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Tuesday, 17 December, 2024
होममत-विमतवह कानून जिसकी वजह से बच्चे नहीं छीन सकते बुजुर्ग माता-पिता का हक

वह कानून जिसकी वजह से बच्चे नहीं छीन सकते बुजुर्ग माता-पिता का हक

संपन्नता की सीढ़ियों पर आगे बढ़ रहे पुत्र-पुत्रियों, बहुओं और दामादों के आचरण के कारण आज घर की चारदीवारी के भीतर के विवाद अदालतों में पहुंचने लगे हैं.

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1969 में एक फिल्म आई थी ‘एक फूल दो माली‘. इसमें एक गीत की पंक्ति थी, ‘आज उंगली थाम के तेरी तुझे चलना मैं सिखलाऊं, कल हाथ पकड़ना मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊं.‘ लेकिन ऐसा लगता है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान सामाजिक मूल्यों में आए बदलाव के कारण ‘एक फूल दो माली’ फिल्म के इस गीत की यह पंक्ति अतीत की बात हो गयी है और सरकार को 2007 में ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण और कल्याण’ कानून ही नहीं बनाना पड़ा बल्कि वरिष्ठ नागरिकों के हितों की रक्षा और सम्मानपूर्ण तरीके से जिंदगी जीने के उनके अधिकार सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका को भी इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा है.

स्थिति यह हो गयी है कि आज कहीं बेटा अपनी मां को बेआबरू कर रहा है तो कहीं पोता अपने दादा को लूटने से बाज नहीं आ रहा है. परिवारों में वृद्ध माता-पिता और दूसरे बुजुर्गों को बोझ समझा जाने लगा है. संपन्नता की सीढ़ियों पर आगे बढ़ रहे पुत्र-पुत्रियों और बहुओं और दामादों के आचरण के कारण आज घर की चारदीवारी के भीतर के विवाद अदालतों में पहुंचने लगे हैं.


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अदालतों में पहुंच रहे विवादों में अक्सर देखा जा रहा है कि संतानों ने माता-पिता की संपत्ति पर कब्जा करने के बाद उन्हें दर-बदर की ठोकर खाने या फिर असहाय होकर परिस्थितियों से समझौता करके खुद को भाग्य के सहारे छोड़ देने के लिए मजबूर कर दिया है.

परिवारों में माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों की अनदेखी, उनके साथ दुर्व्यवहार और मारपीट की बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर ही संप्रग सरकार ने 2007 में ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण व कल्याण कानून’ बनाया था. दुर्भाग्य से इस कानून के बारे में लोगों को अधिक जानकारी नहीं है और यह सिर्फ कानून की किताबों या संतानों से सताये जाने के कारण वकीलों की शरण लेने वाले वृद्धजनों तक ही सीमित रह गया है.

इस कानून के तहत वरिष्ठ नागरिक का परित्याग दंडनीय अपराध है. इस अपराध के लिए तीन माह की कैद तथा पांच हजार रुपए जुर्माना हो सकता है. बावजूद, देश में बूढ़े माता-पिता का परित्याग करने की घटनाएं हो रहीं हैं.

वृद्धजनों के हितों की रक्षा के लिये 2007 में बने इस कानून में भरण-पोषण न्यायाधिकरण और अपीली न्यायाधिकरण बनाने की व्यवस्था है. ऐसे न्यायाधिकरण को वरिष्ठ नागरिक से शिकायत मिलने के 90 दिन के भीतर इसका निपटारा करना होता है और एकदम अपरिहार्य परिस्थितियों में यह अवधि 30 दिन के लिये बढ़ाई जा सकती है. भरण-पोषण न्यायाधिकरण ऐसे वरिष्ठ नागरिक को उसके बच्चे या संबंधी से भरण-पोषण के रूप में 10 हजार रुपए तक प्रतिमाह का भुगतान करने का आदेश दे सकते हैं.

इस कानून के तहत वृद्ध माता-पिता की मदद के लिये राज्यों के प्रत्येक उपमंडलों में एक या इससे अधिक भरण-पोषण न्यायाधिकरण गठित करने का प्रावधान है लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज भी कई राज्यों में इस कानून के तहत माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण के मामलों की सुनवाई के लिये पर्याप्त संख्या में न्यायाधिकरण नहीं हैं.

वृद्ध हो रहे माता-पिता और परिवार के अन्य बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार, उपेक्षा और उनकी संपत्ति हड़पने के लिये उन्हें घर में प्रताड़ित करने और उनका परित्याग करने जैसी घटनाओं में वृद्धि को देखते हुये ही संसद ने समाज के एक वर्ग के हितों की रक्षा के लिये माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण कानून बनाया. केन्द्र सरकार ने दिसंबर, 2007 में ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण कानून’ पूरे देश में लागू किया.

हालांकि यह कानून आज बुजुर्ग माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के लिये सुरक्षा का बहुत बड़ा हथियार बन चुका है लेकिन यह स्थिति सुखद नहीं है. अपने ही देश, समाज और घर परिवार में बेगाने होते जा रहे बुजुर्गों की स्थिति से उच्चतम न्यायालय भी चिंतत है.

न्यायमूर्ति मदन लोकूर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने 13 दिसंबर, 2018 को कांग्रेस के नेता डॉ. अश्विनी कुमार इस विषय पर एक जनहित याचिका पर केन्द्र सरकार को विस्तृत निर्देश भी दिये थे लेकिन यह मामला इसके बाद से अगली कार्यवाही के लिये आज तक सूचीबद्ध नहीं हुआ.

एक अनुमान के अनुसार इस समय देश में वरिष्ठ नागरिकों की जनसंख्या 11 करोड़ से अधिक है और अगले दो साल में इसके बढ़कर 14 करोड 30 लाख हो जाने की उम्मीद है. तेजी से बदल रहे सामाजिक ताने-बाने और इसमें बुजुर्गों की स्थिति की गंभीरता को देखते हुये न्यायालय भी चाहता है कि देश के प्रत्येक जिले में वृद्धाश्रमों का निर्माण हो जहां परिवार से त्याग दिये गये वरिष्ठ नागरिक सम्मान के साथ जिंदगी गुजार सकें.

वरिष्ठ नागरिकों की स्थिति को लेकर न्यायपालिका ने भले ही ठोस कदम उठाने का संकेत दिया है लेकिन यह समझ से परे है कि क्या अपने बुजुर्गों के प्रति परिवारों की कोई जिम्मेदारी नहीं है. हम इतने स्वार्थी और खुदगर्ज कैसे हो सकते हैं कि कहीं संपति हथियाने की खातिर तो कहीं दूसरे अपरिहार्य कारणों से परिवार के इन बुजुर्गों की देखभाल करने की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने लगे.

परिवार के बुजुर्गों को प्यार और सम्मान देने की बजाय उनका तिरस्कार करने और उनसे पीछा छुड़ाने का प्रयास करने वाली संतानों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भविष्य में वे भी इस अवस्था में पहुंचेगे और यदि उनके बच्चों ने उनके साथ ऐसा व्यवहार किया तो?

परिवार के सदस्यों के अत्याचारों से परेशान बुजुर्ग आज इस कानून के प्रावधानों का सहारा लेकर अदालतों का दरवाजा खटखटा रहे हैं और उन्हें वहां से अपेक्षित राहत भी मिल रही है. अदालतें भी अपनी व्यवस्थाओं में स्पष्ट किया है कि वरिष्ठ नागरिकों की संपत्ति के संरक्षण के अधिकार में संतान को बेदखल करना भी शामिल है. न्यायिक व्यवस्थाओं में यहां तक कहा गया है कि कोई भी संतान अपने माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक के घर में जबर्दस्ती नहीं रह सकती है.

अदालतों ने स्पष्ट किया है कि इस कानून के तहत गठित भरण-पोषण न्यायाधिकरण वृद्ध माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक का उत्पीड़न और उनके साथ दुर्व्यवहार करने वाली संतानों को उनके मकान से बेदखल करने का आदेश दे सकती है.


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अदालतों के कड़े रुख का ही नतीजा है कि परिवार में माता-पिता और दूसरे वरिष्ठ नागरिकों से दुर्व्यवहार करने, मारपीट करने और उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित करने वाली संतानों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करना अधिक सहज होता जा रहा है. लेकिन इसके बावजूद देश के सभी राज्यों में वरिष्ठ नागरिकों और बुजुर्गों में इस कानून के प्रति जागरूकता पैदा करने और पर्याप्त संख्या में भरण-पोषण न्यायाधिकरण स्थापित करने की आवश्यकता है ताकि उपेक्षाओं और अत्याचारों से पीड़ित माता-पिता को कम समय में न्याय मिल सके.

बिहार सरकार ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया है कि माता-पिता की सेवा नहीं करने और उन पर अत्याचार करने वाली संतानों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाएगी और उन्हें जेल भेजा जायेगा. यदि अन्य राज्य सरकारें भी इस कानून और इसके प्रावधानों को कठोरता से लागू करने का निर्णय कर लें तो निश्चित ही वृद्धजनों को अपने ही घरों में बेगानों जैसी जिंदगी गुजारने के लिये मजबूर नहीं होना पड़ेगा और संतानों द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न और घरेलू हिंसा से उन्हें प्रभावी तरीके से संरक्षण भी मिल सकता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.)

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1 टिप्पणी

  1. Right of citizen yah ek bahut hi acche vishay hai jiske bare mein main jo bujurg mahila mahilaon ko pata nahin sakte

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