिया सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है- बल्कि इसे राज्य के संरक्षण की आवश्यकता है, जो उसके पास इतिहास में कभी भी नहीं रही है. इसी ऐतिहासिक चूक ने भोजपुरी साहित्य को परेशानी में डाल दिया. इससे जो निर्वात पैदा हुआ, उसे अश्लील गानों द्वारा भर दिया गया. क्योंकि ये गाने लिखना और बनाना अपेक्षाकृत बहुत आसान है.
इस भाषा को बचाने के लिए पहला कदम है कि भोजपुरी साहित्य के इतिहास का सम्मान किया जाए और फिर इसे संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किया जाए. आज की सोशल मीडिया की दुनिया में समर्थन (एंडोर्समेंट) ही सब कुछ होता है और किसी भाषा को संविधान द्वारा मान्यता दिए जाने से बड़ा समर्थन और क्या मिल सकता है?
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एक भाषा के रूप में भोजपुरी का इतिहास
लेखक कृष्णदेव उपाध्याय, जिन्होंने भोजपुरी लोक साहित्य का अध्ययन (1960) नाम की किताब लिखी है, के अनुसार मैथिली और मगही के साथ भोजपुरी ‘बिहारी भाषा’ की तीन बोलियों में से एक है. ‘बिहारी भाषा’ को सर्वप्रथम आयरिश मूल के एक भारतीय सिविल सेवा अधिकारी जॉर्ज ए ग्रियर्सन ने परिभाषित किया था. वह ब्रिटिश शासन के दौरान बिहार में कार्यरत थे और शब्द शास्त्र (फिलोलॉजी) एवं भाषा विज्ञान में गहरी रुचि रखते थे. उस समय भोजपुरी मुख्य रूप से काशी और मगध के बीच के उस भू-भाग में बोली जाती थी, जहां ग्रियर्सन काम करते थे. फिर उपाध्याय भोजपुरी के इतिहास को मालवा के उज्जैनी राजाओं के वंशजों द्वारा बक्सर-आरा क्षेत्र में बसने के क्रम से जोड़ते हैं. उन राजाओं ने ही अपनी राजधानी भोजपुर का नाम महान उज्जैनी राजा भोज के नाम पर रखा और इस तरह से यह बोली ‘भोजपुरी’ के नाम से जानी जाने लगी.
उपाध्याय ने मैथिली और मगही को भोजपुरी की दो ‘सगी’ (सहोदर) बहनें और बंगाली, असमिया और उड़िया को इसकी मौसेरी बहनों के रूप में वर्णित किया है. यह दर्शाता है कि ये सभी भाषाएं एक ही समूह से संबंधित हैं. हालांकि, मध्ययुगीन काल में, भोजपुरी को मैथिली में विद्यापति और बंगाली में चंडीदास जैसे कवि नहीं मिल सके. हालांकि कबीर के दोहों में भोजपुरी के भी शब्द थ, लेकिन यह मूलरूप से भोजपुरी साहित्य नहीं था.
इस प्रकार, भोजपुरी आम लोगों की भाषा बनी रही और इसने सरल शब्दों से भरपूर कविताओं और गीतों के माध्यम से अपने आप को अपनी संस्कृति में व्यक्त किया. ये कवितायें और गीत भोजपुरी जन-जीवन के हर तबके और हर धारा में अवशोषित हो गए. भोजपुरी में हर एक चीज़ के लिए कविता और गीत है: जैसे कि गिल्ली डंडा जैसे खेल के लिए, जीवन के संस्कारों जैसे जन्म, विवाह के लिए, खेती के विभिन्न चरणों के लिए, विभिन्न मौसमों चैता, फागुन और सावन के लिए, होली, पिड़िया, तीज जैसे त्योहारों के लिए और कभी-कभी विभिन्न जाति समूहों की अपनी संस्कृतियों के अनुसार भी जैसे कि बिरहा और पचरा. कुछ समुदायों में रोगियों को दवाएं देते समय पचरा गीत और नृत्य किए जाते थे. हालांकि, इन संस्कृतियों का लिखित उल्लेख करने की दिशा में बहुत कम काम हुआ है.
भोजपुरी का गद्य के रूप में इस्तेमाल होने का भी अपना इतिहास है. 17वीं शताब्दी में इसे कानूनी कार्य के लिए गद्य के रूप में अपनाया गया. एक दानपात्रनामा (दान) रिकॉर्ड, जिसका उल्लेख उपाध्याय करते हैं, साल 1735 का है और दूसरा उदाहरण एक हलफनामा है जो एक स्थानीय राजा उदवंत सिंह के नाम पर 1796 में बना है. इन्हीं के नाम पर बिहार के आरा जिले के ‘उदवंतनगर’ गांव का नाम रखा गया है. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी वीर कुंवर सिंह उनके परपोते थे.
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भोजपुरी साहित्य का विकास
तकरीबन सौ साल पहले, 20वीं सदी की शुरुआत में सोया हुआ भोजपुरी साहित्य एक बार फिर खिल गया और उसे उसके दो ‘सितारे’ मिल गये. इनमें एक रोमांटिक गज़ल ‘बदमाश दर्पण’ थी, जिसे बनारस के कवि तेग अली तेग ने लिखा था. दूसरी एक क्रांतिकारी जाति-विरोधी कविता थी, जो हजारी प्रसाद द्विवेदी की पत्रिका ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई थी और जातियों के अनुक्रम में सबसे निचले पायदान पर खड़े कवि हीरा डोम द्वारा लिखी गई थी. हालांकि इन दोनों स्टार राइटर्स की अपनी असल जिंदगी अभी भी रहस्य में डूबी हुई है और उनके बारे में ज्यादा पता नहीं है.
तेग अली तेग ‘बदमाश दर्पण ‘ में सूफी बातें लिखते हुए कहते हैं:
जानी ला आजकल में झनाझन चली राजा,
लाठी लोहांगी खंजर औ बिछुआ तोहरे बदे
कासी पराग द्वारका मथुरा औ वृन्दावन
धावल करैलें ‘तेग’कन्हैया, तोरे बदे.
अगर बनारसी शैली में लिखी गई कोई गज़ल है तो वह ‘बदमाश दर्पण’ है. इसमें मस्ती, ताने, वाहवाही और प्यार भरपूर मात्रा में है. इसके कई छंद शिव, कृष्ण और अन्य हिंदू देवताओं को डेडिकेट करते हुआ लिखा गया है. तेग अली के जीवन की किंवदंती से जुड़ी कई कहानियां प्रचलित हैं. कुछ में उन्हें कथित तौर पर ‘काशी का गुंडा’ कहा जाता है, जो उनकी गज़लों को और अधिक रोचक बनाता है. ऐसा कहा जाता है कि मुगल शासन काल के बाद बनारस में एक गुंडा समुदाय रहता था. महान हिंदी लेखकों में से एक जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘काशी का गुंडा ‘ के नायक- बाबू नन्हकू सिंह – की जीवन शैली काफी हद तक तेग अली तेग से मिलती-जुलती है.
तेग अली तेग के बाद भोजपुरी साहित्य को एक नया जीवन उस वक्त मिला जब महात्मा गांधी स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए. गांधी जी के संदेश को फैलाने के लिए भोजपुरी में कई कविताएं लिखी गईं. इन कविताओं ने आम जन में एक राष्ट्रवादी भावना जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
बाद में प्रथम विश्व युद्ध, जलियांवाला बाग हत्याकांड, 1934 में बिहार-नेपाल के भूकंप और द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव पर कई कविताएं लिखी गईं. इन कविताओं में क्रांतिकारियों, भारतीय महिलाओं की दयनीय स्थिति और गांधी जी की हत्या के बारे में बात की गई है.
भोजपुरी लेखकों ने न केवल स्थानीय मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित किया, बल्कि उन्होने वैश्विक घटनाओं पर भी नज़र रखी थी. 1942 में लेखक राहुल सांकृत्यायन ने हिटलर के जर्मनी की हार की भविष्यवाणी करते हुए एक नाटक लिखा था. इस नाटक में दो मुख्य पात्र थे: भसुंडी, जिसका दावा था कि हिटलर के सत्ता में आने के बाद से जर्मनी में कोई भी भूखा नहीं सोया है और घरभरन/रामसुभाग, जिसका तर्क था कि हिटलर के शासन के तहत जर्मनी को कदम-दर-कदम नष्ट किया जा रहा है.
हालांकि, भोजपुरी साहित्य की असल क्रांति नाटककार भिखारी ठाकुर (1887-1941) के साथ आई, जिन्होंने सामाजिक-प्रगतिशील तत्वों को इसके दायरे में शामिल किया. अपने नाटकों के नाटकीय और भावनात्मक प्रभाव के लिए ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर अपने बिदेसिया नाटकों के लिए प्रसिद्ध थे. नाटक और रंगमंच के प्रसिद्ध कलाकार सतीश आनंद ने ठाकुर के गाबरघिचोर की तुलना बर्टोल्ट ब्रेख्त के ‘द कोकेशियन चाक सर्कल ‘ से की है.
ठाकुर की प्रतिभा नाटक लेखन से परे साहित्य के अन्य पहलुओं में भी फैली हुई थी. उर्दू शायरों जैसी रूमानियत दिखाते हुए उन्होंने अपने बारे में लिखा:
नाम भिखारी काम भिखारी, रूप भिखारी मोर.
टाट पलानि मकान भिखारी, चहुंदिसि भइस सोर.
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भोजपुरी भाषा और साहित्य का संघर्ष
भोजपुरी के लिए असली चुनौती भारत की आजादी के बाद शुरू हुई जब इसे संविधान की सम्मानित 8वीं अनुसूची में जगह नहीं मिली. यह बिहारी प्रवासियों की भाषा बनी रही, जो तब भी अविभाजित भारत के विभिन्न हिस्सों में काम करते थे. अन्य लोगों लिए यह एक मामूली सी बात थी लेकिन भोजपुरी भाषी लोगों के लिए यह शान का सवाल था क्योंकि इसकी बहन जैसी अन्य भाषाओं- मैथिली, बंगाली, उड़िया और असमिया को संवैधानिक मान्यता मिल गयी थी. 1971 में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के सांसद भोगेंद्र झा ने भोजपुरी को 8वीं अनुसूची में सूचीबद्ध करने के लिए एक विधेयक संसद में पेश किया लेकिन इसे अस्वीकृत कर दिया गया.
भोजपुरी को इसकी बहन मानी जाने वाली भाषाओं की ही तरह एक साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित करने का संघर्ष भी बहुत पुराना है. स्वतंत्रता से पहले, उदय नारायण तिवारी ने भोजपुरी भाषा के विकास के लिए अथक परिश्रम किया और इसके व्याकरण और इतिहास को अपनी मौलिक कृति- भोजपुरी और भोजपुरी भाषा और साहित्य की उत्पत्ति और विकास– के रूप में संकलित किया. उन्हीं की बदौलत अब भोजपुरी के पास अपना इतिहास, व्याकरण और साहित्य भी हो गया था लेकिन फिर भी उसे कभी राज्य का संरक्षण नहीं मिला, जिसका इस पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा.
आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता न मिलना इसकी साहित्यिक दुनिया के धराशायी होने के लिए पर्याप्त कारण था. हालांकि, लेखकों ने एक दूसरे तक अपनी कृतियों को पहुंचाने का प्रयास जारी रखा है.
आज़ादी के बाद, रामेश्वर सिंह कश्यप द्वारा लिखित ‘लोहा सिंह ‘ नामक भोजपुरी में प्रसारित एक रेडियो नाटक 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान सबसे लोकप्रिय भोजपुरी कृतियों में से एक बन गया था. इसके कथानक में एक सेवानिवृत्त सैनिक अपने गांव लौटता है और अपने समाज को सुधारने की कोशिश करता है. इसके विनोदी और हिंदी-अंग्रेजी-भोजपुरी के मिले-जुले संवाद आम जनता के बीच काफी लोकप्रिय हुए थे. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने अपनी जीवनी ‘गोपालगंज टू रायसीना ‘ में इसके डायलॉग्स (संवादों) को बड़े चाव से याद किया है.
1947 से 1975 तक भोजपुरी में कई सारे उपन्यास लिखे गए जिनमें बिंदिया, थारुहट के बबुआ और बहुरिया, सेमर के फूल, रहनिदार बेटी, एगो सुबह एगो सांझ और सुनार काका शामिल हैं. बाद में चलकर, फूलसुंघी, घर टोला गांव, जिनीगी के राह, दरद के दहर, अछूत, इमरितिया काकी, अमंगल हरि, आधे आध, कादंबरी, दाल भात तरकारी, बोतल दास के बयान और गंगा रतन बिदेसी जैसे कुछ और भी उपन्यास 1975 और 2020 के बीच प्रकाशित हुए.
दिलचस्प बात यह है कि इनमें से अधिकांश उपन्यास पारिवारिक संबंधों, प्रेम, विवाह, जाति की समस्या और महिलाओं के अधिकारों जैसे सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित हैं लेकिन स्वतंत्रता पूर्व के हिंदी लेखक प्रेमचंद की ही शैली का पालन करते हैं. वे प्रगतिशील लेखकों के आंदोलन, भोजपुर के नक्सल आंदोलन, आपातकाल, उदारीकरण, वैश्वीकरण और इंटरनेट के आगमन जैसे समसामयिक प्रभावों से काफी हद तक अछूते रहे. ये बातें नए साहित्य के निर्माण के लिए प्रेरित कर सकती थीं.
इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इस क्षेत्र में बाबा साहेब आंबेडकर या पेरियार जैसा कोई क्रांतिकारी बुद्धिजीवी नहीं हुआ जो मौजूदा सामाजिक मानदंडों को चुनौती दे सके. शायद यह तथ्य कि भोजपुरी शिक्षा का माध्यम नहीं हो सकती थी, इसके द्वारा नई पीढ़ी को आकर्षित नहीं कर सकने का एक बड़ा कारक रहा है. भोजपुरी साहित्य एक कठोर जाति व्यवस्था के शिकंजे तक भी सीमित रहा है, फिर भी प्रारंभिक दौर के भोजपुरी उपन्यासों में दिखाए गए आदर्शवाद के इरादे की सराहना की जानी चाहिए.
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अश्लील गाने और आगे का रास्ता
भोजपुरी भाषा में असली गिरावट 1990 के दशक में उदारीकरण के युग की शुरुआत के बाद आई, जब संगीत के क्षेत्र में कई कैसेट कंपनियां आईं. भोजपुरी गाने काफी हिट हुए और उसके श्रोताओं की संख्या लगभग 12 करोड़ के आसपास पहुंच गयी थी.
आम जनता के बीच शिक्षा की कमी और यह तथ्य कि भोजपुरी भी शिक्षा का माध्यम नहीं थी, ने पारंपरिक कविताओं और गीतों को प्रचलन से बाहर कर दिया. जल्द ही नए गायकों और लेखकों का युवा जोश साहित्यिक कौशल के ऊपर छा गया और धीरे-धीरे यही लोग अश्लीलता के गर्त में उतर गये. जनता को उत्तेजित करके खुश करने के लिए और अधिक हिट पाने के लिए गीतकारों ने और भी अश्लीलता भरे गीत लिखे. अश्लीलता ही सफलता का पैमाना बन गई. आधुनिक भोजपुरी साहित्य में ऐसा कुछ भी नहीं था जो इस लगातार होते पतन को रोक सके और कुछ प्रगतिशील चीजें गढ़ सके.
इसके अलावा, इंटरनेट के आगमन के साथ ही भोजपुरी भाषा को 21वीं सदी में अपनी नई पहचान मिली और वह थी अश्लील गीतों के साथ पेश किया गया ऑटो-ट्यून संगीत. अश्लीलता की भारी मांग के कारण अच्छे गाने बनाने के सभी प्रयास लोगों की नज़र से गायब हो गये.
दूसरी ओर, इंटरनेट की व्यापक पहुंच और सोशल मीडिया के लिए स्थानीय कंटेंट की निरंतर आवश्यकता के कारण, स्थानीय भाषाओं पर नये सिरे से ध्यान दिया जा रहा है, इसलिए भविष्य उतना भी अंधकारमय नहीं दिखता है. हाल ही में, साल 2020 में भोजपुरी कवि महेंद्र मिसिर और एक दरबारी नर्तकी ढेलाबाई के बीच के प्रेम संबंध की कहानी पर आधारित उपन्यास फूलसुंघी (1977) का पेंग्विन प्रकाशन द्वारा अंग्रेजी में अनुवाद और प्रकाशन किया गया था जिसे सोशल मीडिया पर खूब सराहा गया.
अब इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए राज्य के (सरकारी) संरक्षण की आवश्यकता है, जो निष्क्रिय पड़ी भोजपुरी दुनिया को फिर से सक्रिय कर सके. शायद तब, एक नये प्रकार का साहित्य उभरेगा जो अपनी समृद्धि के लिए पहचाना जाएगा. तब यह उम्मीद की जा सकती है कि भोजपुरी साहित्य में अश्लीलता की जगह मिठास ले लेगी. आखिर इस भाषा की मिठास ही ऐसी है कि एक ‘काशी का गुंडा ‘ भी गज़ल लिखने लगा.
(ऋषभ प्रतिपक्ष हिंदी के लेखक, ब्लॉगर हैं और साहित्य व सिनेमा में काफी रुचि रखते हैं, व्यक्त विचार निजी हैं)
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