भारत में मेंटल हेल्थ को आमतौर पर नज़रअंदाज किया जाता है, लेकिन अब इसकी मान्यता खासकर युवाओं के कल्याण के संबंध में बढ़ रही है. कोरोना महामारी के स्थायी प्रभावों ने इस जागरूकता को और भी बढ़ाया है. नतीजतन, हाल के दिनों में मेंटल हेल्थ से जुड़ी चिंताओं को संबोधित करना और प्राथमिकता देना तेज़ी से महत्वपूर्ण हो गया है. लोकनीति सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन, जिसमें 18 राज्यों में 15-34 वर्ष की आयु के 9,316 युवाओं का इंटरव्यू लिया गया, देश के युवाओं की मानसिक भलाई के बारे में बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करता है.
महामारी और मेंटल हेल्थ
कोविड-19 महामारी के दौरान घर पर रहने के आदेशों का युवाओं पर सकारात्मक और प्रतिकूल दोनों प्रभाव पड़ा, जहां कुछ लोगों ने परिवार के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताया और नई हॉबीज़ अपनाईं, वहीं अन्य लोग बाधित शिक्षा, रोज़गार, सामाजिक अलगाव और बढ़े हुए भावनात्मक संकट से जूझ रहे थे. हम जैसे-जैसे महामारी से आगे बढ़ रहे हैं, दुनिया इसके परिणामों से संघर्ष कर रही है और विशेष रूप से युवा पीढ़ी को न्यू नॉर्मल को अपनाने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है.
डेटा इस बात पर प्रकाश डालता है कि लगभग 35 प्रतिशत युवा जिन्हें महामारी से पहले से ही मेंटल हेल्थ से जुड़ी कठिनाइयां थीं, उन्होंने महामारी के दौरान अपनी स्थिति के और बिगड़ने की सूचना दी (ग्राफ 1). इसके अलावा, एक चौथाई व्यक्ति जो महामारी से पहले मेंटल हेल्थ की प्रॉब्लम से जूझ रहे थे, उन्होंने बताया कि उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है. इससे पता चलता है कि विशेष वर्ग अभी भी लगातार मेंटल हेल्थ की प्रॉब्लम का सामना कर रहा है. चिंता की बात यह है कि लगभग 18 प्रतिशत युवा जो पहले मेंटल हेल्थ की प्रॉब्लम से दूर थे, उन्होंने महामारी के दौरान इसमें बदलाव की सूचना दी. डेटा इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि लगभग 34 प्रतिशत युवा जिन्हें महामारी से पहले ये परेशानियां थीं, उनकी सेहत में सुधार हुआ है. ये निष्कर्ष युवा व्यक्तियों के मेंटल हेल्थ संबंधित चिंताओं को बढ़ाने में महामारी की भूमिका को उजागर करते हैं, तत्काल ध्यान और समर्थन की आवश्यकता पर बल देते हैं.
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नकारात्मक भावनाओं में वृद्धि
क्रोध, चिंता, उदासी, डिप्रेशन और हताशा में वृद्धि से युवाओं पर भी काफी प्रभाव पड़ा है (ग्राफ 2). लगभग हर 5 में से 2 युवाओं (43 प्रतिशत) ने गुस्से में वृद्धि महसूस की, जबकि 40 प्रतिशत ने बढ़ी हुई चिंता का अनुभव किया और 39 प्रतिशत ने अधिक उदासी महसूस की. इसके अलावा 36 प्रतिशत युवाओं ने निराशा की भावनाओं में वृद्धि की सूचना दी और 31 प्रतिशत ने बढ़ते डिप्रेशन का सामना किया. ये निष्कर्ष उन भावनात्मक चुनौतियों पर जोर देते हैं जिनका युवाओं ने पिछले दो वर्षों में सामना किया है. छात्रों, गृहिणियों और बेरोज़गारों की तुलना में नौकरीपेशा युवाओं का एक बड़ा हिस्सा नकारात्मक भावनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील लगता है. इससे कार्यबल में युवाओं की भलाई के बारे में चिंताएं पैदा होती हैं. अध्ययन में यह भी पाया गया कि हर तीन में से एक युवा ने अकेलेपन, सामान्य भय और मृत्यु के भय (प्रत्येक 36 प्रतिशत) में वृद्धि महसूस की है. यह रोज़गार के दबाव, रिश्तों में टकराव और सोशल मीडिया से सूचनाओं की लगातार बाढ़ सहित कई प्रकार के तनावों का परिणाम हो सकता है. ये डर उस अनिश्चितता से भी संबंधित हो सकते हैं जिसने महामारी के दौरान सभी को घेर लिया था.
फिजिकल और मेंटल हेल्थ आपस में जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं. अध्ययन से पता चला है कि पिछले दो साल में हर 3 में से 1 युवा ने शरीर में दर्द, मूड में बदलाव (36 प्रतिशत प्रत्येक) और थकान (37 प्रतिशत) में वृद्धि की जानकारी दी है.
युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति
अध्ययन में भारतीय युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति का भी आकलन करने की कोशिश की गई. इसमें पाया गया कि दस में से एक (12 प्रतिशत) भारतीय युवा ने खुद को अक्सर नुक्सान पहुंचाने या आत्महत्मया करने के विचारों का अनुभव किया (ग्राफ 3). अन्य 12 प्रतिशत ने स्वीकार किया कि उनके मन में ऐसे विचार, शायद ही कभी थे, जबकि तीन-चौथाई (73 प्रतिशत) ने कहा कि उनके मन में कभी भी ऐसी भावना नहीं आई. इसके अलावा अध्ययन ने आर्थिक पृष्ठभूमि और आत्महत्या की प्रवृत्ति के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध पर प्रकाश डाला. गरीब आर्थिक पृष्ठभूमि के युवाओं में अधिक समृद्ध पृष्ठभूमि (11 प्रतिशत) के अपने समकक्षों की तुलना में आत्महत्या की प्रवृत्ति (17 प्रतिशत) की अधिक संभावना देखी गई. जेंडर के अंतर के संदर्भ में अध्ययन से पता चला कि पुरुषों में महिलाओं (11 प्रतिशत) की तुलना में आत्महत्या (13 प्रतिशत) की प्रवृत्ति थोड़ी अधिक देखी गई. यहां फिर से रोज़गार चाहने वाले या वर्तमान में बेरोज़गार (7 प्रतिशत) की तुलना में नियोजित युवाओं ने सबसे अधिक आत्महत्या की प्रवृत्ति (17 प्रतिशत) प्रदर्शित की.
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मदद की तलाश
अध्ययन में पिछले दो वर्षों में मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट्स से युवाओं की बातचीत के बारे में पूछताछ की गई और परिणाम चिंताजनक थे (ग्राफ 4). केवल 6 प्रतिशत ने मेंटल हेल्थ से जुड़ी प्रॉब्लम के लिए डॉक्टर के पास जाने की सूचना दी. यह भी पाया गया कि 9 प्रतिशत युवा सोने के लिए नींद की गोलियों का सहारा ले रहे थे. सबसे परेशान करने वाली बात यह है कि पिछले दो वर्षों में सोने के लिए बार-बार नींद की गोलियां लेने वाले दस में से 7 युवाओं ने किसी भी प्रकार की मदद नहीं मांगी. इससे भी अधिक चिंताजनक तथ्य यह था कि जिन दस व्यक्तियों में अक्सर आत्महत्या के विचार आते थे, उनमें से 7 ने किसी मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट से मदद नहीं मांगी. यह एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर प्रकाश डालता है, जिसमें आत्महत्या की प्रवृत्ति से जूझ रहे युवाओं की एक बड़ी संख्या को मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट्स से आवश्यक समर्थन और मार्गदर्शन नहीं मिल रहा है. हालांकि, मेंटल हेल्थ और गाइडेंस के बारे में जागरूकता बढ़ी है, फिर भी सामाजिक कलंक मौजूद है जो लोगों को इन समस्याओं के बारे में खुलकर बात करने और मदद मांगने से रोकता है.
(प्रोफेसर संजय कुमार लोकनीति-सीएसडीएस में प्रोफेसर और सह-निदेशक हैं. विभा अत्री लोकनीति-सीएसडीएस में शोधकर्ता हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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