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Thursday, 25 April, 2024
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राम रहीम की पैरोल अर्ज़ी पर इतना हंगामा क्यों, यह तो न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है

पैरोल किसी भी अपराध के लिये सज़ा पाने वाले अपराधी का अधिकार है और अपराधी को पैरोल पर रिहा करने का निर्णय प्रशासन के विवेक पर निर्भर करता है.

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​डेरा सच्चा सौदा के बाबा गुरमीत राम रहीम को पैरोल पर रिहा करने के लिये चल रही प्रकिया आजकल अचानक ही इस तरह से सुर्खियों में है मानो प्रशासन कोई ऐसा काम करने जा रहा है जो पहले कभी नहीं हुआ था या फिर प्रशासन किसी अपराधी को कोई विशेष सुविधा प्रदान कर रहा है. पैरोल किसी भी अपराध के लिये सज़ा पाने वाले अपराधी का अधिकार है और अपराधी को पैरोल पर रिहा करने का निर्णय प्रशासन के विवेक पर निर्भर करता है.

गुरमीत राम रहीम को अदालत ने बलात्कार के दो मामलों और एक पत्रकार की हत्या का दोषी ठहराया था. उसे बलात्कार के जुर्म में अगस्त 2017 में 20 साल कैद की सज़ा हुई है. जबकि एक पत्रकार की हत्या के 16 साल पुराने मामले में सीबीआई अदालत ने उसे उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी. वह इस समय रोहतक की सुनारिया जेल में बंद है. वह खेती करने के लिये 42 दिन की पैरोल चाहता है.


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हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में दोषी राम रहीम द्वारा पैरोल का आवेदन करने और उस पर हरियाणा सरकार के रुख के बाद से जो प्रतिक्रिया आ रही है उससे ऐसा लगता है कि मानो सरकार और जेल प्रशासन ऐसा कुछ करने जा रहा है जो उसे नहीं करना चाहिए था.

राम रहीम के पैरोल के मामले में हाय-तौबा मचाने वालों को यह भी ध्यान रखना चाहिए मुंबई बम विस्फोटों की 1993 की घटना से जुड़े मामले में यर्वदा जेल में बंद सिने अभिनेता संजय दत्त को कितनी बार पैरोल और फर्लो पर बाहर आने की अनुमति जेल प्रशासन ने दी थी. संजय दत्त को एके 56 राइफल प्राप्त करने और फिर उसे नष्ट करने के अपराध में शस्त्र कानून के तहत विशेष अदालत ने दोषी ठहराया था और उच्चतम न्यायालय ने इसकी पुष्टि भी की थी.

संजय दत्त को उच्चतम न्यायालय ने पांच साल की सज़ा दी थी. इस सज़ा की अवधि में से एक साल चार महीने वह विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में थे. जबकि जून, 2013 से 25 फरवरी, 2016 के दौरान सज़ायाफ्ता कैदी के रूप में. इस दौरान वह पांच महीने से भी अधिक समय तक पैरोल और फर्लो पर जेल के बाहर ही रहे थे.

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संजय दत्त की तरह ही कई अन्य अपराधियों को भी अलग-अलग वजहों से समय-समय पर अदालत ने पैरोल पर रिहा किया है. मसलन, फरवरी, 2002 के बहुचर्चित नीतीश कटारा हत्याकांड में उम्रकैद की सज़ा भुगत रहे विकास यादव और जनवरी, 1996 के प्रियदर्शिनी मट्टू बलात्कार एवं हत्या मामले में उम्रकैद की सज़ा काट रहे संतोष कुमार सिंह को भी समय समय पर पैरोल पर रिहा किया जा चुका है. यही नहीं, अप्रैल 1999 में हुए सनसनीखेज़ जेसिका लाल हत्याकांड में दोषी मनु शर्मा की भी पैरोल पर रिहाई हुई थी.

कारागार कानून 1894 तहत किसी भी सज़ायाफ्ता कैदी को पैरोल पर रिहा करने का प्रावधान है. जेल में कैदी के आचरण के आधार पर जेल प्रशासन उसे पैरोल पर रिहा करने के बारे में निर्णय लेते हैं. पैरोल भी दो तरह के होती है. पहला हिरासत में पैरोल होती है. जो आकस्मिक परिस्थितियों में एक सीमित अवधि के लिये होती है और इस दौरान कैदी पुलिस की हिरासत में ही रहता है. जबकि दूसरी नियमित पैरोल है. जिसमे कैदी को परिवार में शादी-विवाह, संतान का जन्म, परिवार में किसी की मृत्यु और इससे संबंधित क्रिया कर्म संपन्न कराने जैसे कार्यों के लिये एक निश्चित अवधि के लिये जेल से रिहा किया जाता है.


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जेल में एक निश्चित अवधि गुज़ारने के बाद कैदी अपने आचरण के आधार पर पैरोल पर रिहा करने का अनुरोध कर सकता है. ऐसे कैदी के आवेदन पर विस्तार से विचार किया जाता है और पूरी तरह संतुष्ट होने पर ही कैदी को कुछ शर्तों के साथ नियमित पैरोल पर रिहा किया जाता है और इस तरह की रिहाई के लिये उसे बतौर गारंटी मुचलका और बांड आदि देने का निर्देश दिया जाता है.

हालांकि, शासन के खिलाफ आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त कैदी, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये खतरा हो सकने वाले कैदी और ऐसे कैदी जो भारत के नागरिक नहीं हैं, पैरोल पर रिहाई के हकदार नहीं होते हैं. अनेक हत्याओं और बच्चों से बलात्कार और उनकी हत्या करने के अपराध में दोषी ठहराये गये अपराधी भी पैरोल के हकदार नहीं होते हैं. लेकिन, कुछ परिस्थितियों में उनके आवेदन पर भी विचार किया जा सकता है.

पैरोल और फर्लो पर ज्यादातर समय जेल से बाहर रहने वाले दोषियों में अभिनेता संजय दत्त ही अकेले अपवाद नहीं हैं. ऐसे अनेक मामले हैं. कई मामलों में तो पैरोल पर जेल से बाहर आने के बाद अपराधी ने फिर अपराध किये हैं या फिर पैरोल पर जेल से निकलने के बाद वह फरार हो गया.

गुरमीत राम रहीम के पैरोल को अगर हरियाणा की राजनीति से जोड़ कर देखा जाता है. तो फिर यह सोचना होगा कि जेसिका लाल हत्याकांड में दोषी कांग्रेस नेता के पुत्र मनु शर्मा, नीतीश कटारा हत्याकांड में दोषी विकास यादव या फिर सिने अभिनेता संजय दत्त की पैरोल पर रिहाई को किस श्रेणी में रखा जायेगा. क्या इन दोषियों को मिली पैरोल को उनके राजनीतिक रसूख से नहीं जोड़ा जाना चाहिए?

अदालत द्वारा दोषी ठहराये गये डेरा सच्चा सौदा के बाबा गुरमीत राम रहीम की पैरोल को लेकर उठ रही आवाजों के बीच हमें इस तथ्य पर भी सवाल उठाना चाहिए कि राष्ट्रपति के रूप में प्रतिभा देवी सिंह पाटिल द्वारा हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में 35 कैदियों की मौत की सज़ा को उम्रकैद में तब्दील करना कितना तर्कसंगत था. मौत की सज़ा पाये इन कैदियों में सात बलात्कारी थे.

यह सही है कि राष्ट्रपति ने गृह मंत्रालय की सलाह पर ही यह निर्णय लिया. लेकिन, क्या मासूम बच्चियों से बलात्कार कर उनकी हत्या करने वाले वहशियों की मौत की सज़ा को उम्रकैद में तब्दील करना उचित था?


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गृह मंत्रालय की सलाह पर ही राष्ट्रपति ने आगरा में 2003 में पांच साल की बच्ची से बलात्कार के बाद उसकी हत्या करने के अपराध में मौत की सज़ा पाये बंटू तथा मेरठ में छह साल की बच्ची से बलात्कार के बाद उसकी हत्या करने के अपराध में मौत की सज़ी पाये सतीश की सज़ी को उम्रकैद में तब्दील किया था.

हल्ला अगर होना भी चाहिए, तो इस पर कि क्या राम रहीम की पैरोल से शिकायतकर्ता की जान खतरे में आ जायेगी. क्योंकि सब उनके रसूख और उनके डेरे की पहुंच से वाकिफ हैं, न कि पैरोल की प्रक्रिया या औचित्य पर. कानून की नज़र में उनकी अर्जी जायज़ है और अगर उनको पैरोल मिलती है, तो वो कानून गलत नहीं होगा. चाहे समाज की नजरों में ये एक गलत कदम हो या इस कदम पर राजनीतिक बयानबाज़ी हो.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.)

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